शत्रुघ्न सिन्हा ने वो सब कुछ किया, जिसके लिए पार्टी द्वारा उन्हें निलंबित किया जा सकता था। राहुल गाँधी की प्रशंसा से लेकर पीएम मोदी की आलोचना तक, उन्होंने भाजपा के पार्टी संविधान की जम कर धज्जियाँ उड़ाईं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की रैली से लेकर कोलकाता में ममता बनर्जी की विपक्षी एकता रैली तक, उन्होंने विपक्ष के हर जमघटों में हिस्सा लिया। यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे बागी भाजपा नेताओं के साथ मिलकर केंद्र सरकार पर तरह-तरह के आरोप तक लगाए। लेकिन, भाजपा ने संयम बनाए रखा। एक तरह से देखा जाए तो लाल कृष्णा आडवाणी का सिन्हा के प्रति वो स्नेह ही था, जिसका सम्मान करते हुए भाजपा ने उनके ख़िलाफ़ अनुशासत्मक कार्रवाई नहीं की।
बिहार भाजपा के नेता पार्टी आलाकामन के इस फैसले से नाराज़ थे। सुशील मोदी और गिरिराज सिंह जैसे सभी नेता चाहते थे कि उन पर कार्रवाई हो लेकिन भाजपा ने पुराने जमाने में पार्टी के भीतर सिन्हा के सम्मान का ख्याल करते हुए उनके बयानों को नज़रअंदाज़ किया। ऐसा शायद ही किसी पार्टी में देखने को मिलता हो। जहाँ बड़े-बड़े नेताओं पर सिर्फ़ पार्टी अध्यक्ष के ख़िलाफ़ तेवर दिखाने पर ही निकाल बाहर किया जाता है, वहाँ सिन्हा द्वारा मोदी-शाह की बारम्बार आलोचना के बावजूद उन्हें छुआ तक नहीं गया। इसके लिए शत्रुघ्न सिन्हा से ज्यादा लाल कृष्ण आडवाणी का हाथ था। आडवाणी भाजपा के पितृपुरुष हैं और भाजपा को पता था कि वो आडवाणी का ही भरोसा था, जिस कारण उन्होंने 1992 में अपनी छोड़ी सीट पर सिन्हा को चुनाव लड़ाया था।
Hamaare ghanisht parivarik mitr Lalu Yadav ji ki anumati aur sahmati se kamaal ho gaya, dhamaal ho gaya…Jai Bihar, Jai Hind!
— Shatrughan Sinha (@ShatruganSinha) March 29, 2019
Sahi disha, nayi disha, naya dost aur naya netritva….God bless @RahulGandhi “The Rahul Gandhi, hope of the nation”…? pic.twitter.com/nB9SbqU9NK
यह दो चीजें दिखाता है। पहली यह कि भाजपा में आडवाणी का क़द और सम्मान आज भी वही है, जो पहले था। बस उनकी सक्रियता ख़त्म हुई है। दूसरा यह कि भाजपा ने पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का एक मज़बूत उदाहरण देकर उनको भी करारा जवाब दिया, जो भाजपा को मोदी-शाह की कथित तानाशाही से जकड़ा हुआ बताते हैं। तीसरी सबसे बड़ी चीज यह भी है कि भाजपा ने बड़ी चालाकी से शत्रुघ्न सिन्हा को तीन साल खुल कर पार्टी व मोदी की आलोचना करने का मौका देकर उनके क़द को एकदम से घटा दिया। भाजपा को इस बात का एहसास था कि अगर वो सिन्हा पर निलंबन का अनुशासत्मक कार्रवाई करती है तो उन्हें ख़ुद को विक्टिम के रूप में पेश करने का एक मौक़ा मिल जाएगा और इसी कारण वो जनता के एक हिस्से में सहानुभूति का पात्र बनने की कोशिश करेंगे।
शत्रुघ्न सिन्हा द्वारा विपक्षी रैलियों का हिस्सा बनने पर भी उन्हें निलंबित नहीं किया गया। वो पार्टी से निलंबन चाहते भी थे ताकि ये मीडिया में चर्चा का विषय बने और वो दूसरी पार्टी में पूरे धूम-धड़ाके से शामिल हों लेकिन उनका ये स्वप्न धरा का धरा रह गया। परिणाम यह हुआ कि समय के साथ सिन्हा अप्रासंगिक होते चले गए। उनकी बातों की गंभीरता ख़त्म हो गई और उन्हें मीडिया कवरेज भी अपेक्षाकृत कम मिलने लगा। इसके उलट अगर भाजपा उन्हें निलंबित करती तो ये बात मीडिया में छा जाती और उन्हें फिर से उनकी खोई हुई लोकप्रियता का कुछ हिस्सा वापस मिल जाता। भाजपा ने जिस रणनीति से काम लिया, उस कारण उन्हें मजबूरन कॉन्ग्रेसी होना पड़ा, बिना किसी ख़ास मीडिया कवरेज के।
अरुण जेटली ने यह कह कर स्थिति साफ़ भी कर दी है कि अब भाजपा की समस्या कॉन्ग्रेस की है। अगर शत्रुघ्न सिन्हा पटना साहिब से चुनाव हार जाते हैं तो उन्हें शायद ही ऐसा सम्मान और पद दिया जाए, जो उन्हें नब्बे के दशक में चुनाव हारने के बावजूद भाजपा ने दिया था। इसे समझने के लिए हमें उसी दौर में जाना पड़ेगा। सारी चीजों को बारीकी से समझने के बाद आप भी भाजपा और शत्रुघ्न सिन्हा के संबंधों की अच्छी तरह पड़ताल कर पाएँगे।
शत्रुघ्न सिन्हा का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं है। सत्तर और अस्सी के दशन में एक वर्ष में क़रीब 10 फ़िल्में करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा को बॉलीवुड के शॉटगन के नाम से जाना गया। विलेन और सपोर्टिंग किरदारों से शुरुआत करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा पर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने भरोसा जताया और उन्हें राजनीति में एक बड़ा स्थान दिया। अगर भाजपा से उनके संपर्क की बात करें तो नब्बे के दशक में कॉन्ग्रेस द्वारा सुपरस्टार राजेश खन्ना को अपने पाले में लाने के बाद भाजपा को भी किसी ऐसे चेहरे की तलाश थी, जो फ़िल्मों की दुनिया में बड़ा नाम रखता हो। शत्रुघ्न सिन्हा के रूप में भाजपा ने उस चेहरे पर दाँव खेलने का निश्चय किया। अटल बिहारी वाजपेयी अपने क्षेत्रों में नाम कमा चुके हस्तियों को भाजपा में शामिल करने में हमेशा इच्छुक रहे थे।
1991 लोकसभा चुनाव के दौरान नई दिल्ली में देश के सबसे बड़े राजनीतिक युद्ध का नज़ारा देखने को मिला। कॉन्ग्रेस ने 60 और 70 के दशक में बॉलीवुड पर एकछत्र राज करने वाले राजेश खन्ना को वहाँ से प्रत्याशी बनाया। तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी वहाँ से भाजपा के प्रत्याशी थे। 1989 में उन्होंने नई दिल्ली से ही चुनाव जीता था। 1991 का यही वो चुनाव था, जिसमें प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या कर दी गई थी। हालाँकि, वे गाँधीनगर से भी ताल ठोक रहे थे लेकिन नई दिल्ली सीट आडवाणी के लिए प्रतिष्ठा का विषय था। राजधानी क्षेत्र में आडवाणी की हार का उभरते भाजपा पर दूरगामी दुष्परिणाम हो सकते थे। हालाँकि तब वाजपेयी की सर्वमान्यता अधिक थी लेकिन मंदिर-मंडल के उस दौर में आडवाणी देश के सबसे लोकप्रिय नेता के तौर पर उभर रहे थे।
राजेश खन्ना के माध्यम से कॉन्ग्रेस ने आडवाणी के राजनीतिक करियर को अधर में लटकाने की भरसक कोशिश की लेकिन आडवाणी किसी तरह जीतने में सफल हुए। पहली बार चुनाव लड़ रहे खन्ना की लोकप्रियता का आलम यह था कि उन्होंने तब नेता प्रतिपक्ष रहे अनुभवी आडवाणी को भी नाकों चने चबवा दिया था। आडवाणी जीते लेकिन सिर्फ़ 0.74% मतों के अंतर से। दोनों के बीच मतों का अंतर मात्र 1589 था। आडवाणी ने उस चुनाव में गाँधीनगर से भी जीत का पताका लहराया था और नियमानुसार उन्होंने नई दिल्ली सीट से इस्तीफा दे दिया, जिस कारण 1992 में यहाँ फिर से उपचुनाव हुए। राजेश खन्ना की लहर से खार खाई भाजपा ने अपने तरकश से ऐसा तीर निकालने की कोशिश की, जिससे इस सीट पर कॉन्ग्रेस को टक्कर दी जा सके।
I loved, how the BJP tackled Shatrughan Sinha. Despite constant provocations and his anti-party activities, he wasn’t expelled cuz that would make a victim out of him. He and his baits were paid no attention which made him irrelevant over the time. He had no option but to leave.
— Sonam Mahajan (@AsYouNotWish) March 28, 2019
अतः, शत्रुघ्न सिन्हा की भाजपा में एंट्री हुई। हालाँकि, उन्होंने 1989 लोकसभा चुनाव में भी कॉन्ग्रेस विरोधी दलों के लिए चुनाव प्रचार किया था लेकिन किसी भी पार्टी के साथ अपना नाम जोड़ने से बचते रहे थे। 1992 में खन्ना के ख़िलाफ़ भाजपा से ताल ठोकते हुए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहा राव को निशाना बनाया। चुनाव प्रचार के दौरान सिन्हा ने 1991 आम चुनाव में कॉन्ग्रेस के वादों का जिक्र करते हुए तत्कालीन केंद्र सरकार को आड़े हाथों लिया। इंडिया टुडे ने सिन्हा के इस प्रचार अभियान की तुलना 1971 में आई मीणा कुमार और विनोद खन्ना अभिनीत फ़िल्म ‘मेरे अपने’ में उनके द्वारा निभाए गए किरदार ‘छेनू’ से की थी।
उस उपचुनाव की ख़ासियत यह थी कि उसमें दोनों अभिनेताओं की पत्नियों ने भी अहम भूमिका निभाई थी। डिंपल कपाड़िया और पूनम सिन्हा ने भीड़ इकट्ठा करने से लेकर रणनीति बनाने तक का बीड़ा उठा लिया था। एक और बात बता दें कि इस चुनाव में 125 उम्मीदवार थे। डकैत फूलन देवी ने जेल से ही चुनाव लड़ा था लेकिन उन्हें मुश्किल से हज़ार वोट भी नहीं आए। जब परिणाम आए तो शत्रुघ्न सिन्हा की हार हुई और राजेश खन्ना नई दिल्ली से सांसद बने। एक लाख से भी अधिक मत पाकर खन्ना ने सिन्हा को 27,000 से भी अधिक मतों से मात दी। लेकिन, भाजपा ने हार के बावजूद शत्रुघ्न सिन्हा को वो सब कुछ दिया, जो अमूमन नेताओं को जीतने के बाद नसीब होता है।
1996 में भाजपा ने शत्रुघ्न सिन्हा को राज्यसभा भेजा। 2002 में उन्हें फिर से राज्यसभा भेजा गया। चुनाव हारने के बावजूद भाजपा ने उन्हें दो बार सांसद बनाया। वाजपेयी सरकार में उन्हें केंद्रीय मंत्री का पद दिया गया। सिन्हा 2009 में पटना साहिब से पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए। 2014 में रिकॉर्ड वोटों से जीत कर उन्होंने अपनी इस सीट को बरकरार रखा। लेकिन, 2014 आते-आते सिन्हा भाजपा द्वारा अपने लिए किए गए कार्यों को भूल गए और उन्होंने पार्टी के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब सिन्हा के स्टारडम का दौर जा चुका है और न ही उनके लिए भीड़ जुटती है। फिर भी भाजपा ने उन्हें लेकर जिस तरह का संयम दिखाया, ऐसा कम ही देखने को मिलता है। वरना पार्टियाँ तो सेलेब्रिटीज से एक बार काम निकलने के बाद उन्हें किनारे कर दिया करती हैं।
आपको यह बात भी जाननी चाहिए कि सिन्हा अब भीड़ जुटाने के लायक भी नहीं रहे हैं। चंडीगढ़ में अरविन्द केजरीवाल की एक रैली हुई थी, जिसमें उन्हें भी अतिथि के रूप में बुलाया गया था। पोस्टरों पर केजरीवाल के साथ सिन्हा का चित्र लगाकर प्रचार-प्रसार किया गया था ताकि जनता की भीड़ जुटे लेकिन हुआ इसके उलट। केजरीवाल को कुछ ही मिनट में रैलीस्थल से भागना पड़ा। खाली कुर्सियाँ देख बौखलाए केजरीवाल सभा से तुरंत चल निकले। यह दिखाता है कि शत्रुघ्न सिन्हा अब जनता के बीच सचमुच अप्रासंगिक हो गए हैं और इसके पीछे उनके बड़बोलेपन का हाथ है। इसमें भाजपा का भी रोल है, जिसने उन्हें अच्छे तरीके से हैंडल किया।