“पिछले दिनों में जो घटनाएँ हुई हैं उससे जम्मू-कश्मीर और लेह-लद्दाख के लोग डरे हुए हैं। इससे 1990 की यादें ताजा हो गई हैं, जब वीपी सिंह की सरकार में बीजेपी ने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनवाया था और फिर घाटी से कश्मीरी पंडितों को बसों में भर कर बाहर निकाला गया जो आज तक एक कलंक की तरह है।”
-गुलाम नबी आजाद, नेता विपक्ष, राज्यसभा
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके आजाद ने शनिवार को कॉन्ग्रेस मुख्यालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए यह बात कही। आजाद वही नेता हैं जिन्होंने बीते साल कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू होने के बाद कहा था ‘सेना का एक्शन नागरिकों के खिलाफ ज्यादा और आंतकियों के खिलाफ कम है।’ इस बयान के लिए उन्होंने सीमा पार खूब वाहवाही बटोरी थी। आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा ने कहा था, “शुरू से ही हमारी राय वही है जो गुलाम नबी आजाद की है। हिंदुस्तान कश्मीर में राज्यपाल शासन लगाकर दोबारा जगमोहन युग की शुरुआत करना चाहता है और निर्दोषों का कत्लेआम करना चाहता है।”
सो, ताज्जुब नहीं कि आजाद ने कश्मीर की समस्या का ठीकरा जगमोहन के मत्थे मढ़ दिया। जम्मू-कश्मीर में जगमोहन की भूमिका पर गौर करने से पहले यह जानना जरूरी है कि जगमोहन को कसूरवार बताने की कोशिश कॉन्ग्रेसी पहले भी कर चुके हैं। ऐसा करना उनके लिए जरूरी भी है, क्योंकि इससे जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजीव गॉंधी तक के बेतुके फैसलों पर पर्दा डल जाता है।
जैसा कि पत्रकार आदित्य राज कौल ने ट्वीट किया है, “2014 में वाराणसी में एक साक्षात्कार के दौरान ने गुलाम नबी आजाद ने मुझे जगमोहन के बारे में सवाल पूछने को कहा था ताकि वे भाजपा पर निशाना साध सकें।” कश्मीरी पंडितों के मसीहा जगमोहन को खलनायक साबित करने के लिए एक अन्य कॉन्ग्रेसी और केन्द्र में मंत्री रह चुके सैफुद्दीन सोज तो बकायदा एक किताब ‘Kashmir: Glimpses of History and the Story of Struggle’ भी लिख चुके हैं।
Ghulam Nabi Azad once in Varanasi in 2014 during an interview requested me to ask a question on Jagmohan as he wanted to hit out at BJP. The conspiracy theories have been backed by such politicians. Kashmir is with India thanks to Jagmohan. And thanks to him for saving Pandits! https://t.co/uMY7TzzNSR
— Aditya Raj Kaul (@AdityaRajKaul) August 3, 2019
पंडितों के मसीहा, कॉन्ग्रेस के लिए खलनायक
अब आते हैं जगमोहन की भूमिका पर। वे दो बार कश्मीर के राज्यपाल रहे। आपातकाल के जमाने में उनकी गिनती संजय गॉंधी के वफादारों में होती थी। इंदिरा गॉंधी के भी वे आँख के तारे थे। उन्हें जम्मू-कश्मीर का पहली बार राज्यपाल इंदिरा ने तब बनाया था, जब वह फारूख अब्दुल्ला को हटाकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थीं। रिश्ते में इंदिरा के भाई तत्कालीन राज्यपाल बीजू नेहरू ने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो उनकी जगह जगमोहन लाए गए।
यह सही है कि दूसरी बार, उन्हें जब 1990 में कुछ महीनों के लिए जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया तो केन्द्र में वीपी सिंह की सरकार थी और वह भाजपा के समर्थन से चल रही थी। यह भी सच है कि उनके इस कार्यकाल में कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। लेकिन, इसका दूसरा पहलू यह भी है कि उनके राज्यपाल बनने से पहले 1987-88 से ही पंडितों ने घाटी छोड़ना शुरू कर दिया था। 14 सितंबर 1989 को भाजपा नेता पंडित टीका लाल टपलू की निर्मम हत्या कर दी गई थी। इसके कुछ समय बाद ही जज नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। गंजू ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किए गए थे। घाटी में हमें पाकिस्तान चाहिए। पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ जैसे नारे लग रहे थे।
ऐसे माहौल में श्रीनगर पहुॅंचे जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से सुरक्षित निकलने का मौका मुहैया कराया, जिसके लिए पंडित उन्हें आज भी मसीहा मानते हैं। बाद में जगमोहन भाजपा में शामिल हो गए और वाजपेयी सरकार में मंत्री बने। जाहिर है इंदिरा के दुलारे को कॉन्ग्रेस का विलेन बनना ही था।
…और परिवार की प्रयोगशाला
कश्मीर की कहानी परिवारों की कहानी है। एक राजपरिवार और तीन राजनीतिक (नेहरू-गॉंधी, अब्दुल्ला और सईद) परिवार। बॅंटवारे के बाद पाकिस्तानी कबायली सेना ने हमला किया तो कश्मीर के महाराजा हरि सिंह (उनके बेटे कर्ण सिंह कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं) ने भारत के साथ विलय की संधि की। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री बने। उन्हें नेहरू का समर्थन हासिल था। बाद में दोनों के रिश्तों में कड़वाहट आ गई। 1953 में अब्दुल्ला गिरफ्तार कर लिए गए।
बाद में नेहरू की बेटी इंदिरा ने शेख अब्दुल्ला से सुलह कर ली। उन्हें 1975 में कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया। यह रिश्ता इंदिरा ने शेख अब्दुल्ला के बेटे फारूक के साथ भी शुरुआत में निभाया। फिर इंदिरा ने 1984 में कैसे फारूख को हटाकर गुल शाह को सीएम बनवाया, ये आप ऊपर पढ़ चुके हैं। शाह ने जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया के एक प्राचीन मन्दिर परिसर के भीतर मस्जिद बनाने की अनुमति दे दी ताकि मुस्लिम कर्मचारी नमाज पढ़ सकें। इस फैसले का जम्मू में विरोध हुआ और दंगे भड़क गए। घाटी में पंडितों पर अत्याचार का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ।
इंदिरा की हत्या के बाद फारूक ने उनके बेटे राजीव से दोस्ती गांठी और 1986 में दोबारा सीएम बने। इधर, पंडितों के खिलाफ अलगाववादियों की साजिश चरम पर पहुॅंच गई थी। कई कश्मीरी पंडितों को मारा गया, लेकिन फारूक अब्दुल्ला ने कुछ नहीं किया। ऐसे वक्त में वे मार्तण्ड सूर्य मन्दिर के भग्नावशेष पर सांस्कृतिक कार्यक्रम करा रहे थे। इसी बीच, दिसंबर 8, 1989 को वीपी सिंह सरकार के मंत्री मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद अगवा कर ली गईं। बदले में आतंकी छोड़े गए।
इस तरह से कुछ परिवारों की गलती से बदतर हुए हालात पर काबू पाने के लिए जगमोहन दूसरी बार श्रीनगर भेजे गए। आलोचक कहते हैं कि सुरक्षित रास्ता देकर जगमोहन ने पंडितों को घाटी से पलायन के लिए प्रेरित किया। उनकी हिफाजत नहीं की। यानी, पंडितों को घाटी में मरने के लिए अकेले नहीं छोड़ना जगमोहन की गलती थी! बाद में भाजपा में शामिल होकर उन्होंने दूसरी गलती की और ‘सेक्युलर’ गिरोह के आसान निशाना बन गए!