Friday, November 15, 2024
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कमल हासन 2013 Vs 2019: तब ‘शांतिदूतों’ के कारण देश छोड़ रहे थे, आज हिंदू आतंकवाद का राग अलाप रहे

आतंकवाद क्या है और इसकी परिभाषा क्या है, अगर कमल हासन ये पढ़ लें तो उन्हें भी पता चल जाएगा कि गोडसे कहीं से भी इस परिभाषा में फिट नहीं बैठते। व्यक्तिगत दुश्मनी पाल कर एक हत्या करने वाला अगर आतंकी है तो 'अल्लाहु अकबर' बोलकर अब तक हज़ारों लाशें बिछा चुके कौन लोग हैं, ये सवाल हम हर उस व्यक्ति से पूछते हैं जिसे हिन्दू आतंकवाद के अस्तित्व पर विश्वास है।

कमल हासन के नए काण्ड की बात तो हम करेंगे, लेकिन उससे पहले एक कहानी बताना चाहता हूँ आप लोगों को। ये कहानी उस बड़े अभिनेता की है, जिसे अपनी ज़िंदगी में कई भाषाओं में अभिनय करते-करते इतने अवॉर्ड मिले कि अंत में उसे फ़िल्मफेयर को लिखना पड़ा कि अब उन्हें अवॉर्ड्स न दिए जाएँ। ये क़रीब डेढ़ दशक पुरानी बात है। इसके बाद भी फ़िल्मों में वह अभिनेता सक्रिय रहा। लेकिन, जनवरी 2013 में एक फ़िल्म आई, जिसका नाम था विश्वरूपम, और इसके बाद सब कुछ बदल गया। कमल हासन के आलोचक भी मानते हैं कि विश्वरूपम एक उम्दा फ़िल्म थी और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में इस्लामिक आतंक को इससे बेहतर शायद ही किसी भारतीय फ़िल्म में दिखाया गया हो। इस फ़िल्म को लिखने वाले, इसका निर्देशन करने वाले और इसके मुख्य अभिनेता, तीनो ही कमल हासन थे। अतः इसका पूरा का पूरा श्रेय उन्हें ही जाता है।

लेकिन, क्या आपको पता है कि इस फ़िल्म की रिलीज पर संकट उत्पन्न हो गया था? इस संकट का कारण वही लोग थे, जिन्हें लुभाने के लिए कमल हासन आज गली-गली में घूम कर कॉन्ग्रेस द्वारा यूपीए शासनकाल में क्राफ्ट किए गए ‘हिन्दू आतंकवाद’ वाले नैरेटिव को आगे बढ़ा रहे हैं। कमल हासन ने विशाल भारद्वाज वाली ग़लती की है। कश्मीर में सेना के कथित अत्याचारों को दिखने वाले विशाल भारद्वाज ने हाल ही में नाथूराम गोडसे को स्वतंत्र भारत का पहला आतंकी बताया था। कमल हासन ने एक तरह से उन्हीं की बातों को दुहराया है। हाँ, तो विश्वरूपम में आतंकियों को मुस्लिमों वाली टोपी पहने दिखाया गया था। इसमें कोई दो राय नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान के बैकड्राप में बनी इस फ़िल्म में ये चीज ग़लत नहीं दिखाई गई थी।

विश्वरूपम का ट्रेलर आया। ट्रेलर में ही आतंकियों को मजहब विशेष वाली टोपी पहने गोलियाँ चलाते हुए देखा गया। ये सच्चाई थी। अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानी आतंकियों की वेश-भूषा वही होती थी या है, जो एक कट्टरपंथी की होती है। स्कल कैप, टखने तक पजामा और कुर्ता, बिना मूछों वाली दाढ़ी और जबान पर बात-बात पर अल्लाह का नाम। कमल हासन ने ‘हे राम’ में नाथूराम गोडसे का किरदार भी अदा किया था, लेकिन उस वक़्त उनकी फ़िल्म की रिलीज रोकने की धमकी नहीं दी गई थी। ऐसा इसीलिए, क्योंकि पूरा भारत मानता है कि गोडसे एक हत्यारा था। उस पर हत्या का आरोप सिद्ध हुआ था और इसकी सजा उसे मिली थी। लेकिन, मारते समय उसने राम का नाम नहीं लिया था, गाँधीजी ने मरते वक़्त ‘हे राम’ कहा था।

गोडसे का पक्ष जानने के लिए लोग उन्हें और उनके विचारों को पढ़ते हैं, इसमें कोई बुराई नहीं। जब लाशें बिछाने वाले हिटलर की ऑटोबायोग्राफी पढ़ी जाती है तो गोडसे ने तो एक ही हत्या की थी (जिसकी निंदा की जाती है) तो उन्हें पढ़ने में क्या बुराई है। लेकिन हाँ, उन्होंने गाँधी को मारते वक़्त ‘अल्लाहु अकबर’, ‘वाहेगुरु’ या ‘जय श्री राम’ नहीं कहा था। विश्वरूपम की रिलीज रोकने में वही शांतिप्रिय समाज के लोग शामिल थे, जिन्हें इस बात पर आपत्ति थी की फ़िल्म में उन्हें आतंकी दिखाया गया है। कमल हासन ने गोडसे को दिखाया, वे जैसा चाहते थे उसी तरह से गोडसे को प्रदर्शित किया, लेकिन उन्होंने देश छोड़ने की बात विश्वरूपम के समय कही। विश्वरूपम को मद्रास हाई कोर्ट के ऑर्डर के बावजूद समय पर रिलीज नहीं किया जा सका था।

कमल हासन ने उस समय कहा था कि वो तमिलनाडु छोड़ देना चाहते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने भारत छोड़ने की बात भी कही, वही देश जहाँ वो 1960 से ही अभिनय कर रहे हैं। एक बाल कलाकार के रूप में साठ के दशक से लेकर सुपरस्टार और फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाने के बाद भी, कमल हासन को देश छोड़ने की ज़रूरत पड़ गई। क्यों? क्योंकि कमल हासन की राय थी कि वह एक धर्मनिरपेक्ष जगह, राज्य या देश में जाकर बसना चाहते हैं। उन्हें भारत धर्म निरपेक्ष नज़र नहीं आ रहा था क्योंकि 2013 में ऐसे विषय पर 100 करोड़ रुपए से भी अधिक बजट वाली फ़िल्म बनाना एक साहस का कार्य था और उन्होंने लगभग अपनी ज़िंदगी भर की कमाई, मेहनत और अनुभव का इस्तेमाल इसमें कर दिया था। उन्हें कंगाल होने का ख़तरा नज़र आ रहा था। ख़ुद को संभावित आर्थिक संकट को देखते हुए उनके मन में भारत छोड़ने का विचार आया।

कौन लोग थे कमल हासन की इस पीड़ा के पीछे? जब पूरा का पूरा समुदाय विशेष उनके विरोध में खड़ा हो गया था और उन्हें भारत एक सांप्रदायिक राष्ट्र लगने लगा था, उस समय के वो साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोग आज उनके लिए सहानुभूति के पात्र कैसे हो गए? जो देश के सबसे बड़े और पुराने अभिनेताओं में से एक को देश छोड़ने को मज़बूर कर दे, वो समाज होता है सांप्रदायिक। जो सबसे ज्यादा फ़िल्मफेयर अवॉर्ड्स जीतने वाले अभिनेताओं में से एक को देश में डरा कर रख दे, उस समाज को कहते हैं सांप्रदायिक। वह कौन सा समाज था, वो कौन से लोग थे, इसका उत्तर कमल हासन से बेहतर कोई नहीं जानता। कमल हासन ने बाद में अपने बयान पर कायम रहने की बात करते हुए कहा था कि अगर आगे ऐसा कुछ होता है तो वह फिर से देश छोड़ने की सोचेंगे। बस कुछ दिनों के विरोध के कारण कमल हासन को उस समय 60 करोड़ का घाटा हुआ था।

राजनेता कमल हासन को समुदाय विशेष का वोट चाहिए। अभिनेता कमल हासन कहीं गुम हो गया है। उस अभिनेता की फ़िल्म को जब समुदाय विशेष ने रोक दिया था, तब रजनीकांत और जयललिता जैसी शख़्सियतों ने आगे आकर कमल का समर्थन किया था। राजनेता कमल हासन के लिए हिन्दू आतंकवाद एक सच्चाई है, कॉन्ग्रेस का वो नैरेटिव, विशालक भारद्वाज की वह सोच, कमल हासन इन सबके प्रमुख वाहक हो चुके हैं। आतंकवाद क्या है और इसकी परिभाषा क्या है, अगर कमल हासन ये पढ़ लें तो उन्हें भी पता चल जाएगा कि गोडसे कहीं से भी इस परिभाषा में फिट नहीं बैठते। व्यक्तिगत दुश्मनी पाल कर एक हत्या करने वाला अगर आतंकी है तो ‘अल्लाहु अकबर’ बोलकर अब तक हज़ारों लाशें बिछा चुके कौन लोग हैं, ये सवाल हम हर उस व्यक्ति से पूछते हैं जिसे हिन्दू आतंकवाद के अस्तित्व पर विश्वास है।

कमल हासन ने अरवाकुरीचि में ये बात कही। उनके मन में कहीं न कहीं खोट था, क्योंकि अपने इस बयान के बाद उन्होंने जो सफ़ाई दी, उससे साफ़ पता चलता है कि उनकी सोच क्या थी? कमल हासन ने कहा कि वो सिर्फ़ इसीलिए गोडसे को आतंकी नहीं बोल रहे क्योंकि यह एक मजहब विशेष के प्रभाव वाला इलाक़ा है, ऐसा वो गाँधीजी की प्रतिमा को सामने देख कर कह रहे हैं। कमल हासन की इन बातों से ही पता चल जाता है कि उन्होंने गोडसे को आतंकी क्यों कहा। एक हत्या करने वाला व्यक्ति आतंकी है तो गाँधीजी की हत्या भी आज़ादी के 5 महीनों बाद हुई थी। उस दौरान न जाने कितने ख़ून-ख़राबे हुए और कितने ही लोगों की जानें गई। कमल हासन को उन सबके नाम खोजकर लाने चाहिए क्योंकि हत्याएँ उस समय भी हुईं थी और हासन की परिभाषा के अनुसार, वो सभी आतंकी थे। उनकी थ्योरी में यहीं त्रुटि निकल आती है, अगर अपराध और हत्या ही आतंकवाद है तो फिर इस शब्द की ज़रुरत ही क्या थी?

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अनुपम कुमार सिंह
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भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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