दिग्विजय सिंह हार रहे हैं। मध्य प्रदेश की राजनीति का सिरमौर रहा यह नेता आज हार रहा है, बुरी तरह हार रहा है। पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रही एक साध्वी ने पुराने नेता को चित कर दिया। राजनीति के सारे दाँव-पेंच जानने वाले और गाँधी परिवार के वफ़ादार नेता का राजनीतिक सूर्यास्त हो चुका है। 1993 से 2003 तक अखंड मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ के गठन से पहले उन्होंने दो चुनाव जीते) के मुख्यमंत्री रहे दिग्गी राजा का राजनीतिक करियर आज अपने अंतिम दौर में है। ये सब महज अनुमान नहीं है बल्कि सच्चाई है। इस सच्चाई को धरातल पर उतारने में उनके अपनों का ही हाथ है, परायों का नहीं। अगर ऐसा नहीं होता, तो क्या दिग्गी राजा को कोई सेफ सीट खोज कर नहीं लड़ाया जाता?
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सिख नरसंहार के आरोपित रहे कमलनाथ ने अपने सामने सबसे बड़े काँटे को इस तरह से हटाया, जिससे साँप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटा। दरअसल दिग्विजय सिंह ने भले ही 2003 में राज्य में उमा भारती के हाथों करारी हार के बाद चुनाव लड़ना बंद कर दिया, लेकिन वह राजनीति में सक्रिय थे। मध्य प्रदेश कॉन्ग्रेस कमेटी में उनका दखल उतना ही था, जितना पहले हुआ करता था। कारण? इसका कारण है गाँधी परिवार का वफ़ादार होना। जैसे गुजरात कॉन्ग्रेस में अहमद पटेल का दखल है, वैसे ही मध्य प्रदेश में दिग्गी राजा का स्थान था। सवाल यह है कि इतने बड़े नेता को, जो 2 दशक बाद चुनावी राजनीति में लौटा हो, इतनी कठिन सीट क्यों दी गई?
राष्ट्रीय राजनीति में पाँव जमाने को आतुर दिग्विजय ने दिल्ली का रुख तो किया था लेकिन उनके पीठ पीछे कमलनाथ ने उनका सिंहासन हथिया लिया, उनके स्थान को भर दिया। इसके बाद राज्य में ज्योतिरादित्य सिंधिया के रूप में एक और राजनीतिक घराने के प्रतिनिधि के उदय ने ज़रूर कमलनाथ को परेशान किया लेकिन गाँधी परिवार से वफ़ादारी के मामले में कमलनाथ के सामने वह कहीं नहीं ठहरते। कमलनाथ ने पहले भी कहा था कि दिग्विजय बहुत बड़े नेता हैं और उन्हें उसी सीट से चुनाव लड़ना चाहिए, जो सबसे कठिन सीट हो। चूँकि पहले भोपाल से भाजपा के शिवराज सिंह चौहान के लड़ने आसार थे, इसीलिए कमलनाथ को उम्मीद थी कि दिग्गी हारेंगे ही।
दिग्विजय सिंह को अपनों ने लूटा। उन्हें कमलनाथ ने बड़ी चालाकी से बेइज्जत होने के लिए भोपाल से लड़वा दिया। उन्हें सबसे बड़ा नेता और सबसे कठिन सीट वाली बातों से ऐसा बहला लिया गया, जिससे कथित हिन्दू आतंकवाद की बात करने वाले एक हिंदुत्ववादी नेत्री से ही हार गए। इस बात को समझने के लिए चलना पड़ेगा थोड़ा पीछे। चुनाव से पहले और उसके दौरान कैसे कमलनाथ ने अपने बेटे की जीत सुनिश्चित करने के लिए सारा जोर लगा दिया लेकिन दिग्विजय सिंह को एक ऐसे चक्रव्यूह में फँसा दिया, जिससे वो शायद ही कभी उबर पाएँ। अब कमलनाथ के सामने न सिंधिया हैं और न दिग्गी, उनके बेटे अगर चुनाव जीतते हैं तो उनका भविष्य भी ठीक है।
कमलनाथ चालाक हैं। उन्होंने बड़ी चालाकी से पार्टी के राष्ट्रीय आलाकमान पर दबाव डाल कर उन्हें प्रदेश से बाहर भेज दिया। सर्वविदित है, कमलनाथ और सिंधिया, दोनों ही एमपी में सीएम पद के दावेदार थे और राहुल गाँधी ने मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा से पहले दोनों के साथ फोटो डालकर यह जताने की कोशिश की थी कि पार्टी में सब ठीक है। राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि राज्य में सत्ता के 2 केंद्र न हो जाएँ, इसे देखते हुए सिंधिया को बाहर रखा जा रहा है। बीच में यह भी ख़बर आई थी कि कमलनाथ चाहते हैं कि दिग्विजय अगर चुनावी राजनीति में वापसी करते हैं तो वह राज्य की सबसे कठिन सीट चुनें और फलस्वरूप उन्हें भोपाल से लड़ाया गया जहाँ पिछले 8 चुनावों या यूँ कहें 30 सालों से भाजपा का कब्ज़ा है। साध्वी प्रज्ञा के आने से यहाँ मुक़ाबला और रोचक हो गया।
कमलनाथ चालाक हैं। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ के बारे में हाल ही में साध्वी प्रज्ञा ने तंज कसा था कि वह सिर्फ़ छिंदवाड़ा के मुख्यमंत्री हो कर रह गए हैं। एक तरह से उनकी बात बहुत हद तक सही है क्योंकि छिंदवाड़ा से कमलनाथ के पुत्र नकुल नाथ चुनाव लड़ रहे हैं और आपको बता दें कि कमलनाथ ने चुनाव प्रचार ख़त्म होने के अंतिम 2 दिन छिंदवाड़ा में गुज़ारे ताकि अपने बेटे की जीत सुनिश्चित कर सकें। कमलनाथ ने बड़ी चालाकी से अपने बेटे के लिए तो ख़ूब मेहनत कि लेकिन दिग्विजय सिंह कि हार के लिए परदे के पीछे से ऐसा चक्रव्यूह रचा, जिससे वह मध्य प्रदेश के एकछत्र शासक बन जाएँ।
उत्तर प्रदेश में बड़ी हार के बाद सिंधिया का क़द कम होना तय है और दिग्विजय की हार के बाद वह अप्रासंगिक हो ही जाएँगे। ऐसे में, कमलनाथ की बल्ले-बल्ले है। नकुल नाथ अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं और पिता कमलनाथ का सारा ध्यान अपने बेटे की जीत सुनिश्चित करने पर है। छिंदवाड़ा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले 40 वर्षों से यहाँ कमलनाथ सांसद हैं। बीच में एक वर्ष के लिए भाजपा ने यहाँ जीत दर्ज की थी और एक वर्ष उनकी पत्नी अलका नाथ सांसद रही थीं। दरअसल, कमलनाथ चाहते नहीं थे कि राज्य में सत्ता के तीन केंद्र बनें और आलाकमान ने उनकी इस चाहत में उनका पूरा साथ दिया, या फिर उन्होंने अपनी बात मनवाई।