केंद्र सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों और पेंशनभोक्ताओं के महॅंगाई भत्ते की वृद्धि पर जनवरी 2020 से जुलाई 2021 तक 18 महीने के लिए रोक लगा दी है। कल तक प्रवासी मजदूरों, रेहड़ी-ठेले वालों और सीमांत किसानों की भूख और बेकारी पर आँसू बहाने वाले करुण रस के फ़ेसबुकिया क्रांतिकारी सरकार के इस निर्णय से कुपित दुर्वासा बन बैठे हैं।
विडंबना यह है कि इस कोलाहल के सूत्रधारों में विषमता के आदि-विद्रोही और साम्यवाद के प्रवक्ता सर्वाधिक हैं। उन्हें सरकार का यह निर्णय सख्त नागवार लग रहा है, क्योंकि सरकार ने भूखे-दूखे भारतवासियों के लिए स्वास्थ्य और रोटी-रोजगार की चिंता करते हुए उनकी थाली से आधा कौर जो निकाल लिया है।
पिछले दिनों केंद्र सरकार ने सांसदों के वेतन को 30 प्रतिशत कम कर दिया था। वहीं सांसदों की क्षेत्र विकास निधि को भी दो वर्ष के लिए निलंबित कर दिया है। इसी प्रकार केरल, तेलंगाना, महाराष्ट्र, उप्र और राजस्थान आदि अनेक राज्य सरकारों ने भी कर्मचारियों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के वेतन-भत्तों आदि में कटौती की है।
यह कोरोना संकट से निपटने के लिए साधन-संसाधन जुटाने की उनकी रणनीति का हिस्सा है। निश्चय ही, यह स्वागत योग्य पहल है, क्योंकि इस आपदा की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय संसाधनों का पुनर्नियोजन, पुनर्निवेशन और पुनर्वितरण अपरिहार्य है। इस राष्ट्र-यज्ञ में राजनेता, उद्योगपति, कर्मचारी, व्यापारी और किसान-मजदूर; सबको योगदान देने की आवश्यकता है। राष्ट्र-निर्माण व्यक्ति-विशेष का उत्तरदायित्व नहीं, अपितु सम्पूर्ण नागरिक समाज का सामूहिक और सहकारी कर्तव्य-बोध है।
कोरोना संकट की व्यापकता को देखते हुए देश में ‘वित्तीय आपातकाल’ लगाया जाना जरूरी है। इसी दिशा में आगे काम करते हुए सरकार को स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन और नया संसद भवन- सेंट्रल विस्टा बनाने जैसी महत्वाकांक्षी और खर्चीली परियोजनाओं को भी स्थगित कर देना चाहिए। उसे ऐसी तमाम बचतों से प्राप्त धन को ग्राम स्वराज की परियोजना को साकार करने में लगाना चाहिए।
गाँधी जी कहा करते थे कि ‘भारत गॉंवों में बसता है। भारत को जानना है तो गाँव को जानना पड़ेगा।’ स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी उनकी यह बात प्रासंगिक है। इसलिए भारत का इलाज करने के लिए लाइलाज होते गॉंवों के इलाज को प्राथमिकता देनी होगी।
अम्बानी-अडानी और टाटा-बिड़ला जैसे बड़े-बड़े उद्योगपतियों और सेवा-क्षेत्र के व्यापक विस्तार के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी प्रकृति में मूलत: कृषि अर्थव्यवस्था है। खेती-बाड़ी और उससे संबंधित कामों पर देश की दो तिहाई जनसंख्या की निर्भरता है। इसके बावजूद भारत में किसान, किसानी और गाँव सर्वाधिक उपेक्षित हैं।
किसानी के क्रमशः लाभरहित उद्यम बनते चले जाने की मजबूरी में मजदूरी और छोटे-मोटे काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने वाले ग्रामीणों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यह पलायन विध्वंसक है। इसे रोकने के लिए व्यापक नीतिगत निर्णय लेने होंगे और गाँव को रहने-खाने लायक बनाने की दूरगामी रणनीति बनानी होगी।
गाँधी जी द्वारा प्रतिपादित ग्राम स्वराज के आधारभूत तत्व- समानता, स्वावलंबन, स्वदेशी, विकेंद्रीकरण और सर्वधर्मसमभाव आदि हैं। समकालीन समय में ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने से ज्यादा जरूरी काम गॉंवों को आत्मनिर्भर बनाना है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती और विकास ही भारत का भविष्य है।
लॉकडाउन की क्रमिक समाप्ति के बाद इस दिशा में ठोस कदम उठाकर ही ‘अंत्योदय’ के साथ-साथ समावेशी और सतत विकास सुनिश्चित किया जा सकता है। ग्राम स्वराज की स्थापना से ही मानवता का कोढ़ बन चुकी गैर-बराबरी कम की जा सकती है।
इसी प्रकार रोटी-रोजी की तलाश में बेबस ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन रोका जा सकता है और उन्हें शहरी झुग्गी बस्तियों की अमानवीय जीवन-स्थितियों में जीने की मजबूरी से बचाया जा सकता है। इससे शहरी जीवन की स्लम, प्रदूषण, अपराध, ट्रैफिक जाम जैसी तमाम व्याधियों का उपचार भी संभव है।
भारत जैसे देश में गाँव की आत्मनिर्भरता ही मानवीय गरिमा की गारंटी है। भारत में एक ओर पहाड़ से ऊँचे सम्पन्नता के टीले हैं। वहीं दूसरी ओर अभाव के अतल गड्ढे हैं। भारतीय समाज व्यवस्था की इस उबड़-खाबड़ और ऊसर होती भूमि पर पाटा चलाकर समतल और उर्वर बनाने की आवश्यकता है।
संयोगवश, कोरोना जैसी आपदा ने वह अवसर उपलब्ध कराया है कि हम न सिर्फ़ इस असाध्य बीमारी को मिटाने के लिए प्रयत्नशील हों, बल्कि नई समाज-व्यवस्था के लिए भी कृत-संकल्प हों।
आर्थिक क्षेत्र में भारत को एक नया मॉडल अपनाने की आवश्यकता है। यह मॉडल अपनी प्रकृति में देशज और स्थानिक होगा। यह सत्य है कि कोरोना संकट ने भारत के सामने अपनी अर्थव्यवस्था के व्यापक विकास और अंतरराष्ट्रीय विस्तार का ऐतिहासिक अवसर उपलब्ध कराया है।
इस संकट के फलस्वरूप विश्व बिरादरी में चीन की साख में जबरदस्त गिरावट आयी है। अमेरिका से लेकर यूरोपीय और अफ़्रीकी देशों में भारत की विश्वसनीयता बढ़ी है। यह बढ़ी हुई विश्वसनीयता कोरोना संकट से निपटने में भारत द्वारा प्रदर्शित अभूतपूर्व क्षमता और अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वय के लिए की गई उसकी पहल की परिणति है।
भारत ने अमेरिका और यूरोप को हिला देने वाले कोरोना के अश्वमेधी अश्व को थाम लिया है। साथ ही, उसने सर्वशक्तिमान अमेरिका से लेकर अपने उत्पाती पड़ोसी पाकिस्तान जैसे अनेक देशों को हाइड्रोक्लोरोक्वीन जैसी दवाइयाँ देकर अपनी क्षमता, समझदारी और संवेदनशीलता से विश्व बिरादरी को प्रभावित किया है। किन्तु इस समय भारत को भौतिक विकास की जगह वैकल्पिक सभ्यता के विकास को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
भारतीय संस्कृति भौतिकतावादी कभी नहीं रही। वह वास्तव में मानव मूल्यवादी आध्यात्मिक संस्कृति है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहते थे कि ‘भूख लगना प्रकृति है, छीनकर खाना विकृति है, और मिल-बाँटकर खाना संस्कृति है।’ परंतु भौतिक संसाधनों की अनवरत छीना-झपटी ही समकालीन विश्व-मानव का दैनंदिन जीवन-व्यवहार है। इस विकृति और व्याधि के विकल्प की तलाश जरूरी है।
भारत को फिर से अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए विकास का एक वैकल्पिक मॉडल विश्व समाज के सामने रखना चाहिए। यह पहल विश्व नेता बनने की उसकी परियोजना को संभव करेगी। इस वैकल्पिक मॉडल में ग्लोबलाइजेशन के बरक्स लोकलाइजेशन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।
गाँधी जी की ग्राम स्वराज की अवधारणा और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव-दर्शन को कार्यान्वित करने का यह सर्वाधिक उपयुक्त समय है। 24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस के अवसर पर किए गए अपने एक महत्वपूर्ण संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्राम स्वराज की स्थापना पर बल दिया है। उन्होंने आगामी समय में ‘मेक इन इंडिया’ को भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार बनाने का संकल्प भी व्यक्त किया है।
इस ध्येय वाक्य को और सटीक और सार्थक बनाने के लिए ‘मेक इन रूरल इंडिया’ करने की आवश्यकता है। गाँव को आत्मनिर्भर बनाकर ही भारत को आत्मनिर्भर बनाने की शुरुआत हो सकती है। आज भारत के गाँव शहरी जीवनशैली और जीवन मूल्यों के कूड़ाघर बन गए हैं।
गाँव से आत्मनिर्भरता, सामुदायिकता और मानवीय मूल्यों का क्रमशः लोप हो गया है। ग्रामीण जीवन के इन आधारमूल्यों का अपहरण आधुनिक औद्योगिक सभ्यता ने किया है। आज गाँव ईर्ष्या-द्वेष और केस-क्लेश के अखाड़े हैं। वे विकृति, विद्रूप और व्यक्तिवाद के नवोदित महाद्वीप हैं। नशाखोरी और एकाकीपन वहाँ की नई जीवन-चर्या है। अब ग्राम्य-संस्कृति की पहचान रहे प्राचीनतम मूल्यों की घरवापसी का स्वर्णिम अवसर है।
भारत को विकास को परिभाषित करते समय अमेरिका और चीन जैसे देशों का मुँह ताकना बंद करना चाहिए। भारत में ग्राम आधारित कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करके और छोटे एवं मझोले उद्योग-धंधों को मजबूती प्रदान करके ही भुखमरी, बेरोजगारी और अपराध जैसी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
इन उद्योगों की मजबूती ही चतुर्दिक खुशहाली का प्रवेशद्वार है। इसी से अंत्योदय भी संभव होगा। यह एक स्थापित सत्य है कि बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और कॉर्पोरेट आम भारतवासी के आर्थिक विकास और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकती हैं।
व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टि की एकात्मता का बोध ही आध्यात्मिक उन्नति का सनातन मार्ग है। हाशिए पर ठिठके खड़े अंतिम जन की चिंता और कल्याण-साधना करके ही आधुनिक राज्य अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकता है। संतुलित और सतत विकास, सीमित उत्पादन और संयमित उपभोग ही भविष्य का रास्ता है।
विश्व की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था होने से कहीं श्रेयस्कर विश्व की सबसे सुखी सभ्यता होना है। न सिर्फ संसार की सबसे प्राचीन सभ्यता वैदिक संस्कृति ने बल्कि आधुनिक समय में बहुत छोटे से देश भूटान ने भी इस सत्य को प्रमाणित किया है कि भौतिक प्राप्तियों और मानवीय सुख की पारस्परिक निर्भरता सीमित ही है।
इस सत्य को जितनी जल्दी आत्मसात कर लिया जाएगा, उतना ही मनुष्यता के लिए शुभकर होगा। यह कदम प्राकृतिक संरक्षण की दिशा में भी एक निर्णायक और आवश्यक पहल होगी। यह सिर के बल खड़ी सभ्यता को पलटकर सीधा खड़ा करने की प्रभात बेला है।