इस तरह के मुद्दों पर विमर्श की नींव रखने का अपना नैतिक ख़तरा है लेकिन अतीत के हमेशा से दो पक्ष रहे हैं। एक जो बड़े पैमाने पर स्वीकार किए जाते हैं और दूसरे जो हाशिये पर पड़े रह जाते हैं। नाथूराम गोडसे के इर्द गिर्द होने वाले राजनीतिक विमर्शों की सूरत भी कुछ ऐसी ही है। एक पक्ष आज तक सुना जाता है (वही अटल सत्य माना जाता है) और दूसरा चुनिंदा जनमानस तक सीमित है। इस विमर्श के दूसरे पक्ष को समझने के लिए ऐसे तो तमाम माध्यम हैं लेकिन सबसे सशक्त माध्यम हैं, गोपाल गोडसे।
गाँधी की हत्या के मामले में मुख्य अभियुक्त और जिन्हें इस मामले में आजीवन कारावास सुनाया गया था नाथूराम गोडसे के अनुज, गोपाल गोडसे। इन्होंने अपने तमाम साक्षात्कारों में कई भ्रम नष्ट करने का यथोचित प्रयास किया है और अधिकांश में सफल भी हुए। इन्होंने तत्कालीन सत्ताधीशों/नेताओं के लिए एक शब्द का इस्तेमाल किया था ‘सेक्युलर सुल्तान’, सरकार के ऐसे नुमाइंदे जिनके लिए ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ राष्ट्र की संकल्पना से बढ़ कर थी। बल्कि देश की आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए इस बात की कल्पना करना तक मुश्किल था, फिर भी बहुत कुछ ऐसा हुआ।
आज़ादी के आस-पास के दौर तक अस्पृश्यता और जन्म पर आधारित जातिवाद एक बड़ी सामाजिक कुरीति थी। इस कुरीति को समाप्त करने के लिए ‘जातिवाद विरोधी भोज’ हुआ करते थे और ऐसे कई अवसर आए, जब भोज नाथूराम गोडसे ने आयोजित करवाए और इनका हिस्सा भी बने। नाथूराम ने समाजवाद और मार्क्सवाद पढ़ा, स्वामी विवेकानंद, गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, चाणक्य और रावण को भी पढ़ा था। यहाँ तक कि समाजवाद से लेकर मार्क्सवाद और गाँधी-सावरकर को सबसे ज़्यादा पढ़ा और उसके बाद सामाजिक-राजनीतिक अवधारणा बनाई।
नाथूराम ने न्यायालय के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए तमाम बातें कही थीं, बल्कि पूरा बयान खुद में इतिहास का अहम दस्तावेज़ है। बयान के मुताबिक़ सबसे पहले रामायण ही अहिंसा के सिद्धांत का समर्थन नहीं करता है। रामायण और महाभारत का उपसंहार ही यही है कि आक्रमण का सशस्त्र प्रतिरोध गलत नहीं हो सकता है। नाथूराम को एक और बात पर विकट आपत्ति थी कि गाँधी ने भारत के स्वर्णिम इतिहास से जुड़े कुछ चेहरों को अहमियत नहीं दी। इसके उलट उन चेहरों के लिए प्रतिकार का रवैया रखा। इसमें 3 नाम सबसे अहम था – छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और गुरु गोबिंद सिंह।
इतना ही नहीं 52 छंदों का अमूल्य संग्रह ‘शिवबवनी’ जिसमें शिवाजी की प्रशंसा की गई है, गाँधी जी ने इस पर पाबंदी लगाने में भी अहम भूमिका निभाई। यही दौर था, जब हिन्दी और उर्दू के मूल स्वरूप के साथ खिलवाड़ भी शुरू हुआ, ‘हिन्दुस्तानी’ भाषा का उदय हुआ। जिसका न तो कोई व्याकरण था और न ही साहित्य, यह भाषा बस सामाजिक-राजनीतिक हितों के लिए रची गई थी। एक पड़ाव पर इस भाषा की आड़ में पाखण्ड का दायरा इतना बढ़ा कि राम बादशाह हो गए और सीता बेगम हो गई। नाथूराम ने इस तरह के तमाम छद्म और अव्यावहारिक प्रयोगों पर तार्किक शैली में आपत्ति जताई थी।
हालाँकि लोकतंत्र में भिन्न विचारधाराओं की मौजूदगी सबसे शाश्वत प्रक्रिया है लेकिन इस पर गोपाल गोडसे का एक प्रश्न बहुत सटीक बैठता है। गाँधी की विचारधारा और शैली इतनी ही प्रभावी थी तो भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस जैसे सेनानियों ने उनका अनुसरण क्यों नहीं किया? इन सारी बातों से इतर सबसे अहम यह था कि नाथूराम ने जो किया, न्यायालय में पूरी जिम्मेदारी के साथ स्वीकार किया और सिलसिलेवार तरीके से कारण (लगभग 150) भी गिनाए। हत्या करने और हत्या का कारण गिनाने से अपराध वैकल्पिक या अपराधी निर्दोष नहीं हो जाता है फिर भी अपराधी को अपना पक्ष रखने का अंतिम अवसर दिया जाता है।
वह पक्ष निसंदेह सुना जाना चाहिए, इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अगर नाथूराम गोडसे ने अपना पक्ष नहीं रखा होता तो गाँधी के हिस्से के कार्य सामने नहीं आते। देश की संरचना और संकल्पना से जुड़े अनेक पहलू हैं, जिन पर गाँधी की नीति को लेकर प्रश्न खड़े करना स्वाभाविक हो जाता है लेकिन फिर भी हम सब कुछ नज़रअंदाज़ करते हैं। हमारे लिए एक कद असल तथ्यों और तर्कों से ऊपर उठ जाता है और अंततः हम अर्ध सत्य के चश्मे से दुनिया देखते हैं।
नाथूराम ने उस चश्मे पर जमी मिथ्या की परत को हल्का करने का प्रयास किया था, उस प्रयास का तरीका गलत था और हमेशा रहेगा लेकिन उससे तत्कालीन राजनीतिक यथार्थ नहीं बदल सकता है। भले यह बात आज स्वीकार की जाए या आज से एक-दो शताब्दियाँ गुज़र जाने के बाद पर देश की आवाम ने गाँधी की नीतियों की बड़ी कीमत चुकाई है। इस बात को जनमानस के समक्ष लेकर आने और सिद्ध करने के लिए नाथूराम को इतिहास के पन्नों से मिटा पाना असंभव है।