नाथूराम गोडसे का गाँधी की हत्या करना किसी भी दृष्टि से सही नहीं ठहराया जा सकता। परंतु यह भी सत्य है कि भले ही कोई कितना भी बड़ा अपराधी हो उसे अपनी बात रखने का अधिकार होता है और समाज का यह दायित्व है कि उसकी बात सुनी जाए।
दुर्भाग्य से गाँधी जी की हत्या से जुड़े हर पहलू पर विमर्श होता है किंतु गोडसे के पक्ष पर बात नहीं होती। जैसा कि शंकर शरण कहते हैं: “नाथूराम गोडसे के नाम और उनके एक काम के अतिरिक्त लोग उनके बारे में कुछ नहीं जानते।”
गाँधी जी की हत्या करने के आरोप में गोडसे पर मुकदमा चला था। उस मुकदमे की कार्यवाही में गोडसे ने अपनी बात पाँच घंटे लंबे वक्तव्य के रूप में रखी थी। यह वक्तव्य 90 पृष्ठों का था जो 1977 के बाद प्रकाशित हुआ। महत्वपूर्ण यह नहीं कि गोडसे के वक्तव्य में गाँधी की आलोचना थी, सोचने वाली बात यह है कि गोडसे की उस आलोचना का आजतक किसी ने उत्तर नहीं दिया।
नाथूराम गोडसे द्वारा गाँधी जी की आलोचना की कभी समीक्षा नहीं की गई, न ही एक व्यक्ति के रूप में उनका मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया। एक उदाहरण से समझते हैं। हम गाँधी जी से पहले हुए महापुरुषों के हत्यारों की खोज करें तो पाएँगे कि अब्राहम लिंकन की हत्या करने वाले जॉन विल्क्स बूथ का नाम गूगल पर ढूंढने पर हमें करीब 56 लाख से अधिक परिणाम मिलते हैं। लेकिन जब हम गोडसे का नाम सर्च करते हैं तो मात्र 4 लाख से कुछ अधिक ही परिणाम प्राप्त होते हैं।
विकिपीडिया पर खोजने पर जॉन विल्क्स बूथ पर एक लंबा सा प्रामाणिक कहलाने लायक लेख मिलता है जिसमें उन्हें ‘actor who assassinated Abraham Lincoln’ कहा गया है। लेकिन विकिपीडिया पर ही गोडसे के ऊपर एक छोटा और एकपक्षीय दृष्टिकोण वाला लेख है जिसमें पहली लाइन में ही गोडसे को ‘right wing advocate of Hindu nationalism’ घोषित कर दिया गया है। बूथ वाला लेख देखेंगे तो उसमें एक दो नहीं बल्कि 192 फुटनोट और दर्जनों पुस्तकों का संदर्भ दिया गया है। जबकि नाथूराम गोडसे पर मात्र 29 नोट्स और कुल जमा सात पुस्तकों का संदर्भ दिया गया है।
यह एक छोटा सा उदाहरण है यह बताने के लिए कि किसी हत्यारे का भी पक्ष होता है और उसके जीवन तथा विचारों की भी विवेचना की जानी चाहिए भले ही वह विचार अनुकरणीय न हो। जब तक किसी के विचारों पर शोध नहीं होगा उसे गलत समझने या न समझने की भूल यह समाज करता रहेगा। गोडसे को उसकी करनी की सज़ा मिली किंतु दुर्भाग्य से वामपंथी बुद्धिजीवियों ने गोडसे के पक्ष और उसके चिंतन पर न शोध किया न करने दिया। हम ध्यान से सोचें तो आज भी कोई ठीक-ठीक नहीं बता पाता कि गोडसे ने गाँधी जी को क्यों मारा था हालाँकि अपने उत्तर को उचित ठहराते हुए लोग एकदम से राइट या लेफ्ट ज़रूर मुड़ जाते हैं।
न्यायालय में नाथूराम गोडसे द्वारा दिए गए वक्तव्य की वृहद् समीक्षा भारत के बाहर केवल डॉ कोएनराड एल्स्ट ने अपनी पुस्तक “Why I Killed the Mahatma” में की है। डॉ एल्स्ट लिखते हैं कि गोडसे हृदय से सेक्युलर विचारधारा के व्यक्ति थे। गोडसे ने अपने वक्तव्य में यह स्वीकार किया है कि उन्हें गाँधी जी के सभी मतों का समान रूप से आदर करने और सभी पंथों की पवित्र पुस्तकों का आदर करने से कोई समस्या नहीं थी बल्कि वे (गोडसे) तो इसे अच्छा मानते थे। गाँधी की हत्या के कारण को भी गोडसे शुद्ध रूप से ‘राजनैतिक’ मानते हैं।
गोडसे यह भी मानते हैं कि ब्रिटिश के आने से पहले यह अवधारणा स्थापित थी कि हिन्दू और मुस्लिम तमाम अंतर्विरोधों के होते हुए भी एक साथ रह सकते हैं। अंग्रेज़ों ने भारत आकर हिन्दू और मुस्लिमों के बीच की खाई को बढ़ाया और अपनी शक्ति में वृद्धि करने के लिए इसका इस्तेमाल किया। गोडसे के इस विचार से डॉ एल्स्ट यह निष्कर्ष निकालते हैं कि गोडसे ने भारत के विभाजन का ज़िम्मेदार अंग्रेज़ों को माना था न कि मज़हबी इस्लामी विचारधारा को।
गोडसे पूरी तरह से सेक्युलर और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे। उनका मानना था कि सभी भारतीयों को समान अधिकार मिलने चाहिए। गोडसे के चिंतन में गलती तब हुई जब उन्होंने बँटवारे का ज़िम्मेदार पूरी तरह से गाँधी जी को मान लिया। गोडसे ने यह मान लिया था कि गाँधी चाहते तो बँटवारा न होता। यह सोचकर उन्होंने गाँधी जी की हत्या कर दी थी। पाकिस्तान के निर्माण से गोडसे के मन में यह बात बैठ गई कि हिन्दुओं के साथ पक्षपात हुआ है।
इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि गोडसे हृदय से गाँधीवादी थे। डॉ एल्स्ट के अनुसार कुछ मुद्दों पर संघ, सावरकर और हिन्दू महासभा की विचारधारा गाँधी से मिलती जुलती थी। नाथूराम गोडसे ने कॉन्ग्रेस सदस्य न होते हुए भी अपने जीवन में छुआछूत को कोई स्थान नहीं दिया था। जवानी के दिनों में उन्होंने महार जाति के एक बच्चे की जान बचाई थी जिसके कारण उन्हें घरवालों के गुस्से का शिकार होना पड़ा था।
गोडसे ने छुआछूत की मान्यताओं को दरकिनार करते हुए दलितों के साथ बैठकर खाना भी खाया था। यही नहीं वे गाँधी के अहिंसा के विचार में भी विश्वास रखते थे। सन 1938 में हिन्दुओं के प्रति भेदभाव के विरुद्ध हैदराबाद के मुस्लिम बहुल क्षेत्र में नाथूराम गोडसे ने हिन्दू महासभा के एक दल का नेतृत्व किया था। यह प्रदर्शन पूरी तरह अहिंसात्मक था। इस प्रदर्शन के कारण गोडसे को साल भर के लिए जेल भेज दिया गया था।
लिबरल बुद्धिजीवी आशीष नंदी ने अपने अध्ययन में गोडसे और गाँधी के विचारों में कई समानताएँ पाईं। नंदी के अनुसार दोनों पक्के राष्ट्रवादी थे। दोनों यही मानते थे कि मूल समस्या भारत के हिन्दुओं के साथ है। इसीलिए गोडसे ने बँटवारे का ज़िम्मेदार एक ‘हिन्दू’ अर्थात गाँधी जी को माना था। यद्यपि गोडसे ने जिन्नाह को मारने का विचार किया था लेकिन उन्होंने गाँधी की हत्या की क्योंकि वे मानते थे कि पाकिस्तान के निर्माण को गाँधी रोक सकते थे।
गाँधी जी की हत्या गोडसे ने किसी संगठन या व्यक्ति से प्रेरित होकर नहीं की थी। गोडसे ने अपने वक्तव्य में सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भी आलोचना की थी। इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि गाँधी जी की हत्या में किसी संगठन का प्रत्यक्ष हाथ था। संघ, नाथूराम गोडसे और सावरकर की आलोचना कई प्रकार से की जा सकती थी किंतु स्वतंत्र भारत में वामपंथी इतिहासकारों ने स्वस्थ आलोचना को स्थान ही नहीं दिया।
नाथूराम गोडसे को लेकर विभिन्न प्रकार की अफ़वाहें और ओछी बातें की गईं। यहाँ तक कहा गया कि सावरकर और गोडसे के बीच होमोसेक्सुअल संबंध थे। इसमें कोई सच्चाई नहीं लेकिन यह अफवाह इतनी अधिक फैलाई गई कि इसे अकादमिक विमर्श का भाग मान लिया गया। किसी राजनैतिक हत्यारे के बारे में ऐसी बेहूदा बातें शायद ही कभी की गईं। इसीलिए आज आवश्यकता है एक ऐसे नैरेटिव की जिसमें किसी के मत के प्रत्येक पक्ष का तात्विक विश्लेषण किया जा सके।