“भाजपा कभी मोदी को पीएम कैंडिडेट नहीं बनाएगी।”
“… बना दिया तो गठबंधन नहीं मानेगा।”
“एनडीए मान गया तो जनता नहीं चुनेगी।”
“… चुन लिया तो 5 साल सरकार नहीं चलेगी।”
5 साल पूरे कर नरेंद्र मोदी जनता के बीच दोबारा जनादेश लेने के लिए खड़े हैं और विपक्ष यही नहीं तय कर पा रहा कि अफसाना क्या बुनना है। हर वार्ड की हार ‘मोदी के लिए झटका’ और हर पंचायत चुनाव ‘मोदी सरकार पर जनमत संग्रह’ करते-करते ‘भेड़िया आया’ वाली स्थिति बन गई है।
इसी शृंखला की अगली कड़ी है ‘#मैंभीचौकीदार कैम्पेन का अर्थ है कि मोदी राहुल गाँधी से डर गए हैं।’ छापने वाला है एनडीटीवी (जिसे किसी परिचय की आवश्यकता नहीं) और लिखने वाले हैं श्री मिहिर स्वरूप शर्मा (जिनका अघोषित आग्रह उनके द्वारा लिखे गए लेखों से साफ पता चलता है)।
‘सुधारों को रोक लेना राहुल गाँधी की उपलब्धि’
मिहिर लिखते हैं कि मोदी द्वारा ‘चौकीदार चोर है’ की काट ‘मैं भी चौकीदार’ से करना प्रधानमंत्री को बैकफुट पर धकेल दिए जाने का साक्ष्य है। इसे वह 2015 के ‘सूट-बूट की सरकार’ से जोड़ते हैं और (प्रसन्नतापूर्वक) बताते हैं कि उसके बाद मोदी की आर्थिक सुधार करने की हिम्मत जवाब दे गई, जो कि राहुल गाँधी की ’उपलब्धि’ है।
जो देश पुरानी प्रणालियों के बोझ तले दशकों से कराह रहा हो, उस देश में देश को बंधक बनाकर सुधारों के कदम रोक लिए जाने के श्रेय से ज़्यादा शोचनीय उपलब्धि किसी नेता के लिए हो नहीं सकती।
इसके अलावा मोदी के राहुल गाँधी से डरकर सुधार रोक देने से ज़्यादा गलतबयानी हो ही नहीं सकती। नोटबंदी, जीएसटी, इन्सॉल्वेंसी व बैंकरप्सी कोड, बीमे के क्षेत्र में एफडीआई में बढ़त को मंजूरी, यह सब उसके बाद के ही कदम हैं। क्या यह आक्रामकता- खासकर नोटबंदी और जीएसटी को लेकर- किसी डरे हुए इंसान के कदमों की छाप दिखते हैं?
‘सूट-बूट की सरकार’ का मोदी पर कुल असर इतना ही पड़ा कि मोदी सतर्क हो गए और अपनी छवि को लेकर उनमें वह सजगता आ गई जो गुजरात से आते समय नहीं थी। लेकिन गलतियों से सीखकर, और बदलते समय और हालातों को देखकर, अपनी नीति को समायोजित करना बुद्धिमत्ता है, कायरता नहीं।
उल्टा ही पड़ा है अब तक ‘सूट-बूट की सरकार’
मिहिर शर्मा को यह समझाना चाहिए कि अगर राहुल गाँधी का ‘सूट-बूट की सरकार’ लोगों को मोदी के खिलाफ समझा पाने में इतना ही सफल रहा तो ऐसा क्यों है कि 2015 में यह जुमला उछालने के बाद से कॉन्ग्रेस चुनाव-दर-चुनाव सिमटती क्यों जा रही है। आखिर ऐसी क्या बात है कि उसे छोटे दल भी गठबंधन से नकार रहे हैं?
बिहार में कॉन्ग्रेस राजद और जदयू के बाद तीसरे नंबर का दल बन कर सत्ता से चिपक भर पाई। दिल्ली में सूपड़ा साफ हो गया। असम, बंगाल, और तमिलनाडु भी हारी। केरला को चलिए माना जा सकता है कि वहाँ तो हर 5 साल में सरकार बदलती ही है, पर वहाँ भी भाजपा ने उनके वोटों में सेंध लगाते हुए अपना जनाधार दुगने से ज्यादा कर लिया।
पंजाब में आम आदमी पार्टी की वोटकटवा भूमिका और दस साल की सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर में किसी तरह एक राज्य जीत पाई कॉन्ग्रेस को यूपी, उत्तराखण्ड, मणिपुर, गोवा, गुजरात, और हिमाचल में सरकार बनाने में असफलता ही हाथ लगी। हालिया 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी कॉन्ग्रेस केवल छत्तीसगढ़ में मोदी को स्पष्ट तौर पर हरा कर सरकार बना पाई।
मणिशंकर अय्यर वाला काम किया है कॉन्ग्रेस अध्यक्ष ने
याद करिए मणिशंकर अय्यर ने कैसे 2014 में कहा था, “नतीजों के बाद मोदी हमारे कॉन्ग्रेस कार्यालय के बाहर ही चाय बेचेंगे”, और इस बयान ने छोटे-मोटे काम कर अपना पेट पालने वाले तबके को मोदी से ऐसा जोड़ा कि बनारस में एक पानवाले और वड़ोदरा में चायवाले को मोदी ने अपना प्रस्तावक बना दिया। इस बार भी आश्चर्य नहीं अगर राहुल गाँधी ने मोदी को चौकीदारों का एक वोटबैंक बैठे-बिठाए पकड़ा दिया हो!
मिहिर ज़ाहिर तौर पर 23 मई की रात तक नकार की मुद्रा में रहेंगे पर जैसे-जैसे मतदान के दिन पास आ रहे हैं, नतीजे दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ होते जा रहे हैं। राहुल गाँधी यदि देश में एक वैकल्पिक राजनीति करना चाहते हैं (जो बहुत अच्छी बात है) तो बेहतर होगा कि मोदी के सूट, चौकीदारी, डिग्री जैसे हास्यास्पद मुद्दों के दम पर चुनाव जीतने का ख्याल छोड़कर एक स्पष्ट वैकल्पिक एजेण्डा देश के सामने पेश करें।