डॉ. भीमराव आंबेडकर समय से आगे की सोच रखने वाले जननायक थे। उन्होंने तब संविधान में उन चीजों को शामिल किया था, जो आज तक कई देश नहीं कर पाए हैं। पहली कैबिनेट का हिस्सा होने के बावजूद, कॉन्ग्रेस के अधिकांश नेताओं के साथ बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के संबंध अपेक्षाकृत मजबूत आधार पर टिके थे लेकिन इसके विपरीत, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ उनके संबंधों के बारे में बहुत कम जानकारी ही सामने आई है।
जातिगत आरक्षण, हिंदू कोड बिल और विदेश नीति पर उनके विचारों के संबंध में, उनके निष्पादन के बारे में दोनों के काफी विपरीत विचार थे लेकिन डॉ. भीमराव आंबेडकर की समाज सुधारक वाली छवि कॉन्ग्रेस के लिए चिंता का कारण थी शायद यही वजह थी कि पार्टी ने उन्हें संविधान सभा से दूर रखने की योजना बनाई। नेहरू ने डॉ. आंबेडकर को किनारे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, ताकि वह मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स में न आ सकें, इसके लिए दीवारें खड़ी की गईं।
27 सितंबर 1951 को कॉन्ग्रेस नेतृत्व और विशेषकर जवाहर लाल नेहरू द्वारा कैबिनेट से त्यागपत्र देने के लिए डॉ. भीमराव आंबेडकर को विवश किया गया। संसद में आंबेडकर ने त्यागपत्र के साथ जो भाषण दिया, वह कॉन्ग्रेस के एससी/एसटी विरोधी असली चेहरे को उजागर करता है।
डॉ. आंबेडकर ने सितंबर 1951 में कैबिनेट से इस्तीफा देते हुए भाषण में विस्तार से अपनी उन-उन पीड़ा को बयाँ किया, जो-जो उन्होंने नेहरू के हाथों झेली। आंबेडकर राइटिंग, वॉल्यूम- 14 भाग 2, पृष्ठ 1317-1327 में उनका भाषण संकलित किया गया है। अपने त्यागपत्र भाषण में डॉ. आंबेडकर ने कहा:
“जब प्रधानमंत्री नेहरू ने मुझे प्रस्ताव दिया तो मैंने उन्हें स्पष्ट बता दिया था कि अपनी शिक्षा और अनुभव के आधार पर एक वकील होने के साथ मैं किसी भी प्रशासनिक विभाग को चलाने में सक्षम हूँ। प्रधानमंत्री सहमत हो गए और उन्होंने कहा कि वह मुझे अलग से योजना का भी दायित्व देंगे। दुर्भाग्य से योजना विभाग बहुत देरी से मिला, जिस दिन मिला मैं तब तक बाहर आ चुका था। मेरे कार्यकाल के दौरान कई बार एक मंत्री से दूसरे मंत्री को मंत्रालय दिए गए, मुझे लगता है कि उन मंत्रालयों में से भी कोई मुझे दिया जा सकता था लेकिन मुझे हमेशा इस दौड़ से बाहर रखा गया। मुझे यह समझने में भी कठिनाई होती थी कि मंत्रियों के बीच काम का बँटवारा करने के लिए प्रधानमंत्री जिस नीति का पालन करते हैं, उसके पैमाने की क्षमता क्या है? क्या यह विश्वास है? क्या यह मित्रता है? या क्या यह लचरता है? मुझे कभी भी कैबिनेट की प्रमुख समितियाँ जैसे विदेश मामलों की समिति या रक्षा समिति का सदस्य नहीं चुना गया। जब प्रधानमंत्री नेहरू इंग्लैंड गए तो मुझे कैबिनेट ने इसका सदस्य चुना लेकिन जब वह वापस आए तो कैबिनेट समिति के पुनर्गठन में भी उन्होंने मुझे बाहर ही रखा। मेरे विरोध दर्ज करने के बाद मेरा नाम जोड़ा गया।”
एक और चीज जिसने डॉ. आंबेडकर को इस्तीफे के लिए बाध्य किया, वो था हिंदू कोड बिल के साथ सरकार का बर्ताव। यह विधेयक 1947 में सदन में पेश किया गया था लेकिन बिना किसी चर्चा के जमींदोज हो गया। उनका मानना था कि यह इस देश की विधायिका का किया सबसे बड़ा सामाजिक सुधार होता। बाबा साहब ने कहा था कि प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद ये बिल संसद में गिरा दिया गया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, “अगर मुझे यह नहीं लगता कि प्रधानमंत्री के वादे और काम के बीच अंतर होना चाहिए, तो निश्चित ही गलती मेरी नहीं है।”
डॉ. आंबेडकर का नेहरू सरकार के प्रति असंतुष्ट होने का एक और मुख्य कारण था, पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों से जुड़ा भेदभावपूर्ण व्यवहार। डॉ. आंबेडकर अपने भाषण में आगे कहते हैं:
“मुझे इस बात का बहुत दुःख है कि संविधान में इन जातियों की सुरक्षा के लिए कुछ विशेष तय नहीं किया गया। यह तो राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक आयोग की संस्तुति के आधार पर सरकार को करना पड़ा। इसका संविधान पारित करते हुए हमें एक वर्ष हो गया था लेकिन सरकार ने आयोग के गठन तक के विषय में नहीं सोचा। आज अनुसूचित जाति की स्थिति क्या है? जहाँ तक मैंने देखा है, वैसी ही है जैसी पहले थी। वही चला आ रहा उत्पीड़न, वही पुराने अत्याचार, वही पुराना भेदभाव जो पहले दिखाई पड़ता था। सब कुछ वही, बल्कि और बदतर हालात वाली स्थिति। बल्कि यदि तुलना करें तो इनसे ज्यादा सरकार मुसलमानों के प्रति संवेदना दिखा रही है। प्रधानमंत्री का सारा समय और ध्यान मुसलमानों के संरक्षण के लिए समर्पित है। क्या अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और भारतीय ईसाइयों को सुरक्षा की जरूरत नहीं है। नेहरू जी ने इन समुदायों के लिए क्या चिंता दिखाई है? जहाँ तक मुझे मालूम पड़ता है कुछ भी नहीं। जबकि असली बात यह है कि ये वो समुदाय हैं, जिन पर मुसलमानों से भी ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।”
बाबा साहब अपने भाषण में नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण वाली नीतियों की बखिया उखेड़ रहे थे। डॉ. आंबेडकर की चिंता शोषितों, वंचितों और समाज के सबसे नीचे पायदान पर खड़े लोगों के लिए थी लेकिन इसके उलट नेहरू की नीतियाँ मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा दे रही थीं।ऐसे कई मौके आए जब नेहरू ने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के राजनीति सफर पर न केवल अड़चने पैदा कीं बल्कि कई बार उन्हें चुनाव हराने में भी बड़ा रोल निभाया, जिसमें वो कामयाब भी हुए।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 14 सितंबर 1956 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपनी पुस्तक ‘बुद्ध और उनके धम्म’ के प्रकाशन के लिए मदद माँगी। इस पर नेहरू ने डॉ. आंबेडकर के पत्र का जवाब दिया और ‘बुद्ध और उनके धम्म’ पुस्तक की 500 प्रतियाँ खरीदने में असमर्थता व्यक्त की। जब 296 लोगों को शुरुआती संविधान सभा में भेजा गया था तो उसमें आंबेडकर का नाम शामिल नहीं था, उस समय के बॉम्बे के मुख्यमंत्री बीजी खेर ने ये सुनिश्चित किया था कि आंबेडकर 296 सदस्यीय निकाय के लिए नहीं चुने जाएँगे।
ऐसी कई घटनाएँ हैं जो साबित करती हैं कि कॉन्ग्रेस और उसके नेता खासकर नेहरू कभी डॉ. आंबेडकर को मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स में नहीं आने देना चाहते थे। इन तमाम झंझावतों को दूर कर बाबा साहेब ने उस दौर में वो मुकाम हासिल किया, जो किसी दलित नेता के लिए बहुत मुश्किल था। डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य था- ‘सामाजिक असमानता दूर करके शोषित, वंचितों के मानवाधिकार की प्रतिष्ठा करना।’
डॉ. आंबेडकर ने गहन-गंभीर आवाज में सावधान किया था, “26 जनवरी 1950 को हम परस्पर विरोधी जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। हमारे राजनीतिक क्षेत्र में समानता रहेगी किंतु सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में असमानता रहेगी। जल्द से जल्द हमें इस परस्पर विरोध को दूर करना होगा। नहीं तो जो असमानता के शिकार होंगे, वे इस राजनीतिक गणतंत्र के ढाँचे के लिए मुश्किलें पैदा करेंगे।”
इस्लाम और डॉ. आंबेडकर के विचार
इस्लाम पर डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचार क्या थे? काफी चर्चित पुस्तक ‘डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज, वॉल्यूम 8’ के पृष्ठ 64-65 से हम इसे समझ सकते हैं। यहाँ जिस भाषण का जिक्र है, उसमें बाबा साहब कहते हैं- इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में मुस्लिम आक्रांता हिंदुओं के खिलाफ घृणा का राग गाते हुए आए थे। उन्होंने न केवल घृणा ही फैलाई बल्कि वापस जाते हुए हिंदू मंदिर भी जलाए। उनकी नजर में यह एक नेक काम था और उनके लिए तो इसका परिणाम भी नकारात्मक नहीं था। उन्होंने एक सकारात्मक कार्य किया, जिसे उन्होंने इस्लाम के बीज बोने का नाम दिया। इस पौधे का विकास बखूबी हुआ, यह केवल रोपा गया पौधा नहीं था बल्कि यह एक बड़ा विशाल पेड़ बन गया था।
डॉ. आंबेडकर ने मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए मंदिरों पर कई बार खुलकर अपने विचार रखे हैं।