पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद हुई हिंसा को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) की टीम ने बुधवार (30 जून 2021) को अपनी रिपोर्ट कलकत्ता हाईकोर्ट की पाँच सदस्यीय पीठ को सौंप दी। इससे उच्च न्यायालय के निर्देश पर हिंसा की जाँच करने पहुँची आयोग की टीम पर कोलकाता के जाधवपुर इलाके में हमले की खबर आई थी। रिपोर्ट के अनुसार तृणमूल कार्यकर्ताओं (TMC) और उनके समर्थकों ने टीम को न केवल अपना काम करने से रोकने का प्रयत्न किया गया, बल्कि उनपर हमला भी हुआ।
खबरों के अनुसार टीम के सदस्य जब हिंसा प्रभावित एक क्षेत्र में स्थानीय लोगों का बयान ले रहे थे तब हमला किया गया। हमले के बाद टीम के एक सदस्य द्वारा पुलिस से पर्याप्त सहयोग न मिलने की बात भी की गई। उधर पुलिस के अनुसार उसके पास रपट है कि स्थानीय लोगों ने टीम के सदस्यों के साथ कुछ ‘अभद्रता’ करने की कोशिश की पर टीम की ओर से घटना से सम्बंधित कोई रपट पुलिस थाने में नहीं लिखाई गई। पुलिस के अनुसार यदि टीम की ओर से आधिकारिक रपट लिखाई गई होती तो वह अवश्य कार्रवाई करती।
National Human Rights Commission (NHRC) team submits report over the post-poll violence in the state to the 5 judges bench of Calcutta High Court. pic.twitter.com/x1xg4b2DCq
— ANI (@ANI) June 30, 2021
पुलिस का यह बयान आश्चर्यचकित नहीं करता। चुनाव परिणामों के बाद शुरू हुई हिंसा को लेकर पुलिस का रवैया पिछले दो महीनों से ऐसा ही रहा है। यही कारण है कि कोलकाता उच्च न्यायालय में एक-दो नहीं बल्कि कई याचिकाएँ आईं जिनमें लगातार हो रही हिंसा, लूट, हत्या, बलात्कार और अन्य आपराधिक घटनाओं की जाँच और उस पर रोक लगाने के लिए न्यायालय के हस्तक्षेप और आवश्यक कार्रवाई की माँग की गई।
इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को मिला उच्च न्यायालय का निर्देश पहले ही देर से आया था। ऐसे में आयोग द्वारा नियुक्त टीम पर हुए हमले को उच्च न्यायालय के निर्देश के पालन के लिए की जा रही कार्रवाई की राह में रोड़ा ही माना जाएगा।
ऐसा नहीं कि न्यायालय के निर्देश की राह में रोड़ा खड़ा करने का प्रयत्न पहले नहीं हुआ। दरअसल 18 जून को कोलकाता उच्च न्यायालय की पाँच न्यायाधीशों वाली बेंच द्वारा मानवाधिकार आयोग को दिए गए निर्देश पर रोक लगाने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार अपील भी कर चुकी है। इसे पाँच सदस्यीय बेंच ने यह कहकर ठुकरा दिया कि वह अपने ही निर्देश या फैसले को नहीं रोक सकता।
प्रश्न यह है कि जिस न्याय व्यवस्था में आए दिन नामी-गिरामी मुल्ज़िम भी अपना विश्वास प्रकट करते रहते हैं, उसके निर्देश पर बानी किसी जाँच टीम पर राज्य सरकार को विश्वास क्यों नहीं है? राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जो भी कर रहा है या करेगा वह न्यायपालिका के निर्देश के अनुसार ही कर रहा है। ऐसे में एक संवैधानिक संस्था को अपनी जिम्मेदारियों का पालन करने से रोकने की बात किसी भी दृष्टिकोण से तर्कपूर्ण या स्वाभाविक नहीं लगती।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि कानून-व्यवस्था को लेकर राज्य सरकार द्वारा अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने के बाद ही राज्य में मानवाधिकार के उल्लंघन सम्बंधित याचिकाएँ उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय तक पहुँची हैं। यदि राज्य प्रशासन संविधान के अनुसार आचरण करता तो लोग न्यायालय क्यों जाते? ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि पुलिस कार्रवाई में राजनीतिक दखलंदाज़ी के विरुद्ध क्या केवल इसलिए कुछ न कहा जाए क्योंकि सत्ताधारी दल ‘सेक्युलर’ है? या पुलिस द्वारा अपना काम न करने को क्या यह कहकर न्यायसंगत माना जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास पुराना है? कई लोग तो पुलिस या राज्य सरकार की नाकामी को यह तर्क देकर ढकने का प्रयत्न करते है कि हिंसा दोनों राजनीतिक दलों की ओर से हो रही है या फिर हो रही हिंसा को सांप्रदायिक करार नहीं दिया जा सकता।
यह विमर्श का विषय है कि ऐसे तर्कों के लिए एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में कितना स्थान होना चाहिए। राज्य सरकार और सत्ताधारी दल की राजनीति तो अपनी जगह होगी, परन्तु खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ और चुनाव को लोकतंत्र का पर्व बताने वाली परंपरागत मीडिया भी पश्चिम बंगाल में हो रही हिंसा पर यह कह कर पर्दा डालने का प्रयत्न करती है कि हिंसा होने के आरोप लगाए जा रहे हैं। इस तर्क को आगे रख कर मीडिया हो रही हिंसा को कथित हिंसा बताता है। मीडिया के पास ऐसा कहने के लिए क्या तर्क है यह तो वही जाने पर ऐसा करके वह पहले से ही नीचे जा रही अपनी विश्वसनीयता को और खतरे में डाल रहा है। ऐसे में लोकतंत्र के इस स्तंभों के शर्मनाक आचरण के बीच राज्य के पीड़ित आम नागरिक के पास न्यायालय की शरण लेने के अलावा कौन सा रास्ता बचता है, यह प्रश्न सत्ताधारी दल के नेताओं और राज्य सरकार के मंत्रियों को खुद से पूछना चाहिए।
मानवाधिकार आयोग की टीम पर हुआ हमला राजनीतिक तौर पर क्या सन्देश देता है? यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर भले ही अभी न मिले पर प्रश्न महत्वपूर्ण है। मेरे विचार से स्थानीय स्तर पर ऐसे हमलों से एक संदेश यह भी निकलता है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक समय आएगा जब सत्ताधारी दल और उसके नेतृत्व के लिए अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों पर लगाम लगाना संभव न होगा। जब भी यह स्थिति आ जाएगी, इस बात का दल और उसके नेतृत्व की साख पर बुरा असर पड़ेगा। यदि कोई समाजशास्त्री आज भी यह कहे कि सत्ताधारी दल और उसके नेतृत्व का अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों पर नियंत्रण नहीं है तो मुझे इस बात पर आश्चर्य नहीं होगा।
हो रही इस हिंसा का एक पहलू और भी है। हिंसा, लूट, आगजनी और बलात्कार से संबंधित मानवाधिकार हनन की घटनाएँ तो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं पर कई जगहों पर स्थानीय स्तर पर हो रही कुछ आपराधिक घटनाएँ प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई नहीं देती और वे राजनीतिक विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाती। पश्चिम बंगाल में परोक्ष रूप से सिंडिकेट की बात कई वर्षों से होती रही है। इस चुनाव के बाद राजनीति में सिंडिकेट ने शायद एक नया रूप ले लिया है जिसके बारे में विमर्श या शोर शायद बाद में सुनाई दे।
इन सब घटनाओं को देखते हुए प्रश्न यह उठता है कि सत्ताधारी दल और उसका नेतृत्व इस स्थिति से कब तक आँखें मूँदे रह सकता है? राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो उच्चतम न्यायालय में पश्चिम बंगाल से आने वाले दो न्यायाधीशों ने जिस तरह खुद को सुनवाई से अलग किया, वह विचारणीय है। यह ऐसी घटना है, जिस पर सार्वजनिक मंचों पर लगातार चर्चा हो रही है और फिलहाल इस चर्चा का रुकना इसलिए संभव नहीं जान पड़ता क्योंकि इन न्यायाधीशों ने खुद को सुनवाई से अलग रखने का कोई कारण सार्वजनिक नहीं किया है।
यह ममता बनर्जी के लिए आदर्श स्थिति नहीं है। खासकर, इसलिए भी क्योंकि वे खुद को 2024 में राष्ट्रीय राजनीतिक मंच के लिए तैयार कर रही हैं। ऐसे में यह कहने से कोई गुरेज नहीं कर सकता कि इन घटनाओं का उनके राजनीतिक भविष्य पर बुरा असर पड़ेगा। हिंसा न रोक पाने के पीछे उनकी चाहे जो मज़बूरियाँ हों, पर इसके चलते उनकी ‘छवि’ को अपूरणीय क्षति पहुँचा रही है।
फिलहाल तो देखना यह है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की इस टीम ने कोलकाता उच्च न्यायालय को जो रिपोर्ट सौंपी है उसमें क्या बताया गया है। यह देखना भी दिलचस्प रहेगा कि उस रिपोर्ट से होने वाले संभावित राजनीतिक हानि का तृणमूल कॉन्ग्रेस और उसके नेतृत्व पर क्या असर पड़ता है। पुलिस प्रशासन और कानून-व्यवस्था की बागडोर सँभालने वाले इसे चाहे जैसे देखते हों पर राजनीतिक नेतृत्व की दृष्टि इससे होने वाले नुकसान पर रहेगी। आज यही एक पहलू है जो उसे हिंसा रोकने के लिए बाध्य कर सकता है।