लोकसभा सदन शुरू होने के बाद विपक्ष द्वारा हाल में सेंगोल को संसद से हटाने की माँग उठाई गई है। बहस छेड़ने वाले समाजवादी पार्टी के सांसद आर के चौधरी हैं। उन्होंने सेंगोल को ‘राजा का डंडा’ बताया है और पूछा है कि क्या इससे सरकार चलेगी। उन्होंने स्पीकर ओम बिरला को पत्र लिखकर कहा कि सेंगोल संसद में नहीं होना चाहिए। संसद लोकतंत्र का मंदिर है किसी राजे-रजवाड़े का महल नहीं। इसे हटाकर वहाँ भारतीय संविधान की विशालकाय प्रति स्थापित की जानी चाहिए।
सपा सांसद द्वारा उठाए गए इस मुद्दे पर कॉन्ग्रेस पार्टी के नेताओं द्वारा इस माँग का समर्थन किया गया है। इसी तरह सेंगोल को हटाने की माँग आरजेडी लीडर मीसा भारती ने भी की। उन्होंने कहा कि ये लोकतंत्र है राजतंत्र नहीं… सेंगोल हटना चाहिए। उद्धव ठाकरे की शिवसेना के नेता संजय राउत ने इस मुद्दे पर कहा कि वो अपने गठबंधन के साथ बैठ इस पर निर्णय लेंगे। संविधान अहम है। वहीं भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं ने विपक्ष की ऐसी बातों को सुन हैरानी जताई और ‘बेतुकी’ बताते हुए कहा कि सेंगोल किसी कीमत में संसद से नहीं हट सकता।
समाजवादी पार्टी के सांसद आर.के. चौधरी ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को पत्र लिखकर संसद से 'सेंगोल' हटाने की मांग की!#RKChaudhary #ParliamentSession #OmBirla #DroupadiMurmu #Sengol #Parliament | Sengol | Parliament | द्रौपदी मुर्मू pic.twitter.com/g5HQmDctbR
— Humara Bihar (@HumaraBihar) June 27, 2024
अब पक्ष-विपक्ष में सेंगोल पर छिड़ी बहस में आगे बढ़ने से पहले समझते हैं कि आखिर ये है क्या और इसकी महत्वता क्या है, भारत के प्राचीन इतिहास में इसे क्यों इतना जरूरी माना गया और क्यों इसे स्वतंत्रता का प्रतीक कहते हैं।
सेंगोल का प्राचीन इतिहास
सेंगोल का इतिहास भारत में चोल वंश के साथ जुड़ा हुआ है। चोल साम्राज्य भारत के सबसे प्राचीन और सबसे लंबे समय तक राज करने वाले राजवंशों में से एक रहा है। 300 ईसापूर्व में भी इसका वर्णन मिलता है। 1500 से भी अधिक वर्षों तक इस राजवंश ने शासन किया। बताया जाता है कि चोल राजा शिवभक्त होते थे इसीलिए इनके राजदंड यानी सेंगोल में सबसे ऊपर भगवान शिव के वाहन नंदी की प्रतिमा है।
सेंगोल को शुरुआती काल से ही सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक माना जाता रहा है। पुराने सय में पुरोहितों द्वारा इसे उस शासक को सौंपा जाता था जब उसके शासन का शुभारंभ होता था। भारत में इसकी महत्वता उसी काल से थी। बीच में मुगल काल और अंग्रेजों का राज शुरू होने के बाद इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन जैसे ही देश को स्वतंत्रता मिली ‘सेंगोल’ दोबारा प्रासंगिक हुआ।
स्वतंत्रता का प्रतीक है सेंगोल, जवाहरलाल नेहरू ने तुष्टिकरण के चलते नहीं दी तवज्जो
1947 में जब देश को आजादी मिली उस समय में एक विडंबना ये खड़ी हुई कि आखिर सत्ता हस्तांतरण होगा कैसे? इसका प्रतीक क्या होगा? कैसे पता चलेगा कि अंग्रेजों ने भारत को छोड़ दिया है? इसी समस्या के समाधान के लिए अंग्रेजों के अंतिम गवर्नर-जनरल लॉर्ड माउंटबेटन, जवाहरलाल नेहरू के पास गए। उन्होंने उनसे पूछा कि आखिर आपके देश में सत्ता हस्तांतरण को लेकर क्या रीति-रिवाज हैं, वो उसके मुताबिक आगे की प्रक्रिया करेंगे।
अब जवाहरलाल नेहरू, इस सवाल का जवाब कैसे देते, उन्होंने तो देखा ही सिर्फ अंग्रेजों का रहन-सहन था। यही वजह है कि सत्ता हस्तांतरण के बारे में जानकारी लेने की जगह वह ‘स्वतंत्रता पार्टी’ के संस्थापक रहे चक्रवर्ती राजगोपालचारी से इस बारे में पूछा, जो भारतीय संस्कृति की गहरी समझ रखते थे।
उन्होंने नेहरू को पुरानी संस्कृति के बारे में बताया और समस्या का समाधान ‘सेंगोल’ के रूप में किया। इसके बाद करीबन 15 हजार रुपए में इसे मद्रास के प्रसिद्ध ज्वैलर्स वुम्मिडी बंगारू चेट्टी एंड सन्स द्वारा तैयार किया गया। फिर आखिर में विधि अनुष्ठान करवाकर, वैदिक मंत्रोच्चार के बीच ये सेंगोल जवाहरलाल नेहरू को सौंपा गया और 14 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरण का अनुष्ठान पूरा हुआ … भारत में लोकतंत्र कायम हुआ। आगे देश का दुर्भाग्य कहिए या फिर सेकुलर नेताओं की हिंदूविरोधी मानसिकता कि आजादी के इस प्रतीक को न तो नेहरू ने खुद तवज्जो दी न कि कॉन्ग्रेस ने।
PM मोदी ने पता लगते ही सेंगोल को दिया सम्मान
साल 2021 में प्रधानमंत्री मोदी को एक खत के जरिए सेंगोल के बारे में पता चला। यह खत चर्चित डांसर पद्म सुब्रमण्यम ने उन्हें लिखा था। अपने लेटर में उन्होंने पीएम मोदी को सेंगोल के बारे में बताया था। पीएमओ ने इस लेटर को गंभीरता से लिया और संस्कृति मंत्रालय इस सेंगोल की खोज में जुटी। आखिरकार पता चला कि ये सेंगोल इलाहाबाद के म्यूजियम में रखा हुआ है। सेंगोल के अस्तित्व को कंफर्म करने के लिए मंत्रालय की टीम वुम्मिडी बंगारू चेट्ठी परिवार से भी मिली जिन्होंने कंफर्म किया कि सेंगोल तैयार किया गया था।
सेंगोल की महत्वता जानने के बाद ही पीएम मोदी ने इसे संसद में अहम स्थान देने का संकल्प लिया और 2023 में नए संसद के उद्घाटन के साथ इसे भी वहाँ स्थापित किया गया और जन-जन को मीडिया के जरिए इसकी महत्वता के बारे में पता चला।
मुद्दे नहीं बचे तो सेंगोल के पीछे पड़ा विपक्ष
आज सदन में संख्या बढ़ने के बाद विपक्ष नेता जो सवाल खड़े कर रहे हैं कि ये ‘सेंगोल’ राजतंत्र में इस्तेमाल होता था लोकतंत्र में इसकी जरूरत नहीं, उन्हें ये सारा इतिहास पढ़ने-समझने की जरूरत है, ताकि उन्हें भी पता रहे कि भारत की संस्कृतियों से नफरत करने में वो इतना न गिरें कि स्वतंत्रता के प्रतीक को संसद से हटाने की बात छेड़ें। उनके लिए इस चिन्ह से नफरत केवल इसलिए है क्योंकि इसका संबंध प्राचीन भारत से है जहाँ वेदों का महत्व था।
विपक्ष द्वारा अचानक सदन की शुरुआत होने के बाद सेंगोल हटाने की माँग उठना सिर्फ ये दिखाती है कि उनके पास राष्ट्रहित से जुड़े या जनता से संबंधिक कोई मुद्दा नहीं बचा है। वो सत्ताधारी पक्ष को जनता के हित में काम करने की सलाह या तरीके बताने की बजाय अपने में ही उलझे हुए हैं। हाल में उन्होंने इमरजेंसी का विरोध करने पर संसद के बाहर जाने का प्रयास किया। मानो वो ठहरा रहे हो कि इमरजेंसी लोकतंत्र पर धब्बा नहीं था। उस मुद्दे के बाद वो अब सेंगोल का मुद्दा लेकर आए हैं। वो सेंगोल, जिसे लेकर सारी पार्टियों को कॉन्ग्रेस से सवाल करना चाहिए कि उन्होंने इतने वर्ष उसपर क्यों ध्यान नहीं दिया, वो पार्टियाँ अब एकजुट होकर आजादी के प्रतीक को गलत दिखाने की कोशिशों में हैं।