सवाल कश्मीर में लॉकडाउन के बहाने प्रोपगेंडा फैलाने वालों से है। इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान से भी। समुदाय विशेष और मानवाधिकार के हमदर्द होने का स्वांग रचने वाले मुल्कों और संस्थाओं से भी। क्या उन्हें रत्ती भर भी समुदाय विशेष की चिंता है? क्या उन्हें उनके जीने-मरने से वाकई फर्क पड़ता है? या फिर वे इस्लाम के नाम पर हंगामा केवल सेकुलर मुल्कों में मचाते हैं। राजनीतिक रोटियॉं सेंकने के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं। या फिर मजहब के नाम पर माहौल बिगाड़ने की साजिश वहीं रची जाती है, जहॉं की व्यवस्था और उनके अगुआ असल मायनों में मानवाधिकारों और इंसानियत की कद्र करते हैं।
यदि ऐसा नहीं है तो आपने केच का नाम क्यों नहीं सुना। क्या आपको पता है सुरक्षा कारणों का हवाला देकर इस जिले में फरवरी 2017 से ही मोबाइल इंटरनेट सेवा बंद है? क्या आपको पता है कि इस जिले में करीब नौ लाख लोग रहते हैं? क्या आपको पता है कि सेना का डेथ स्क्वायड यहॉं आए दिन लोगों की हत्या करता है?
केच बलूचिस्तान का एक जिला है। प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर बलूचिस्तान, जहॉं 72 साल से पाकिस्तानी सेना की बर्बरता जारी है। जहॉं से प्रताड़ना के वीडियो हर रोज सामने आ रहे हैं। लोगों को अगवा कर मार डालने की ख़बरें रोज आती हैं।
बलूचिस्तान पाकिस्तान के चार प्रांतों में क्षेत्रफल के लिहाज से सबसे बड़ा और आबादी के हिसाब से सबसे छोटा है। 2017 की जनसंख्या के अनुसार यहॉं की आबादी करीब सवा करोड़ है।
इस्लाम के नाम पर जिन्ना ने छला
बलूचिस्तान को 1948 में हथियार के दम पर पाकिस्तान ने खुद में मिलाकर खान ऑफ कलात मीर अहमद यार खान को जेल में डाल दिया था। मीर अहमद यार खान उन लोगों में से थे, जो इस्लाम के नाम पर अलग पाकिस्तान के पैरोकार थे। जिनके मुहम्मद अली जिन्ना दोस्त थे। जिन्होंने ब्रिटेन के सामने अपना पक्ष रखने के लिए जिन्ना को कानूनी सलाहकार बनाया था। जिसने मुस्लिम लीग को खूब पैसा दिया। 11 अगस्त 1947 को मुस्लिम लीग ने जिनके साथ साझा घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किए। इसमें कहा गया था कि कलात एक भारतीय राज्य नहीं है। उसकी अपनी अलग पहचान है। मुस्लिम लीग कलात की स्वतंत्रता का सम्मान करती है।
ब्रिटिश राज में बलूचिस्तान
कलात, खारान, लॉस बुला और मकरान पर ब्रिटिश साम्राज्य का सीधा शासन नहीं था। इनके पास भारत और पाकिस्तान में से किसी एक में मिलने या फिर खुद को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करने का अधिकार था। कैबिनेट मिशन के सामने 1946 में अपना पक्ष रखते हुए कलात ने कहा था कि उसकी संधि ब्रिटेश इंडिया साम्राज्य के साथ नहीं, बल्कि ब्रिटिश क्राउन के साथ है। 4 अगस्त 1947 को दिल्ली में एक राउंड टेबल मीटिंग में तय किया गया कि 5 अगस्त 1947 को कलात ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र होगा। खारान, लॉस बुला, मारी और बुग्ती इलाके कलात में शामिल होंगे, ताकि पूरा बलूचिस्तान कलात का हिस्सा बन जाए।
कलात का कानूनी दर्जा भी अन्य भारतीय रियासतों से अलग था। 1876 की संधि के अनुसार ब्रिटेन उसके आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। वह चेंबर ऑफ प्रिंसली स्टेट्स का सदस्य भी नहीं था। इसके कारण वह भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में शामिल होने के लिए मजबूर नहीं था।
पाकिस्तान बनने के अगले दिन मीर अहमद खान ने कलात को एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया। कलात की नेशनल असेंबली की बैठक में यह फैसला किया गया कि वह एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा और पाकिस्तान से उसके दोस्ताना ताल्लुक रहेंगे।
फिर कुरान की कसम खा ठगा
अप्रैल 1948 में पाकिस्तानी सेना ने कलात पर हमला किया। मीर अहमद यार खान ने आत्मसमर्पण कर विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए। बावजूद बलूचिस्तान की आजादी की हसरत ने दम नहीं तोड़ा। खान के भाई प्रिंस अब्दुल करीम के नेतृत्व में विद्रोह हुआ। उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। 1954 में पाकिस्तान ने ईस्ट पाकिस्तान और वेस्ट पाकिस्तान नाम से यूनिट बनाने का फैसला किया। वेस्ट पाकिस्तान के सभी स्टेट्स, प्रोविंसिज और कबिलाई इलाकों को मिलाकर वेस्ट पाकिस्तान बनाया गया। इन इलाकों के सारे अधिकार और स्वायत्ता छीन ली गई। बलूचिस्तान ने इसका जबरदस्त विरोध किया। अक्टूबर 1958 में अयूब खान ने पाकिस्तानी आर्मी को बलूचिस्तान में भेज कलात के खान और उनके सहयोगियों को गिरफ्तार कर लिया।
लेकिन, खान के सहयोगी नवाब नवरोज खान ने संघर्ष जारी रखा। कहते हैं कि 1959 में कुरान की कसम खाकर पाकिस्तानी कमांडर ने नवरोज खान को आत्मसमर्पण के लिए राजी किया। लेकिन, हथियार डालते ही उनके बेटों, भतीजों और रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर फॉंसी दे दी गई। खान की करीब 90 साल की उम्र में 1962 में जेल में ही मौत हो गई।
इसके बाद 70 के दशक में फिर बलूच आंदोलन ने जोड़ पकड़ा। 1971 के चुनाव में बलूचिस्तान और नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस में नेशनल अवामी पार्टी की जीत हुई जो नेशनलिस्ट बलूचों की पार्टी थी। बलूचों पर आरोप लगाया गया कि वे ईरान के साथ मिलकर बड़े संघर्ष की तैयारी कर रहे हैं। सरकार को बर्खास्त कर बलूचिस्तान को सैनिकों से पाट दिया गया। बलूचों पर हवाई हमले तक किए गए।
इसके बाद से बलूचिस्तान में नरसंहार का सिलसिला जारी है। वहाँ के हजारों लोग गायब हैं। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट भी जुलाई 2010 से मई 2011 के बीच लापता 140 लोगों की लाशें मिलने की पुष्टि करती है। डिप्लोमेट की एक रिपोर्ट बताती है कि पूरे बलूचिस्तान में कुछ-कुछ किलोमीटर पर साजो-सामान से लैस पाकिस्तानी सेना की सुरक्षा चौकियॉं हैं।
वकील शकील जमुरानी के मुताबिक केच में इंटरनेट शटडाउन को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी। लेकिन, सुनवाई पूरी होते नहीं देख उन्होंने मामला वापस ले लिया। वे बताते हैं कि कुछ लोग सादे कपड़ों में उनके पास आए और कहा कि मोबाइल इंटरनेट पर पाबंदी के खिलाफ सवाल उठाकर वे राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती दे रहे हैं। समझा जा सकता है कि बलूचिस्तान में सुरक्षा का खतरा कैसा है।
अब याद करिए उन शोरों को जो सीमा पार आतंकवाद से जूझ रहे कश्मीर में लॉकडाउन पर मचा है। याद करिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला दे सेना पर प्रताड़ना के झूठे आरोप लगाने वाले बयान और सोशल मीडिया के पोस्ट को। याद करिए कथित अल्पसंख्यकों को दबाने का, उनकी आवाज कुचलने का मोदी सरकार पर लगे आरोपों को।
ऐसे लोगों को यदि इस मजहब की वाकई फिक्र होती तो केच में इंटरनेट शटडाउन और बलूचिस्तान में नरसंहार पर भी इनकी आवाजें आपको सुनाई देती। सच्चाई तो यह है कि बलूच लोगों के संघर्ष को, दर्द को जिस शख्स ने सार्वजनिक तौर पर पहली बार आवाज दी वह नरेंद्र मोदी ही हैं। याद करिए 15 अगस्त 2016 को लाल किले से दिए गए मोदी के संबोधन को। और यही कारण है कि बलूच राष्ट्रवादी आाज पाकिस्तानी प्रताड़ना से मुक्ति के लिए भारत की तरफ देख रहे हैं।