आज संविधान दिवस है। वैसे तो वर्ष 1949 में आज के दिन ही संविधान को देश द्वारा अपनाया गया था पर संविधान दिवस आज मात्र सातवीं बार मनाया जा रहा है। वर्ष 2015 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार ने पहली बार 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया था और तब से हर वर्ष 26 नवंबर के दिन संविधान दिवस मनाया जा रहा है। इस बात से कम लोग ही असहमत होंगे कि ऐसी नई परम्पराएँ एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए गर्व का विषय होती है। ये परम्पराएँ किसी भी लोकतंत्र के परिष्कृत होने में सहायक सिद्ध होती हैं तथा लंबे समय तक राष्ट्र, नागरिक, शासन और प्रशासन को संस्थाओं और परम्पराओं का महत्व समझाती हैं।
संविधान दिवस इस वर्ष भी मनाया गया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने देश के संविधान और लोकतंत्र पर अपनी बात रखते हुए राजनीतिक दलों को पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार द्वारा चलाए जाने को लोकतंत्र के लिए एक चुनौती बताते हुए इस पर चिंता व्यक्त की। ऐसे कहने वाले प्रधनमंत्री मोदी न तो पहले व्यक्ति हैं और न ही आखिरी। कई वर्षों से देश में इसे लेकर बहस चल रही है और आगे भी होगी। किसी भी राजनीतिक दल का केवल परिवार द्वारा चलाया जाने के पक्ष और विपक्ष में केवल तर्क ही नहीं कुतर्क देने का भी चलन है। पर क्या भविष्य में संविधान दिवस का महत्व केवल इस बात से आँका जाएगा कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर क्या कहा?
किसी भी राष्ट्र का संविधान उस राष्ट्र के शासन और प्रशासन के लिए दिशा निर्देश देता है। राष्ट्र के राजनीतिक दलों को कैसे चलाया जाए, इसका निर्णय उन दलों के अपने संविधान और उन्हें बनाने वाले दल के नेताओं पर निर्भर करता है। एक राजनीतिक दल को चलाने के लिए बनाया और स्वीकार किया गया राजनीतिक दर्शन और सम्बंधित राजनीतिक सिद्धांत यह तय करते हैं कि सत्ता पर काबिज होने के पश्चात ये दल संविधान और संविधान द्वारा सुझाए गए राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को किस दृष्टि से देखते हैं, किस हद तक स्वीकार करेंगे और देश, राज्य या स्थानीय निकायों को चलाने की उनकी महत्वाकांक्षा के फलित होने पर संविधान की मर्यादा का पालन किस स्तर तक करेंगे।
संविधान का पालन भारतीय लोकतंत्र में सत्ताधारी या सत्ता की आकांक्षा रखने वाले राजनीतिक दलों के लिए पहली शर्त है। ऐसे में 26 जनवरी 1950 से संविधान लागू होने के पश्चात सत्ताधारी दलों ने संविधान की मर्यादा का कितना पालन किया यह प्रश्न उठता रहेगा। इस विषय को लेकर जब भी राजनीतिक विमर्श होगा, न केवल यह प्रश्न उठाया जाएगा बल्कि सत्ताधारी दलों के अपने राजनीतिक आचरण को लेकर तमाम और प्रश्न उठेंगे। स्वतंत्रता मिलने के पश्चात सबसे अधिक समय तक जो राजनीतिक दल सत्ता में रहा, उसका मूल्यांकन न केवल सबसे लंबे समय तक चलेगा बल्कि ऐसा करते हुए संविधान विशेषज्ञ और आम भारतीय कठोर भी रहेगा। राजनीति के ‘जानकारों’ के बारे में यही बात पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती।
विमर्शों से सहमति या असहमति अपनी जगह पर हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि भविष्य में लंबे समय तक संविधान दिवस हर वर्ष विमर्शों का कारण बनेगा। प्रश्न उठेंगे और उचित उत्तर न मिलने पर इन प्रश्नों को और जोर से उठने से रोकना लगभग असंभव होगा। भारतीय राजनीति का वर्तमान काल लोकतांत्रिक भारत की यात्रा के मूल्यांकन का काल है और हर मूल्यांकन की शुरुआत प्रश्नों से ही होती है। ऐसे में संविधान में वर्णित राज्य के लिए नीति निर्देशक सिद्धांत हों या फिर उनके पालन का स्तर, संविधान की प्रस्तावना या अनुच्छेदों में संवैधानिक या असंवैधानिक बदलाव हो या संविधान को ही सीधे तौर नकारने की ऐतिहासिक घटनाएँ, हर विषय पर प्रश्न उठेंगे। यही कारण है कि गणतंत्र दिवस के साथ-साथ संविधान दिवस का भी महत्व भविष्य में बढ़ेगा।
यह पूछा जाएगा कि लंबी बहस के पश्चात संविधान सभा द्वारा प्रस्तावना में स्वतंत्र भारत के विशेषण के रूप में जिन शब्दों को शामिल न करने का निर्णय लिया गया था, उन्हीं शब्दों को आपातकाल के दौरान बिना किसी बहस के संविधान के 42वें संशोधन के नाम पर कैसे शामिल कर लिया गया? यह गंभीर प्रश्न है और इसे किसी राजनीतिक दल की सड़ चुके आतंरिक लोकतंत्र की तरह नकारा नहीं जा सकेगा। संविधान की जिस प्रस्तावना के कभी न बदले जाने को लेकर संविधान सभा निश्चिन्त थी, उसे इतनी आसानी से क्यों और कैसे बदल दिया गया? इस प्रश्न के उत्तर में धर्मनिरपेक्षता के प्रति संविधान सभा की अलिखित मंशा को आगे रखकर हाथ झाड़ लेना संभव न होगा। यह विमर्श अब धर्मनिरपेक्षता को लेकर संविधान सभा के फैसले और धर्म को लेकर भारत के ऐतिहासिक चरित्र की बार-बार बात करने से आगे जाएगा।
जब ऐसे विमर्श होंगे तब आरक्षण को लेकर संविधान निर्माताओं की लिखित योजना के साथ क्या हुआ और क्यों हुआ, इस प्रश्न से मुँह मोड़ पाना संभव न होगा। राज्य के नीति निर्धारण में समान नागरिक संहिता को लेकर क्या लिखा गया था और उसे लेकर पिछले सात दशकों में क्या हुआ उस पर विमर्श होगा। हाल में विभिन्न न्यायालयों द्वारा सरकार से समान नागरिक संहिता बनाने को लेकर कहा गया है। यह वर्तमान सरकार पर निर्भर करता है कि वह क्या करती है पर न्यायालयों के इस निर्देश के परिणामस्वरूप उठने वाला विमर्श वर्तमान सरकार की भूमिका तक सीमित नहीं रहेगा।
कम होने की जगह लगातार बढ़ता गया आरक्षण हो या समान नागरिक संहिता लागू न कर पाना, संविधान की प्रस्तावना से छेड़-छाड़ हो या आपातकाल, यह सब कुछ देश में शासन की गुणवत्ता का दस्तावेज है। विमर्शों का कोई अंतिम या लिखित निष्कर्ष निकले यह आवश्यक नहीं पर विमर्श हो यह आवश्यक है क्योंकि वर्तमान काल भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र की यात्रा के मूल्यांकन का काल है।