Sunday, November 17, 2024
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इस्लामी कट्टरपंथ पर पर्दा डालने का रिवाज पुराना, इसलिए ‘द कश्मीर फाइल्स’ से जले-भुने हैं लिबरल: जिंदा रहने के लिए ‘शठे-शाठ्यं समाचरेत’ की नीति जरूरी

सदा कड़वे सच को नकार कर और काल्पनिक आदर्श को प्रचारित करके समाज को भ्रमित करने वाले तथा सांप्रदायिक विद्वेष की भट्ठी में झोंकने वाले बुद्धिजीवियों का ही मानना है कि 'द कश्मीर फाइल्स' से समाज में नफरत फैल रही है।

निर्माता-निर्देशक विवेक अग्निहोत्री और उनकी पत्नी पल्लवी जोशी, अभिनेता अनुपम खेर आदि के सम्मिलित प्रयास से निर्मित बहुचर्चित फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स (The Kashmir Files)’ लीक से हटकर बनी है। इस कलाकृति में समाज को उसकी वास्तविक स्थिति से अवगत कराने और समय रहते सचेत होने का संदेश है। जो सामाजिक चिकित्सा-विज्ञानी, निर्देशक-कलाकार, राजनेता आदि समाज से उसके कैंसर को छुपाकर, लंबे समय से पर्दे पर कुछ और ही दिखा कर कश्मीर के कड़वे सच को दफन करने में व्यस्त रहे, वे आज सच उजागर होने से बौखलाए हुए हैं और असंगत प्रतिक्रियाएँ दे रहे हैं।

निर्देशक विनोद कापड़ी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ट्विटर पर पूछते हैं कि वे गुजरात दंगों पर फिल्म बनाने जा रहे हैं, क्या प्रधानमंत्री प्रदर्शन की अनुमति देंगे? उनसे प्रतिप्रश्न है कि क्या फिल्म की अनुमति प्रधानमंत्री देते हैं? यदि नहीं, तो उनसे प्रश्न क्यों? और यदि हाँ, तो क्यों नहीं देंगे? उन्हें अवश्य देना चाहिए। गुजरात दंगों का सच सामने आना ही चाहिए। उसमें सबसे पहले यह भी दिखाया जाना चाहिए कि किस प्रकार एक समुदाय के लोगों ने योजना बनाकर दूसरे समुदाय के निर्दोष और निहत्थे 59 लोगों को साबरमती एक्सप्रेस के दो डिब्बों में जिंदा जलाकर मार डाला। जहाँ पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू अपने जान-माल की रक्षा तक नहीं कर पा रहे हैं, वहाँ भारतवर्ष में अल्पसंख्यक कहे जाने वाले मुस्लिम समुदाय के आपराधिक तत्व बहुसंख्यक हिंदुओं को जिंदा जलाने का जघन्य कृत्य कर रहे हैं। इनकी शक्ति और दुस्साहस का स्रोत क्या है? वे कौन सफेदपोश हैं, जिनके चुनाव में विजयी घोषित होने की संभावना अथवा सूचना मात्र से जेहादी मानसिकता अकस्मात आक्रमक हो उठती है? जिनके शपथ-ग्रहण करते ही दंगा भड़क उठता है? अब समय आ गया है कि इन प्रश्नों के उत्तर जितनी जल्दी समाज को मिल जाएँ उतना ही अच्छा है, क्योंकि अब भारतीय गैर-इस्लामिक जनता की सुरक्षा इन्हीं उत्तरों पर निर्भर है।

बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, कलाकारों, पत्रकारों, राजनेताओं, धर्मगुरुओं, शासन-प्रशासन में बैठे पदाधिकारियों, न्यायाधीशों आदि सार्वजनिक जीवन से जुड़े लोगों पर सारे समाज के संरक्षण और हित साधन का दायित्व होता है। अतः इनका किसी एक वर्ग-समूह के प्रति संवेदनशील बन जाना और दूसरे के हितों पर कठोर प्रहार देख कर भी चुप रहना, किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। हमारा संविधान समानता और न्याय की स्थापना का शंखनाद करता हुआ सब की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्धता दर्शाता है तथापि कश्मीर घाटी में हिंदुओं पर हुए अत्याचार के विरुद्ध विगत तीस-बत्तीस वर्षों में कहीं से भी कोई सशक्त स्वर मुखर नहीं हुआ। लाखों हिंदू हत्या, बलात्कार, लूट और आतंक के बल पर घाटी से पलायन को विवश कर दिए गए। उनकी संपत्तियों पर अवैध कब्जे कर लिए गए और एक भी अपराधी को सजा मिलना तो दूर उसके विरुद्ध एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई। आखिर क्यों? यह अनुत्तरित प्रश्न हमारी तथाकथित धर्मनिरपेक्षता और न्याय व्यवस्था पर भी एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है।

गुजरात दंगों और बाटला हाउस कांड में एनकाउंटर किए गए कुछ आतंकवादियों के पक्ष में जिन राजनेताओं और सामाजिक ठेकेदारों ने धरती-आसमान एक कर दिया उन्होंने पीड़ित कश्मीरी हिंदुओं के पक्ष में कभी सहानुभूति का एक शब्द तक नहीं कहा और आज जब ‘द कश्मीर फाइल्स‘ के रूप में कश्मीरी हिंदुओं की पीड़ा जनता-जनार्दन तक पहुँची है तो मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करते हुए वोट बैंक को अपने पक्ष में करने के लिए बेतुके बयान दे रहे हैं। सामाजिक समानता के झंडाबरदारों के ऐसे बयान दुर्भाग्यपूर्ण हैं।

‘द कश्मीर फाइल्स’ पर तंज कसते हुए सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव कहते हैं कि ‘लखीमपुर फाइल्स भी बना लेते’। सपा नेता का यह बयान उनकी यादव-मुस्लिम वोट बैंक वाली राजनीति के अनुरूप ही है। उनसे कश्मीरी पंडितों के प्रति किसी सहानुभूति की आशा नहीं की जा सकती, क्योंकि पीड़ित समूह ना तो यादव है और ना मुस्लिम। उनमें तो अधिकतर पंडित हैं, जिनसे नेताजी का कुछ काम केवल चुनाव के समय ही रहता है। कश्मीर के लाखों हिन्दुओं के साथ हुई भीषण त्रासदी की लखीमपुर की घटना से तुलना किया जाना नेता जी के बौद्धिक दिवालियापन की उद्घोषणा है। कहाँ एक लाखों लोगों का उत्पीड़न, सैकड़ों हत्याएँ, असंख्य बलात्कार और हिंसा की क्रूर अमानुषिक यातनाएँ तथा लाखों-करोड़ों की संपत्ति छोड़कर केवल धर्म पालन के लिए पलायन की विवशता और कहाँ एक गाड़ी से कुछ लोगों के कुचल जाने की दुर्घटना! दोनों ही दुखद हैं किंतु दोनों में कोई समानता दूर-दूर तक नहीं है। फिर भी नेता जी के लिए दोनों दुर्घटनाएँ सामान हैं क्योंकि ऐसा कहने से उनकी राजनीति मजबूत होती है। यह भी आश्चर्यजनक है कि इस हिंदू नेता के मुखारविंद से पीड़ित कश्मीरियों के पक्ष में और उनकी उत्पीड़क आतंकवादी शक्तियों के विरोध में अब भी एक शब्द नहीं फूट रहा है!

सदा कड़वे सच को नकार कर और काल्पनिक आदर्श को प्रचारित करके समाज को भ्रमित करने वाले तथा सांप्रदायिक विद्वेष की भट्ठी में झोंकने वाले ऐसे ही अनेक बुद्धिजीवियों का विचार है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ से समाज में नफरत फैल रही है। इसे बनाया जाना और इसके प्रदर्शन की अनुमति दिया जाना गलत है। यदि यह गलत है तो किसी भी चिकित्सक द्वारा रोगी को उसके रोग से अवगत कराया जाना भी गलत है। रोगी की जीवन-रक्षा के लिए उसे उसके रोग से अवगत कराया जाता है ताकि वह समय पर सावधान होकर अपनी रोग मुक्ति के लिए उचित आवश्यक उपचार कर अपने जीवन की रक्षा कर सके। बीमारी छुपाने से रोगी रोग-मुक्त नहीं हो सकता- रोग को पहचानकर, उसके कारणों को जानकर और उसका आवश्यक उपचार करके ही उसके स्वास्थ्य और जीवन की रक्षा की जा सकती है।

इसी भाव से ‘द कश्मीर फाइल्स’ बनाई गई है और प्रदर्शित की जा रही है। कट्टरता और हिंसक आतंक तक फैली पैशाचिक सांप्रदायिकता की असाध्य व्याधि से देश स्वतंत्र और स्वायत्तता संपन्न होकर भी निरंतर जूझ रहा है, कमजोर हो रहा है फिर भी हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी सोचते हैं कि समाज का यह कैंसर उजागर न हो, बीमारी दबी रहे, भले ही मृत्यु हो जाए। समझदारों को अपनी समझ पर एक बार फिर विचार करना चाहिए अन्यथा रोग को छिपाने और उसका आवश्यक उपचार ना होने देने की गलत सोच आगामी दशकों में पूरे देश को जिहादियों के लिए जन्नत और गैर-इस्लामी समूहों के लिए जहन्नुम बना देगी।

भारतीय राजनीति में मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा हिंदुओं पर किए जाने वाले अत्याचारों पर पर्दा डालने का रिवाज बहुत पुराना है। इसे महात्मा गाँधी के नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस ने खिलाफत आंदोलन से शुरू किया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन और तुर्की के बीच हुई ‘सीवर्स की संधि’ से तुर्की के खलीफा के समस्त अधिकार छिन गए और तुर्की राज्य छिन्न-भिन्न हुआ। विश्वभर के मुसलमानों ने खलीफा के पक्ष में ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाने के लिए 1919 में खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की। भारतवर्ष में भी मुसलमानों ने इस आंदोलन को प्रारंभ किया। भारतवर्ष के स्वतंत्रता संग्राम और बहुसंख्यक हिंदू समाज से इस आंदोलन का कोई लेना-देना नहीं था, फिर भी गाँधीजी ने कॉन्ग्रेस का नेतृत्व करते हुए खिलाफत का समर्थन किया। जबकि उसी समय केरल के मोपलाओं ने मलाबार में सैकड़ों हिंदुओं की निर्मम हत्याएँ की। विरोध ब्रिटिश शासन से था, भरपाई हिंदुओं के नरसंहार से हुई। वीर सावरकर की पुस्तक मोपला में उस समय हुए हिंदुओं के नरसंहार और जबरन धर्मांतरण का खौफनाक वर्णन है, किंतु इतिहास में उसकी चर्चा ना के बराबर है।

23 दिसंबर, 1926 को दिल्ली में हत्यारे अब्दुल राशिद ने आर्य-समाज के प्रमुख नेता श्रद्धेय श्रद्धानंद की गोली मारकर हत्या कर दी। स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती उस समय हिंदुओं के बड़े धर्म-गुरुओं में से एक थे। किंतु घटनास्थल पर रंगे हाथों पकड़े गए हत्यारे अब्दुल राशिद को बचाने के लिए स्वयं महात्मा गाँधी ने उसके पक्ष में अनेक बयान दिए और उसे ‘अपना भाई’ कहा। कैसी विडम्बना है कि हिंदुओं को हमेशा अहिंसा सिखाने वाले हमारे बड़े नेता ने हिंसक हत्यारे का पक्ष लिया और श्रद्धानंद की मृत्यु पर शोक तक प्रकट नहीं किया। अक्टूबर-नवंबर, 1946 में बंगाल के चटगाँव डिवीजन के नोआखाली जनपद में डायरेक्ट एक्शन के नाम पर मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिंदुओं का भयंकर नरसंहार किया गया।

बलपूर्वक धर्मांतरण, आगजनी और हिंदुओं की संपत्ति की लूट की सैकड़ों सुनियोजित दुर्घटनाएँ हुईं, किंतु मुस्लिम-तुष्टिकरण की कॉन्ग्रेसी राजनीति ने इसे अपनी सफेद बेदाग चादर से ढक दिया। विभाजन की त्रासदी के कारण लाखों हिंदुओं को पाकिस्तानी क्षेत्रों में जो अमानवीय यातनाएँ मिलीं, सत्ता प्राप्ति की प्रसन्नता में झूमती दिल्ली सरकार ने उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। प्रत्येक त्रासदी के लिए प्रायः पीड़ित हिंदू पक्ष ही उत्तरदायी ठहराया जाता रहा। पंजाब के खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा सैकड़ों हिंदुओं को मारा गया और हजारों हिंदू पंजाब से खदेड़ दिए गए, किंतु उन क्रूरताओं की वेदना भी अनसुनी रह गई। कश्मीर घाटी के हिंदुओं की त्रासदी भी ऐसा ही अचर्चित पृष्ठ है जो ‘द कश्मीर फाइल्स’ के रूप में अचानक जनता के सामने खुल गया है और धर्मनिरपेक्ष भारत की वकालत करने वालों से उत्तर माँग रहा है।

वास्तव में हिंदुओं पर जेहादी अत्याचार विगत तेरह सौ वर्षों से निरंतर जारी है। सिंध पर अरबों का आक्रमण और सोमनाथ मंदिर के विध्वंस से प्रारंभ हजार साल पुरानी कट्टरता आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी दंगों और जेहादी आतंकी करतूतों के रूप में तथैव जीवित है। हाल ही में होली के दिन बांग्लादेश में इस्कॉन मंदिर पर होने वाला मुस्लिम कट्टरपंथियों का आक्रमण इसका साक्षी है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ अत्याचारों और हत्याओं से भरी इस लंबी दर्दीली दास्तान का एक अंश मात्र है, जो हिंदुओं को आत्मरक्षा के लिए सावधान करती है। इस अवसर पर यह भी विचारणीय है कि हिंदुओं की इस दुर्दशा के लिए उत्तरदायी कौन है? अपने ही देश में हिंदुओं का संख्याबल क्षीण हो रहा है। उनकी मातृभूमि खंडित और विभाजित हुई है, भविष्य में फिर नए विभाजन का संकट संभावित है। कभी भी, कहीं भी शरारती तत्व मंदिरों में मूर्तियाँ खंडित करने का दुस्साहस कर जाते हैं। इस सबके लिए प्रायः इस्लाम की कट्टरवादी मानसिकता को दोषी ठहराया जाता है। यही सही भी है, क्योंकि यदि इस्लाम के जेहादी सबको हरे रंग में रंग लेने का दुराग्रह त्याग कर मानवीय-दृष्टि से उदार व्यवहार करें तो गैर-इस्लामिक लोगों का जीवन-पथ दूर तक निरापद हो सकता है। किंतु यही अंतिम सत्य नहीं है। सत्य यह भी है कि भारत में इन कट्टरपंथी जेहादी संगठनों को असली ताकत हिंदू समाज से ही मिलती है।

अपनी सुविधा और सत्ता के लिए अधिकांश हिंदू नेता अप्रत्यक्ष रुप से इन कट्टरपंथियों का ही बचाव करते रहें हैं, सामाजिक एकता और सदभाव के नाम पर इनकी काली करतूतों पर पर्दा डालते रहे हैं, अब भी पर्दा डालने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं। जब तक हिंदू समाज अपनी रक्षा के लिए स्वयं दृढ़ संकल्प नहीं लेता, स्वयं को संगठित नहीं करता और अपने बीच गाजर घास की तरह फैले हिंदुत्व रहित तथाकथित हिंदुओं, मानसिंहों और जयचंदों के नेतृत्व को बहिष्कृत नहीं करता तब तक सुरक्षित नहीं हो सकता।

किसी से द्वेष करना, शत्रुता रखना अथवा उसे हानि पहुँचाना कभी भी उचित नहीं कहा जा सकता। किंतु स्वयं पर अपनी दुरभिलाषा की पूर्ति के लिए आघात करने वालों पर प्रतिप्रहार करना भी अनुचित नहीं कहा जा सकता। हिंदुओं को पलायन की प्रवृत्ति त्याग कर संगठन बलिदान और संघर्ष का आश्रय लेना होगा। अपराधी तत्वों और उनके सहायकों को चिन्हित कर उनसे ‘शठे-शाठ्यं समाचरेत‘ की नीति अपनानी होगी। हिरण्यकशिपु के लिए नृसिंह, खरदूषणों के लिए राम और कंसों के लिए कृष्ण बनना होगा। आत्मरक्षा के लिए हर संभव प्रयत्न करना होगा। तब ही अपनी अस्मिता और आत्म गौरव की रक्षा हो सकेगी।

अहिंसा और क्षमा बड़े ऊँचे मानवीय मूल्य हैं। किंतु ये महान मूल्य हिंसक और आक्रामक नरपशुओं के समक्ष कोई महत्व नहीं रखते। अतः आत्मरक्षा हेतु प्रत्येक सार्थक प्रयत्न किया जाना अपेक्षित है। केवल इस्लामिक कट्टरवाद को कोसने से कुछ हासिल होने वाला नहीं। भारतीय-समाज में राजनीति की हवाओं से दहकते शोलों की बढ़ती तपिश के कड़वे सच को स्वीकार कर उसका सामना करने के लिए समाज स्वयं को तैयार करे। जाति, धर्म, प्रान्त आदि के भेद भूलकर, विशुद्व भारतीयता की भावभूमि पर स्थिर होकर, पक्षपात छोड़कर ‘हम भारत के लोग’ हर गलत को गलत और सही को सही कहना प्रारंभ करें, तब ही हमारा भविष्य निरापद और सुरक्षित हो सकता है। यही ‘द कश्मीर फाइल्स’ के सृजन और प्रदर्शन का प्रयोजन भी है और संदेश भी।

(लेखक डाॅ. कृष्णगोपाल मिश्र, शासकीय नर्मदा महाविद्यालय नर्मदापुरम्, मध्य प्रदेश में हिंदी के विभागाध्यक्ष हैं)

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