Friday, November 15, 2024
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किसानों का ‘भारत बंद’: यह शाहीन बाग मॉडल का ही बदला रूप है, आखिर क्यों सरकार को इसे देशद्रोह मानना चाहिए

किसान आंदोलन में चक्का जाम और भारत बंद शाहीन बाग मॉडल का ही रूप है। बस इसका कारण एंटी-सीएए से एंटी कृषि बिलों में बदल गया है और बुजुर्ग दादी की जगह पर किसान आ गए हैं। मॉडल वही है। प्रोपेगेंडा भी वही है।

किसी राज्य को चलाना कोई आसान काम नहीं है, खास कर भारत जैसे देश में तो बिल्कुल भी नहीं। यहाँ पर कई ऐसे डायनामिक्स हैं, जिन पर किसी का सीधा नियंत्रण नहीं हो सकता है। इसमें अपने स्वार्थ वाले ग्रुप, सांस्कृतिक और धार्मिक खींच-तान, एक अलग संस्थान शामिल होता है, जिसके कुछ हिस्सों को विभिन्न विदेशी संस्थानों द्वारा वित्त पोषित किया जाता है।

इस तरह के तमाम कारकों को मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता आने और फिर 2019 में निर्वाचित होने के बाद धता बता दिया। अब उम्मीद की जा रही है कि भारत सरकार इस समस्या से भी निपट लेगी, जिसे आर्टिफिशियल तरीके से क्रिएट किया गया है। वो वाकई में समस्या है ही नहीं।

अगर हम मोदी सरकार के पिछले 6 वर्षों को याद करें तो इस दौरान कई ऐसी परिस्थितियाँ सामने आई, जिसे फर्जी तरीके से गढ़ा गया था। चाहे वो राफेल रोना होना हो या जज लोया की मौत और उसके साथ लगाए गए झूठे इल्जाम। इतना ही नहीं, अयोध्या पर फैसला आने के बाद इस्लामियों ने मुस्लिमों से देश जलाने का आह्वान किया। इसके बाद CAA पर साजिश रची गई, दंगे किए गए और अब किसानों का आंदोलन हो रहा है, जिसे खालिस्तानियों द्वारा हाइजैक कर लिया गया है। मोदी सरकार ने पिछले 6 सालों में इस तरह की समस्याओं का सामना किया।

हालाँकि, यह सभी के लिए चिंताजनक हैं, मगर भारत ने दशकों से ऐसे समय-समय पर उबाल मारने वाले इन समस्याओं से निपटने का तरीका ढूँढ निकाला है। मोदी सरकार से पहले की सरकारें हमारी बातों को सुनने का भी जहमत ही नहीं उठाया। इस सरकार ने सभी की बातें सुननी शुरू कर दी। फिर इसका निराकरण भी होने लगा।

मोदी सरकार के ऐसा करते ही ‘उदारवादियों’ और सरकार के स्वतंत्र रूप से काम करने वाले प्रतिष्ठान का होश ठिकाने आ गया। लोगों ने मोदी में विश्वास दिखाया। इस देश में भ्रष्टाचार के आरोपों को गंभीरता से लिया गया है। सवाल उठता है कि राफेल ‘घोटाले’ का ट्रैप जनता के बीच किसी भी तरह के गुस्से को भड़काने में विफल क्यों रहा? सीधे शब्दों में कहें तो पीएम मोदी लंबे समय तक गायब रहे लोगों में विश्वास को जमाने में कामयाब रहे हैं।

तो उनका फॉल-बैक प्लान क्या है? उन्हें सामूहिक-हत्यारे कहने से काम नहीं चला। विपक्ष उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने में असफल रहा। उन्हें हिटलर कहना काम नहीं आया। सर्जिकल स्ट्राइक को खारिज करने से काम नहीं चला। देश को तब भी बदनाम करने की कोशिश हुई जब चीन ने सीमा पर खून-खराबा किया। लेकिन कुछ भी काम नहीं आया।

जब इसमें से कुछ भी काम नहीं किया, तो उन्होंने लगभग उन लोगों को दंडित करने की योजना तैयार की, जिन्होंने प्रधानमंत्री पर अपना विश्वास जताया था। इस प्रकार, CAA विरोधी दंगों की गाथा शुरू हुई और जिसका अंत दिल्ली-हिंदू विरोधी दंगों के रुप में हुई।

वहीं भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदा करना, अयोध्या के फैसले का प्रतिकार करने और ’मुस्लिमों पर हमले’ की आड़ में धकेलने के दौरान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित करना, दिल्ली दंगों के दौरान ‘चक्का जाम’ करना कई ऐसे तरीके हैं जो वास्तव में राष्ट्रीय राजधानी और पूरे देश को पंगु बनाने के लिए अपनाया गया था।

एक वीडियो में सुना गया, “यूपी में 30% शहरी मुसलमान हैं। क्या आपको कोई शर्म नहीं है? आप यूपी में चक्का जाम क्यों नहीं कर सकते? बिहार का वह इलाका जहाँ से मैं हूँ, वहाँ ग्रामीण मुस्लिम आबादी 6% है जबकि शहरी मुस्लिम आबादी 24% है। भारतीय मुसलमान ज्यादातर शहरों में रहते हैं। तो यह आप पर है। आप अपने शहरों को जाम कर सकते हैं। यदि कोई आपसे पूछता है, तो उन्हें मना कर दें।”

“अगर 5 लाख मुस्लिम संगठित हो गए तो हम भारत के बाकी हिस्सों से पूर्वोत्तर को काट सकते हैं। यदि हम स्थाई रूप से नहीं कर सकते हैं, तो कम से कम हम उत्तर-पूर्व को महीनों तक भारत से काट सकते हैं। हमारी जिम्मेदारी भारत से असम को काटने की है तब सरकार हमारी आवाज सुनेगी। अगर हमें असम की मदद करनी है तो हमें शेष भारत से असम को काटना होगा।”

ये शब्द जेएनयू छात्र और ‘द वायर’ के स्तंभकार शरजील इमाम के थे। शरजील इमाम चाहता था कि मुसलमान चक्का जाम करे और चिकन नेक पर कब्जा करें (जो शेष भारत को पूर्वोत्तर से जोड़ता है)। वह देश भर में, हर जगह सड़क पर मुसलमानों को लाना चाहता था। हमें निश्चित रूप से यह नहीं भूलना चाहिए कि वह शाहीन बाग का मास्टरमाइंड था और शाहीन बाग का उद्देश्य ठीक यही करना था।

उन्होंने वही किया जो AAP नेता ताहिर हुसैन ने किया था। अपने बयान में, ताहिर हुसैन ने एक भयावह योजना का खुलासा किया था। उन्होंने स्वीकार किया था कि उन्होंने हजारों मुसलमानों के साथ पुलिया को अवरुद्ध कर दिया था। जिससे कि वो चाहे जो भी करें, पुलिस अंदर नहीं आ सकती थी, जहाँ वो हिंदुओं को मार रहे थे, जिसमें अंकित शर्मा की भी नाम शामिल है।

वह अपने साइन किए गए डिस्क्लोजर स्टेटमेंट में कहता है कि अपनी योजना के अनुसार, उसने अपने आप को बेगुनाह साबित करने के लिए खुद के मोबाइल फोन से पीसीआर और पुलिस अधिकारियों को कई फोन किए थे। उसे पता था कि पुलिस बल चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, वे पुलिया को पार नहीं कर पाएँगे। इसके अलावा, मुस्लिम भीड़ ने पुलिस बल पर पथराव किया गया। उन्होंने यह भी कहा कि भीड़ पुल के दोनों ओर हिंदू घरों को जला रही थी।

तो क्या होता अगर शरजील इमाम देश भर के सभी मुसलमानों को सड़कों पर लाने और शहरों को बंद करने में सफल हो जाता? हिंदुओं का नरसंहार होता? क्या इस्लामवादी लोग उन लोगों से बदला लेंगे जिन्होंने पीएम मोदी को वोट दिया? ताहिर हुसैन ने कहा कि दंगे का उद्देश्य ‘काफ़िरों को सबक सिखाना’ था।

ऐसा लगता है कि राष्ट्र के लोगों पर हिंसा और नरसंहार को उजागर करना एकमात्र पॉलिटिकल टूल है। वे शायद उम्मीद करते हैं कि देश के लोग हिंसा से इतने परेशान हो जाएँगे कि उनका विश्वास गुस्से में बदल जाएगा और फिर यह गुस्सा इस्लामवादियों और वामपंथियों पर होने के बजाय मोदी पर निकाला जाएगा।

हालाँकि, उनकी इस योजना ने काम नहीं किया। मार-काट, प्रोपेगेंडा, शहरों को रोकने की कोशिश ने सिर्फ उनके रवैये को उजागर किया। उन्होंने साबित कर दिया कि शाहीन बाग मॉडल ने इस हद तक काम किया है। उन्होंने अब इस मॉडल से चिपके रहने का फैसला किया है और इसकी नकल की है, जिसमें केवल मुद्दा बदल रहा है।

किसान आंदोलन में चक्का जाम और भारत बंद शाहीन बाग मॉडल का ही रूप है। बस इसका कारण एंटी-सीएए से एंटी कृषि बिलों में बदल गया है और बुजुर्ग दादी की जगह पर किसान आ गए हैं। मॉडल वही है। प्रोपेगेंडा भी वही है।

इसके बाद यदि आप ‘हम देखेंगे’ जैसे पोस्टर और ‘जिन्ना वाली आजादी’ जैसे तमाम नारों पर सवाल उठाएँगे तो आपको क्रूर करार दिया जाएगा, जो अपनी अधिकार के लिए लड़ने वाली बूढ़ी दादी के खिलाफ खड़े हैं। आज जब आप खालिस्तानी भागीदारी पर सवाल उठाते हैं तो इंदिरा गाँधी से टकरा जाने, पीएम मोदी को ठोक देने की बात करते हैं। आपको ऐसे राक्षस की तरह पेश किया जाता है जो आपकी मेज तक अन्न पहुँचाने वाले गरीब किसानों को नुकसान पहुँचा रहे हैं।

हर बार जब वे झूठ से लदे एक नाजायज एजेंडे को फैलाना चाहते हैं, तो वे एक ऐसा समूह बनाते हैं, जिस पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए। शाहीन बाग की दादी बूढी और कमजोर थी, लेकिन अगर वे राष्ट्र को बाधित करना और अराजकता पैदा करना चाहती थी, तो उन्हें जेल में डाल दिया जाना चाहिए। 

किसान हमारी मेज पर भोजन डालते हैं, लेकिन वे सवाल या फटकार से परे एक अतिरंजित समूह नहीं हैं। वे अपनी उपज के लिए उन लोगों से पारिश्रमिक लेते हैं, जो उस उपज को खरीदते हैं। निष्पक्ष व्यापार को एक दान के रूप में चित्रित नहीं किया जा सकता है, जिससे कि विरोध करने वालों के एक ग्रुप का खालिस्तानी एजेंडा भी निर्विवाद हो जाए।

सीएए के दौरान, वे कानूनों तोड़-मरोड़ कर पेश करते हुए कहते हैं कि मुस्लिम अपनी नागरिकता खो देंगे। उन्होंने खुलकर झूठ बोला। अब वे किसान बिल को किसान विरोधी बनाने के लिए अपने तरीके से पेश कर रहे हैं। शाहीन बाग के समय यह कट्टरपंथी मुसलमानों और वामपंथियों के शामिल होने के बारे में था। अब, यह खालिस्तानियों और कट्टरपंथी मुसलमानों के बारे में है। 

उस समय भी मीडिया ने इसका बचाव किया था, अब भी मीडिया इसका बचाव कर रही है। फिर अंतरराष्ट्रीय समुदाय सीएए के विरोध में उतरा था और अब ऐसा ही किसान आंदोलन के साथ भी हो रहा है। कनाडा और ब्रिटेन ऐसा ही करता नजर आ रहा।

इसमें से कोई भी प्रोटेस्ट के अधिकार के बारे में नहीं है। राज्य को ब्लैकमेल करने के लिए राष्ट्र को रोकने के लिए उनके ‘अधिकार’ के बारे में यह है कि वे राजनीतिक रूप से क्या चाहते हैं। यह राजनीति के बारे में है। यह मोदी के सिर के पिछले हिस्से को पकड़ने और कीचड़ में उनकी नाक रगड़ने के बारे में है। यह अधिकारों या कानूनों के बारे में नहीं है। कानूनों से कोई समस्या नहीं है। वे भारत की सरकार को नीचा दिखाने के लिए एक बहाना है।

अब समय आ गया है कि सरकार इन तिकड़मों को खारिज करे। लोगों को विरोध करने का अधिकार है, मगर इस तरह से झूठे कारणों के लिए नहीं। चाहे वह केंद्र में भाजपा सरकार हो या कॉन्ग्रेस की सरकार। चाहे वह राजनीतिकरण से सहमत हो या न हो, राष्ट्र को रोकना या ऐसा करने का प्रयास करने वालों पर देशद्रोह के समान आरोप होना चाहिए। उन्हें राज्य के खिलाफ युद्ध के रूप में माना जाना चाहिए।

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