राजनीति आधारित कृषि और कृषि आधारित राजनीति पर शरद पवार की वरिष्ठता का सम्मान सभी करते हैं। ऐसे में कृषि कानूनों पर हो रहे प्रदर्शन के बीच उनका नया बयान महत्वपूर्ण है। पवार के अनुसार कृषि कानूनों को रद्द न करके, उनके जिस अंश से लोगों को शिकायत है, उसमें सुधार करने की दिशा में कदम उठाया जाना चाहिए। कृषि कानूनों पर यह बयान उनके अभी तक के दृष्टिकोण के बिलकुल उलट है, क्योंकि अब तक शरद पवार कानूनों को रद्द करने के पक्षधर थे। उनका यह बयान महा विकास अगाड़ी में शामिल मित्र दलों के नजरिए से पूरी तरह अलग है, क्योंकि कॉन्ग्रेस के साथ-साथ शिवसेना ने कृषि कानूनों का न केवल शुरू से विरोध किया है, बल्कि दोनों दल कानूनों को पूरी तरह से रद्द करने के पक्ष में भी रहे हैं।
शरद पवार का यह बयान महाराष्ट्र की वर्तमान राजनीति को देखते हुए तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही इसे निकट भविष्य में राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए भी महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। पिछले सात महीने से चल रहे किसान आंदोलन का केंद्र रहे पंजाब और उत्तर प्रदेश में चुनाव दूर नहीं हैं। ऐसे में पवार का बयान बाकी विपक्षी दलों के लिए असमंजस की स्थिति पैदा करेगा। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने पवार के इस बयान का स्वागत करते हुए उन्हें अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने के लिए धन्यवाद भी दिया।
केंद्र सरकार हमेशा से कृषि कानूनों को लेकर किसान संगठनों और राजनीतिक दलों से बातचीत के लिए तैयार थी, पर कानूनों का विरोध करने वाले किसान संगठन और उनका समर्थन कर रहे राजनीतिक दल इन पर किसी भी तरह की बातचीत की संभावना को नकारते आए थे। विपक्षी दलों और संगठनों के अनुसार किसान आंदोलन को रोकने का एकमात्र रास्ता है कानूनों को पूरी तरह से रद्द करना। कोई इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि कृषि सम्बंधित कानूनों पर बातचीत न करके उन्हें रद्द करने की माँग ऐसी है, जो न केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था के अपितु लोकतंत्र की परंपरा के भी विरुद्ध है। बातचीत के जरिए समस्याओं का समाधान खोजने की परंपरा भारतीय लोकतंत्र का आधार रही है। बिना बातचीत के किसी भी विषय पर अड़ जाना लोकतांत्रिक राजनीति में लगभग असंभव है।
किसान संगठन या उनके समर्थक विपक्षी दलों ने कभी यह भी बताने की जहमत नहीं उठाई कि उन्हें इन कानूनों के किन हिस्सों या धाराओं से शिकायत है और क्यों है। इसके उलट इन कानूनों के प्रति उनका विरोध पूर्वानुमानों और अफवाहों पर आधारित रहा है। कानून सम्बंधित विमर्शों में कभी उद्योगपतियों द्वारा किसानों की जमीन हथियाने की बात की गई तो कभी सरकार द्वारा भविष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को हटा देने के तथाकथित आशंकाओं की। कभी यह कहा गया कि सरकार की नीतियाँ उद्योगपति तय कर रहे हैं तो कभी यह कहा गया कि सरकार देश बेच रही है। मतलब आधारहीन बातों और बयानों का एक ऐसा चक्र जिनके शोर में तर्क वगैरह के लिए स्थान नहीं बचता। ये ऐसी बातें हैं, जो आम भारतीयों के मन में भी किसान संगठनों और उनके समर्थक राजनीतिक दलों की मंशा को लेकर शक पैदा करती हैं।
शरद पवार के अचानक ऐसे दिए गए बयान के पीछे क्या कारण हो सकता है? यह ऐसा प्रश्न है जिसे लेकर केवल अनुमान लगाए जा सकते हैं। अपने मित्र राजनीतिक दलों की तरह पवार भी अभी तक कृषि कानूनों को पूरी तरह से रद्द किए जाने के पक्षधर थे। चूँकि वे दस वर्षों तक केंद्र सरकार के कृषि मंत्री भी रह चुके हैं और महाराष्ट्र में उन्हें किसानों का नेता भी माना जाता रहा है, इसलिए उनका अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार निश्चित तौर पर आश्चर्यचकित करता है।
किसान आंदोलन और लगातार हो रहे विरोध के बीच ही एक महत्वपूर्ण बात यह रही कि उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे बड़े राज्यों में किसानों के उत्पाद खरीदने की प्रक्रिया को सरकार ने और सरल कर दिया। किसानों के उत्पाद का मूल्य बिना किसी बिचौलिए के उनके अकाउंट में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर मैकेनिज्म के सहारे हो गया। साथ ही इस वर्ष कुछ उत्पादों का मूल्य न केवल पहले की अपेक्षा अधिक मिला, बल्कि उत्पादों की रिकॉर्ड खरीद भी हुई। ऐसे में एक प्रश्न यह उठता है कि सरकार की ओर से किए जाने वाले प्रयासों और उनसे होने वाले संभावित बदलाव को क्या अनुभवी शरद पवार बाकी राजनेताओं से पहले पहचान रहे हैं? देखा जाए तो चल रहे किसान आंदोलन को देश के बाकी राज्यों के किसानों का समर्थन मिलता दिखाई नहीं दे रहा है और शायद शरद पवार इस बात का प्रभाव समझ रहे हैं।
इसके अलावा, महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले करीब चार महीनों से हलचल देखी जा रही थी जिससे लग रहा था कि सब कुछ ठीक नहीं है। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की प्रधानमंत्री के साथ हाल में हुई मुलाकात ने हलचल और तेज कर दी है। शिवसेना और भाजपा के बीच फिर से नजदीकियों के अनुमान लग ही रहे थे कि पवार ने यह बयान दे दिया। इससे लग रहे कयासों में एक और कयास जुड़ गया कि कहीं पवार खुद ठाकरे का कोई खेल तो बिगाड़ना नहीं चाहते? उधर एनसीपी के नेताओं के खिलाफ केंद्रीय जाँच एजेंसियों की कार्रवाई हाल के दिनों में तेज होती दिखाई दी है। राज्य के पूर्व गृहमंत्री अनिल देशमुख के साथ-साथ अजीत पवार पर भी प्रवर्तन निदेशालय सख्त दिखाई दे रहा है। ऐसे में यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि पवार साहब के बयान के पीछे इन घटनाओं की भूमिका भी हो सकती है।
उधर पवार की प्रशांत किशोर से मुलाकात और एक तीसरा फ्रंट गढ़ने की कोशिशों से कॉन्ग्रेस खुश नहीं दिखाई देती। राहुल गाँधी के साथी नेताओं ने इस बैठक के खिलाफ बयान भी दिए। साथ ही इस विषय पर कॉन्ग्रेस हाई कमान की चुप्पी और पार्टी की महाराष्ट्र इकाई के नेताओं के समय-समय पर आये बयानों से लगता है कि महा विकास अगाड़ी के घटक दलों के बीच कुछ भी ठीक नहीं है। ऐसे में कृषि कानूनों पर पवार के नए बयान को लेकर अनुमान चाहे जो लगें, पर महत्वपूर्ण बात यह है कि किसानों के समर्थक राजनीतिक दलों में सबसे वरिष्ठ नेता ने अपने बयान से विपक्षी राजनीतिक दलों और किसान संगठनों के एकतरफा दृष्टिकोण में दरार डाल दी है कि कृषि कानूनों को रद्द करना ही एकमात्र रास्ता है।