क्या कोई बंगाली बंगाल से जुदा हो सकता है भला! मेरी समझ से शायद नहीं। पैसे और पेट की खातिर चले आप जहाँ जाओ, दिलो-दिमाग से बंगाल को कैसे काट पाओगे यार! मेरी नियति भी कुछ ऐसी ही है। मैं सिर्फ पैदाइश से बंगाली हूँ। परवरिश से झारखंडी। बंगाल का न तो वोटर आईडी मेरे पास है और न ही कोई स्थायी पता। लेकिन यार-दोस्तों के साथ चाय सुड़कते हुए या सुट्टा मारते हुए, जितनी समझ के साथ मैं झारखंड की राजनीति पर चर्चा कर लेता हूँ, बंगाल की राजनीति पर उससे कम ज्ञान दे पाऊँगा, ऐसा नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि मैं बंगाली हूँ 🙂
किशोरावस्था तक शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब साल में 2-3 बार सेरामपोर जाने के लिए महीनों प्लानिंग न की हो। करता भी क्यों नहीं! यही वो जगह थी जहाँ न किताबों का बोझ होता था, न टीचर की किच-किच। यहीं अपने घर में मैं बेफिक्र खेलता था और नानी घर में पाता था असीम प्यार। मतलब मेरा पैतृक घर और नानी घर इसी सेरामपोर में है और आस-पास ही है। गर्मी और दुर्गा पूजा की छुट्टियों में दादाजी के साथ और कभी-कभार पापा के साथ जब भी टाटा से यहाँ जाता, कलकत्ता (तब कलकत्ता ही था) होकर जाता। ये जो यात्रा होती थी, ये बड़ी रंगीन होती थी। और मैं रंगों की दुनिया में खो जाता था।
…वो लाल रंग
बस हो या ट्रेन, जहाँ से मुझे लाल रंग दिखने लगते थे, मेरे उत्साह बढ़ता जाता था। किलोमीटर या दूरी का ज्ञान तो नहीं था लेकिन हर गुजरते घरों के ऊपर लहराते लाल झंडे मुझे यह अहसास कराते थे कि अब घर नजदीक है। एक बात और! टाटा वाले दादाजी और यहाँ वाले दादाजी अचानक से बदल जाते थे। झुर्री चढ़ी अपने हाथों को जोड़कर सबको प्रणाम बोलने वाले दादाजी अचानक से सबको लाल सलाम बोलने लग जाते थे। मुझे बहुत हैरानी होती थी लेकिन हद से ज्यादा प्यारे होने के बावजूद मैंने कभी उनसे इसका कारण नहीं पूछा। पता है क्यों? क्योंकि मैं भी उनके साथ जब लाल सलाम बोलता था तो मुझे बदले में सब लोग प्यार से देखते थे, सिर पर हाथ फेरते थे।
मेरी तरह और भी कई बच्चे छुट्टियों में घर आते थे। सब के साथ धमाचौकड़ी मचाता था। लेकिन चचेरे भैया (बहुत बड़े, कॉलेज जाते थे) मेरे बेस्ट फ्रेंड थे। कारण था उनकी साइकल। वो अपनी साइकल चलाने भी देते थे और घूमाने भी ले जाते थे। हर शाम वो कॉलेज के पास जाते थे एक चाय की दुकान पर। वहाँ उनके दोस्त भी आते थे, सब लोग देर तक गप्पें मारते थे। मैं बिसकुट-लेमनचूस खाने में लगा रहता था। लेकिन जैसे ही कोई लाल सलाम बोलता था, कान खड़े हो जाते थे। पता नहीं क्यों लेकिन मुट्ठी भींच कर लाल सलाम बोलने से मैं प्यार करने लगा था।
हर हर बासु, घर घर बासु
नहीं यह नारा नहीं था। लेकिन 7वीं-8वीं आते-आते जब अखबार पढ़ने लगा, खबरें समझने लगा तब सेरामपोर जाने और लाल सलाम करने के अलावा जो एक चीज मुझे समझ आई, वो था – ज्योति बासु। हर गली, हर नुक्कड़, चाय की दुकान या कॉलेज का कैम्पस – ज्योति बासु से शुरू हुआ गप्प ज्योति बासु पर ही खत्म होता था – भले ही बहस और तेज आवाज में क्यों नहीं। और हाँ, अंत में लाल सलाम तो होता ही था।
बंगाल तब ज्योति बासु को चुनता नहीं था, प्यार करता था। फिर एक दिन पता चला कि (शायद 9वीं में था मैं तब) कोई बुद्धदेब हैं, जो ज्योति बासु की कुर्सी पर बैठे हैं। आप यकीन मानिए, इसके बाद मैं जब-जब सेरामपोर गया, तब-तब लाल सलाम की गूंज तो फिर भी कानों तक आ ही जाती थी, ज्योति बासु या बुद्धदेब जैसा नाम कभी सुनने को नहीं मिला। पब्लिक का प्यार फ्रस्टेशन में बदल चुका था। लोग अब गप्प नहीं करते थे। हमेशा बहस करते थे। बहस में खुद को, सिस्टम को और राजनीति को सिर्फ कोसते थे। शायद लोगों का मोहभंग हो चुका था, लेकिन मेरा नहीं। मैं तब भी सेरामपोर को उतना ही प्यार करता था, जितना पहले और जितना अब करता हूँ।
बदले झंडे, बदला नारा
स्कूल की पढ़ाई खत्म करके मैं अब दिल्ली यूनिवर्सिटी का स्टूडेंट हो चुका था। दिल्ली में रहने का अपना फायदा है। फायदा मतलब आजादी है – खाने-पीने से लेकर, सोचने-समझने और राजनीति बाँचने तक की। माँ-बाप की आँखों से दूर होकर ‘स्वतंत्र’ घूमने की आजादी। ऐसे में जब-जब यूनिवर्सिटी की छुट्टियाँ होती थीं, टाटा के साथ-साथ मैं तब सेरामपोर भी जाता था लेकिन अपनी सोच-समझ के साथ। अब लाल सलाम और लाल रंग के झंडे वाला बचपन छूट गया था। गप्प हो या बहस, अब बातों को अपनी समझ के अनुसार पकड़ने लगा था। साथ ही यह भी समझ गया था कि वामपंथ की राजनीति को ममता बनर्जी जैसी जिद्दी और जीवट की पक्की महिला सिंगूर के रास्ते बंगाल से निकाल फेंकेगी। घरों पर बदले झंडे इसकी गवाही भी देने लगे थे। लोगों की बातचीत और बहस से साफ था कि वे ममता में अपना मसीहा खोज लिए थे। उन्हें विश्वास हो चला था कि बंगाल को अगर कोई फिर से आर्थिक और सांस्कृतिक ऊँचाई तक ले जा सकती है तो वो सिर्फ और सिर्फ दीदी ही है, ममता ही है।
लाल सलाम की मिट्टी खिसक रही थी। और माँ-माटी-मानुष अपनी जड़ें जमा चुकी थी। यह सब तब हो रहा था जब मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी से निकल कर एमबीए करने गया और फिर नौकरी करने लगा। आप कह सकते हैं कि किस्मत का धनी रहा हूँ मैं। नौकरी लगी भी तो कहाँ – टाटा में, मतलब बंगाल के बगल में। मतलब बंगाली राजनीति में न सही, एक बार फिर उसके एकदम करीब आ गया मैं। ममता के आप आलोचक हों या समर्थक, सत्ता की शुरुआत में उन्होंने राज्य की मूलभूत संरचनाओं पर काम किया, इससे इनकार नहीं कर सकते। सड़कें, अस्पताल, स्कूल ये सब ममता राज में बने या बेहतर किए गए।
सत्ता, ममता और निर्ममता
बंगाल की खबरें टाटा तक पूरबइया हवा के एक झोंके भर में आ जाती है। ममता दीदी सब कुछ ठीक चला रही थीं। लेकिन इसी बीच उन्हें न जाने कहाँ से यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ कि सरकार चलाना और सत्ता में बने रहना दो अलग-अलग बातें हैं। और यह ज्ञान इन्हें तब प्राप्त हुआ जब दूसरी बार इन्हें बंगाल की सत्ता चाहिए थी। फिर क्या था! इन्होंने वो-वो किया जो लाल सलाम वाले करते थे। इन्होंने वो-वो भी किया, जो लाल सलाम वाले नहीं कर पाए थे। मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति – चरम पर। इतनी ज्यादा कि हिन्दुओं को बंगाल में डर लगने लगा। आँकड़े आप खुद गुगल कर लीजिए – 50 से ज्यादा दंगे सिर्फ ममता काल में हुए हैं। शुरुआती दौर की सड़कें, अस्पताल, स्कूल के अलावा इन्होंने कोई और काम नहीं किया – सिवाय राजनीति के। जिन प्रमुख कामों के लिए बंगाल के वोटरों ने ममता दीदी को जिताया था, मसलन नौकरी, विकास और अर्थव्यवस्था – उन पर बंगाल में अभी तक ग्रहण लगा हुआ है।
सेकुलर का चोला ओढ़ने के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण तक शायद सही होता… वो भी शायद! लेकिन ममता ने एक कदम आगे बढ़कर जो किया, वो आत्मघाती हुआ। बताता हूँ कैसे। मेरी कहानी की शुरुआत में दुर्गा पूजा का जिक्र है। वो इसलिए क्योंकि बंगाली की कहानी में दुर्गा पूजा नहीं हो, यह संभव नहीं। क्योंकि साल की शुरुआत में जब नया कैलेण्डर आता है तो हर बंगाली के यहाँ सबसे पहले दुर्गा पूजा की तारीख देखी जाती है। अगर आप गैर-बंगाली हैं, तो इसे आप अघोषित कानून मान सकते हैं। ऐसे जुनूनी समुदाय के लिए ममता ने माँ दुर्गा के विसर्जन की तारीख सिर्फ इसलिए एक दिन आगे बढ़वा दी क्योंकि मुहर्रम पर समुदाय विशेष को दिक्कत न हो। बंगाल के लिए, बंगाल की जनता के लिए यह बात सोच से परे थी। फिर से पढ़िए – बंगाल के लिए, बंगाल की जनता के लिए यह बात सोच से परे थी। यही वो मामला (इसे आप धार्मिक कह लें या सांस्कृतिक) था जिसने बंगाल की रगों में ममता के विरुद्ध सोच पनपने की जमीन तैयार की।
ममता से बड़ी जनता
बंगाल के हिंदू नाराज हों, ममता ने ऐसे काम बार-बार किए। बंगाल के हिंदुओं में डर और खौफ पैदा हो, ममता ने ऐसे काम बार-बार किए। जिस बंगाली समाज ने लाल सलाम को लात मार माँ-माटी-मानुष के लिए सत्ता का द्वार खोला था, वो छला हुआ महसूस कर रहा था। इसी समय अपनी विचारधारा पर प्रहार (दुर्गा पूजा, मुस्लिम तुष्टिकरण) होते देख आरएसएस और बीजेपी दोनों ही बंगाल में अपने पैर पसारने की ओर अग्रसर थे। छले हुए बंगाली समाज को इनमें एक उम्मीद दिखी। उम्मीद जो कभी इसी धरती के लाल श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने देखी थी।
बंगाल की जनता आज सेक्युलरिज्म की परिभाषा जान भी गई है और इसकी खाल में छिपे भेड़ियों को पहचान भी गई है। उन्हें बंगाल में नौकरी चाहिए, आर्थिक उन्नति चाहिए। उन्हें यह भी पता है कि बंगाल को क्या नहीं चाहिए – झूठे वादे, डर का माहौल। ममता को बंगाल की जनता ने दिखा दिया कि वो भले तानाशाही पर उतर आईं लेकिन जनता आज भी उनसे बड़ी है और आने वाले समय में भी रहेगी। बंगाल में भगवा आया नहीं है, यह लाया गया है। और इसका पूरा श्रेय ममता बनर्जी को जाता है।
लेखक: सायन घटक, फिलहाल HDFC में मैनेजर हैं।