Wednesday, July 3, 2024
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ममता बनर्जी के MLA के सीने में धधक रहा जो ‘मुस्लिम राष्ट्र’, वही हर ताजेमुल को तालिबानी बनाता है… मोपला से लेकर चोपरा तक वही कहानी

ये वही बंगाल है जिसका विभाजन ही मजहबी हिंसा की नींव पर हुआ था। 1946 के 'ग्रेट कलकत्ता किलिंग' में 10,000 से अधिक हिन्दुओं को मौत के मुँह में भेज दिया गया था। उस समय भी दंगाइयों को 'मुस्लिम लीग' के मुख्यमंत्री हुसैन सुहरावर्दी का समर्थन प्राप्त था।

पश्चिम बंगाल के उत्तरी दिनाजपुर स्थित चोपरा में एक महिला और एक पुरुष की सरेआम पिटाई की गई। वहाँ एक बड़ी भीड़ जमा दी, जब ‘त्वरित न्याय’ हो रहा था तब चारों तरफ से देख रही भीड़ इसके मजे ले रही थी। ताजेमुल नाम का ‘न्यायाधीश’ हाथ में डंडा लेकर ‘न्याय’ कर रहा था। वीडियो वायरल होने के बाद देश भर में इसकी कितनी भी निंदा हुई हो, स्थानीय TMC विधायक हमीदुल रहमान ने ‘इस्लामी मुल्क के अचार-विचार’ का हवाला देते हुए इस घटना का बचाव किया और पीड़िता को ही ‘दुष्ट जानवर’ बता दिया।

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल CV आनंद बोस ने इस मामले पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से रिपोर्ट तलब की है। उन्होने इसे एक बर्बर घटना करार दिया है। हिम्मत देखिए कि सत्ताधारी दल के विधायक को इस तक का भरोसा था कि उक्त महिला या उसके परिजन इस मामले में पुलिस तक नहीं जाएँगे, उन्होंने कह दिया कि सिर्फ मीडिया हल्ला मचा रहा है। इसका अर्थ है कि शरिया के अंतर्गत होने वाले इस न्याय से पीड़ित भी ‘संतुष्ट’ हैं, इसमें प्रशासन-न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

शरिया के सामने सरकार-कानून की कोई हैसियत नहीं

इसका दूसरा मतलब ये भी समझिए कि शरिया के कारण सब कोई खौफ में रहें और मुस्लिमों के लिए भारत सरकार, यहाँ की पुलिस या अदालतें सब ‘बाहरी ताकतें’ हैं। ताजेमुल पहले भी इस तरह के ‘न्याय’ कर चुका है। वीडियो में देखा जा सकता है कि उसने हाथ में बाँस से बनी छड़ी ले रखी है। उक्त महिला और पुरुष प्रेम संबंध में थे, इसीलिए उन्हें ये ‘सज़ा’ दी गई। ताजेमुल हक़ को गिरफ्तार कर के इस्लामपुर में ACJM की अदालत में पेश किया गया।

सचमुच पीड़िता की तरफ से कोई मामला नहीं दर्ज कराया गया, वीडियो देश भर में वायरल होने के बाद पुलिस ने ही स्वतः संज्ञान लेते हुए FIR दर्ज की। वैसे भी चुनावी हिंसा से पीड़ित भाजपा कार्यकर्ताओं की शिकायतों के साथ पुलिस क्या करती है, ये सबको पता है। उल्टे पीड़ित कार्यकर्ताओं को डराया-धमकाया जाता है, अतः उन्हें पलायन को मजबूर होना पड़ता है। ऐसे में पश्चिम बंगाल में इस्लामी ताकतों के खिलाफ FIR दर्ज कराने वालों को छोड़ दिया जाता, ये शायद ही संभव हो।

भाजपा भी कह रही है कि जंगलराज कैसा होता है, ये हम पश्चिम बंगाल में देख सकते हैं। पार्टी का कहना है कि ताजेमुल हक़ उर्फ़ JCB संविधान को टुकड़े-टुकड़े कर रहा है। ऐसे समय में जब कॉन्ग्रेस और I.N.D.I. गठबंधन ने पूरा का पूरा चुनाव ही संविधान बचाने के नाम पर लड़ा हो, पश्चिम बंगाल में भारत के कानून को धता बता कर शरिया के तहत ‘सज़ा’ दिए जाने वाली घटना पर विपक्षी नेताओं की चुप्पी समझ में आती है। अगर वो कुछ बोलेंगे तो पता चल जाएगा कि कौन संविधान बदल रहा है।

सीरिया से लेकर तमिलनाडु तक, शरिया से शासन नई बात नहीं

ऐसा नहीं है कि शरिया अदालतों के उदाहरण हमारे पास नहीं हैं। हमने सीरिया में ISIS को देखा है कि वो कैसे अमेरिकी बंदियों को घुटने के बल बिठा कर उनका गला काट डालते हैं। हमने अफगानिस्तान में तालिबानियों को देखा है कि कैसे वो महिलाओं पर सरेआम कोड़े बरसाते हैं। हमने पाकिस्तान में देखा है कि कैसे ईशनिंदा के नाम पर किसी शख्स को ज़िंदा जला दिया जाता है। हमने बांग्लादेश में देखा है कैसे दुर्गा पूजा के पंडालों को ध्वस्त करते हुए भीड़ ‘काफिरों को सज़ा’ देने के लिए निकल पड़ती है।

और विदेश से उदाहरण क्यों लें? संविधान तो हमारे देश में भी बदला जा रहा है, शरिया चल रही है बहुत जगह। तमिलनाडु के तिरुचिरपल्ली स्थित श्रीरंगम के तिरुचेंदुराई में तो पूरे के पूरे गाँव पर ही वक्फ बोर्ड ने दावा कर दिया। गाँव में मंदिर भी था, उसको भी वो अपनी संपत्ति बताने लगे। कावेरी नदी के तट पर स्थित 1500 वर्ष पुराना सुंदरेश्वर मंदिर भी उनका हो गया, जिनका मजहब ही उतना पुराना नहीं है। सोचिए, कानून का ये लोग किस तरह दुरूपयोग करते हैं।

एक हिन्दू बेचारा जब अपनी जमीन बेचने चला तो प्रशासन से उसे एक नई बात पता चली – उसकी पूरी की पूरी 1.20 एकड़ जमीन वक्फ बोर्ड की है। उसे 20 पन्नों का दस्तावेज थमा दिया गया। तमिलनाडु का ही एक और उदाहरण लीजिए। पेरम्बलूर स्थित V कलाथुर गाँव में मुस्लिमों ने ‘अपने एरिया’ में हिन्दू शोभा यात्राओं पर ही प्रतिबंध लगा दिया। जहाँ वो बस गए, वो ‘उनका इलाका’ हो गया। वर्षों से ये वार्षिक त्योहार चला आ रहा था, लेकिन 2012 से मुस्लिमों को इससे आपत्ति हो गई और इसे बंद करा दिया गया।

मद्रास हाईकोर्ट को कहना पड़ा कि किसी खास क्षेत्र में कोई खास मजहब बहुलता में है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि दूसरे धर्मों को अपना त्योहार न बनाने दिया जाए या शोभा यात्रा न निकालने दिया जाए। उच्च न्यायालय को धार्मिक असहिष्णुता की बात करनी पड़ी। क्या आपने कभी ये खबर सुना है कि किसी हिन्दू बहुल इलाके में ईद, गुरुपर्व या क्रिसमस मनाने से रोका गया हो? आखिर एक ही वर्ग को बार-बार सहिष्णुता का पाठ क्यों पढ़ाना पड़ता है, जब नैरेटिव बनाया जाता है एकदम इसका उलटा।

इतिहास में भी शरिया के कारण हुआ हिन्दुओं का नरसंहार

ऐसा आज से नहीं हो रहा है भारत में भी, यानी ये कोई नई बात नहीं है। आपको केरल में मोपला मुस्लिमों द्वारा बड़े पैमाने पर हिन्दुओं के नरसंहार वाला इतिहास पता होगा। ये हिन्दू समृद्ध थे, लेकिन उनका कत्लेआम हुआ, उनकी बहन-बेटियों का बलात्कार हुआ। उस दौरान केरल में ‘खिलाफत आंदोलन’ का एक नेता था वरियाकुन्नथ कुंजाहम्मद हाजी नाम का, जिसे स्वतंत्रता संग्राम का नायक बता कर पेश किया गया। जबकि वो शरिया कोर्ट चलाता था, कई गाँवों में इस्लामी नियम-कानून चलाता था।

यानी मोपला से लेकर चोपरा, तक – सोच वही है, समूह वही है और परिणाम वही हैं। ये वही पश्चिम बंगाल हैं, जहाँ की लगभग एक तिहाई जनसंख्या मुस्लिम हो चुकी है। ये वही पश्चिम बंगाल है, जहाँ बांग्लादेश और म्यांमार से बड़ी संख्या में घुसपैठिए लेकर बसाए जा रहे हैं। ये वही पश्चिम बंगाल है, जहाँ एक महिला विदेशी घुसपैठिया होने के बावजूद सरपंच बन जाती है। ये वही पश्चिम बंगाल है, जहाँ की सरकार पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगते हैं।

ज़्यादा पीछे न जाएँ तो ये वही पश्चिम बंगाल है जहाँ बसीरहाट के संदेशखाली में शाहजहाँ शेख नाम का सत्ताधारी पार्टी का गुंडा अपने गुर्गों के साथ जनजातीय समाज की महिलाओं का यौन शोषण करता था। ये सब TMC के दफ्तर में किया जाता था। शाहजहाँ शेख का नाम राशन घोटाले में भी आया था, उसे गिरफ्तार करने गई ED टीम पर ही हमला कर के उसे भगा दिया गया। यही तो है ‘शरिया अदालत’, जहाँ पुलिस-प्रशासन या जाँच एजेंसियों का कोई काम नहीं।

और ज़्यादा पीछे भी चल ही लेते हैं। ये वही बंगाल है जिसका विभाजन ही मजहबी हिंसा की नींव पर हुआ था। 1946 के ‘ग्रेट कलकत्ता किलिंग’ में 10,000 से अधिक हिन्दुओं को मौत के मुँह में भेज दिया गया था। उस समय भी दंगाइयों को ‘मुस्लिम लीग’ के मुख्यमंत्री हुसैन सुहरावर्दी का समर्थन प्राप्त था। चूँकि तब बंगाल में 54% मुस्लिम थे और 44% हिन्दू, बहुमत में आकर वो क्यों भला अपना अलग मुल्क न बनाएँ, ये तो उनके खून में है। मार-काट कर उन्होंने अपना एक अलग मुल्क ले लिया।

16-19 अगस्त, 1946 के ये दिन कलकत्ता के लिए कत्ल के दिन थे। 16 अगस्त को ही ‘मुस्लिम लीग’ ने पाकिस्तान के गठन के लिए ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का ऐलान किया था। सुहरावर्दी पर आरोप लगा कि लालबाजार पुलिस थाने में जाकर उसने खुद ये सुनिश्चित किया कि दंगाइयों पर कार्रवाई न हो, पुलिस भी हिन्दुओं के खिलाफ हो। गोपाल पाठा जैसे वीर अगर उस वक्त इन दंगों के खिलाफ खड़े न होते और हिन्दुओं को प्रेरित न करते तो शायद आज बंगाल हिन्दूविहीन हो जाता।

माँ काली की भूमि को संतों ने सींचा, आज रामनवमी मनाना भी दूभर

थोड़ा और पीछे चलें, ताकि हम समझें कि पश्चिम बंगाल क्या से क्या हो गया। माँ काली की ये वही भूमि है जहाँ रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकाकंद का जन्म हुआ। ये वही भूमि है जहाँ 16वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु जैसे महान कृष्णभक्त का जन्म हुआ। श्री अरविन्द ने अपने हिन्दू दर्शन से जिस भूमि को समृद्ध किया, लाहिरी महाशय के चमत्कारों की चर्चा जहाँ गूँजी, जहाँ हरिचंद ठाकुर ने भेदभाव मिटाया, जहाँ स्वामी प्रणवानन्द जैसे योगी की कर्मभूमि रही।

आज स्थिति अलग है। घुसपैठ और हिंसा के लिए कुख्यात पश्चिम बंगाल में आज रामनवमी जैसा त्योहार शांति से नहीं मनाया जा सकता। 2018 में रानीगंज, 2019 में आसनसोल, 2022 में शिवपुर और 2023 में हावड़ा के अलावा इस साल शक्तिपुर क्षेत्र में दंगे हुए। यानी, हिन्दू अपना त्योहार तक ठीक से नहीं बना सकते। शायद पश्चिम बंगाल में स्थिति अभी और भयंकर होने वाली है। हमीदुल रहमान जैसे लोग सत्ता में रहे तो कई ताजेमुल पैदा हो जाएँगे।

और भारत में जहाँ संविधान है, कानून है, यहाँ की पुलिस है, केंद्र-राज्य की सरकारें हैं और न्यायपालिका है – लेकिन इन सबके बावजूद वहाँ के विधायक बात करते हैं ‘इस्लामी मुल्क के अचार-विचार’ की बात करते हैं तो ये सवाल पूछा ही जाएगा कि क्या पश्चिम बंगाल इस्लामी मुल्क है? या फिर सत्ता में बैठे मुस्लिम ही एक और विभाजन का सपना देख रहे हैं। हर जगह इनकी सोच वही है, शिक्षा या सामाजिकता से ये बदलने वाली नहीं है – ये साबित हो चुका है।

आतंकियों में डॉक्टर-इंजीनियर का पकड़ा जाना इसका उदाहरण है कि शिक्षा से इस्लामी सोच नहीं बदल सकती। जब संसद में शपथग्रहण के दौरान असदुद्दीन ओवैसी जैसे 5वीं बार सांसद चुने जाने के बावजूद ‘जय फिलिस्तीन’ कहते हैं तो हमें खिलाफत की बरबस ही याद आ जाती है। तुर्की में कौन खलीफा बैठे, इसका भारत से कोई लेना-देना नहीं था लेकिन इसके बावजूद खून हिन्दुओं का बहाया गया। इस सोच से लड़ने की रणनीति क्या है, इसमें हर तरफ कन्फ्यूजन ही है, सैकड़ों वर्षों से यही संशय का माहौल हमारी भूमि को खंडित करता रहा है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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