गुरुवार (29 अप्रैल) को आठवें चरण के मतदान के साथ ही पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2021 का समापन हो गया। इस राज्य के इतिहास के सबसे बहुचर्चित चुनावों में से एक में सबकी नजरें इस बात पर टिकी हुई हैं कि क्या राज्य में सत्ता परिवर्तन और बीजेपी की ऐतिहासिक जीत के साथ एक नए युग का सूत्रपात होगा या तृणमूल कॉन्ग्रेस लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी करते हुए हैट-ट्रिक पूरी कर लेगी।
हिंसा प्रभावित आठ चरणों के मतदान के मैराथन दौर के पूरा होने के बाद सबको 2 मई की उस तारीख का इंतजार है, जो न केवल भारत के इस पूर्वी राज्य बल्कि भारतीय राजनीति की दिशा और दशा को बदलने वाली तारीख साबित हो सकती है। भले ही पश्चिम बंगाल जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जन्म भूमि रहा हो लेकिन मजह कुछ सालों पहले तक भारतीय जनता पार्टी के लिए ये अपने ही देश में किसी पराई जगह से कम नहीं था।
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लेकिन 2014 में केंद्र की सत्ता में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की जोरदार जीत ने इस राज्य में भी पार्टी के लिए बदलाव की नई बहार बहाना शुरू कर दिया था। 2016 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 10 फीसदी वोट के साथ 3 सीटें मिली थीं और ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कॉन्ग्रेस ने करीब 45 फीसदी वोटों के साथ 294 में से 211 सीटों पर कब्जा जमाते हुए 2011 के चुनावों (टीएमसी-184 सीट) से भी बड़ी जीत दर्ज की थी। लेकिन महज तीन साल बाद 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने 40 फीसदी वोटों के साथ 42 में से 18 सीटों पर कब्जा जमाते हुए पहली बार उस राज्य में अपनी मौजूदगी का अहसास करा दिया था, जहां कुछ सालों पहले तक किसी भी चुनाव से पहले शायद ही कोई उसकी जीत पर दाँव लगाता था।
सवाल ये है कि अगर पिछले कुछ सालों के दौरान बंगाल में बीजेपी के लिए माहौल और इतना जबर्दस्त माहौल बना है तो क्या उसके लिए नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता या फिर अमित शाह की कारगार रणनीति ही जिम्मेदार है? इसमें कोई शक नहीं है कि बीजेपी को ‘बंगाली भद्रलोक’ वाले इस राज्य में मिल रही इतनी बड़ी कामयाबी के पीछे इन दो दिग्गजों का बड़ा हाथ रहा है। पर बीजेपी को राज्य में मिल रही कामयाबी के पीछे एक और बड़ी वजह रही है और वह है, तृणमूल कॉन्ग्रेस और ममता बनर्जी खुद।
#BREAKING | Projections for West Bengal are out: BJP leads with 138-148 seats, vs TMC at 128-138 seats as per the #RepublicCNXExitPoll
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याद कीजिए 2011 का वह दौर, जब ममता बनर्जी ने वाम मोर्चा के 34 साल के शासन को खत्म करते हुए तृणमूल कॉन्ग्रेस की जीत से एक नई इबारत लिखी थी। उनकी जीत को बंगाल में ‘परिवर्तन’ की उम्मीद के तौर पर देखा गया था। उम्मीद थी कि ममता बनर्जी के नेतृत्व में राज्य राजनीतिक हिंसा के उस रक्तरंजित दौर को पीछे छोड़ देगा, जो 34 साल के लेफ्ट शासन काल में उसके लिए एक स्याह सच बन गई थी। उम्मीद थी कि कभी पूर्व का मैनेचेस्टर कहलाने वाला राज्य औद्योगिक विकास के मामले में नई ऊँचाइयाँ छुएगा?
लेकिन ममता की उस ऐतिहासिक जीत के एक दशक बाद आज जब बंगाल का युवा इस राज्य की ओर देखता है तो उसे राजनीतिक हिंसा का दौर वाम मोर्चा से भी बदतर हालात में नजर आता है। टीएमसी की धुव्रीकरण की राजनीति में हिंदू युवा खुद को उपेक्षित सा महसूस करता है। कमाई के लिए अपना घर-बार छोड़कर दूसरे राज्यों की ओर पलायन करने वाले युवा ममता और टीएमसी से पूछना चाहते हैं कि उनके उन वादों का क्या हुआ जिसमें वो कभी ‘कोलकाता को लंदन बनाने का ख्वाब’ दिखाया करती थीं, वो पूछना चाहता है कि क्या शहर की सड़कों को लाइटों से सजा देने से या कुछ चमकदार फव्वारे लगा देने से ये लंदन बन गया? या फिर राज्य का ये सबसे विकसित शहर भारत के अन्य मेट्रो सिटी की तुलना में सबसे आगे हो गया?
कभी वाम मोर्चा के शासन को बंगाल के लिए काला अध्याय बताने वाली ममता बनर्जी के पिछले एक दशक के शासनकाल के दौरान वह भी खुद उसी राह पर चलती नजर आई हैं। बंगाल के आम जनों में एक कहावत बहुत चर्चित है कि ‘कल की लेफ्ट आज की टीएमसी बन गई’ है। यानी जो अराजक तत्व कल तक वाम मोर्चा के साथ थे वे अब अपनी टोपी का रंग बदलकर ममता की पार्टी के साथ आ खड़े हुए हैं।
बंगाल में अगर बीजेपी का उभार हुआ है तो इसके लिए बहुत हद तक ममता बनर्जी और टीएमसी खुद भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने जनता द्वारा दिखाए गए भरोसे को बार-बार छला है। नारद, सारदा जैसे घोटाले हों या मुस्लिम तुष्टिकरण, ममता बनर्जी अपने एक दशक के शासनकाल में बहुसंख्यक आबादी की उम्मीदों पर कभी भी खरी उतरती नजर नहीं आई हैं। चुनाव के ठीक पहले मंदिरों के लिए दौड़ लगाकर वह अपनी एक दशक की गलतियों को झुठलाना चाहती हैं, पर सवाल ये है कि क्या बंगाल की जनता उन्हें माफ करने के मूड में है? एग्जिट पोल के हिसाब से तो नहीं… बाकी 2 मई को नतीजा सबके सामने होगा।