सीबीआई ने आज (17 मई 2021) नारदा स्कैम में चार नेताओं को गिरफ्तार किया है। इनमें शामिल फिरहाद हाकिम और सुब्रत चटर्जी मौजूदा ममता बनर्जी सरकार के मंत्री हैं। मदन मित्रा सत्ताधारी तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) के विधायक हैं, जबकि सोवन चटर्जी कोलकाता के मेयर रह चुके हैं।
विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने सीबीआई को इनके खिलाफ नारदा स्टिंग ऑपरेशन मामले में अभियुक्त बनाने की अनुमति दी थी। यह गिरफ़्तारी तब हुई है जब चुनावों के बाद राज्य में हो रही भीषण हिंसा के बीच यह अनुमान लगाया जा रहा था कि राज्यपाल द्वारा दी गई अनुमति का क्या होगा।
इन गिरफ्तारियों के साथ ही केंद्र और राज्य सरकार के बीच सम्बंधों में एक नए अध्याय की शुरुआत हो गई है। दलों के रूप में भाजपा और तृणमूल कान्ग्रेस के बीच सम्बंध चाहे जैसे रहे हों पर पिछले पाँच वर्षों में ममता सरकार और केंद्र सरकार के बीच सम्बंध अच्छे नहीं रहे हैं। यदि हाल के इतिहास को खँगाला जाए तो दोनों सरकारों के सम्बंध पिछले विधानसभा चुनावों तक इस तरह नहीं बिगड़े थे।
2016 के विधानसभा चुनाव में कुछ तैयारी पूरी न होने की वजह से और कुछ राज्य में संगटन की कमी की वजह से भाजपा ने तृणमूल का पूरी तरह से विरोध न करने का फैसला किया और यही कारण था कि तब राजनीतिक परिस्थिति दोनों दलों के बीच सीधे तनाव तक नहीं पहुँची थी। ममता बनर्जी का विरोध बीच-बीच में केंद्र और उसके नेतृत्व के बारे में भद्दी टिप्पणियों तक सीमित रहा था।
दोनों सरकारों के बीच सम्बंध बिगड़ने की शुरुआत नोटबंदी के बाद हुई जब ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध को अपनी ओर से एक नया आयाम दिया। नोटबंदी और प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध अपनी प्रतिक्रियाओं में ममता बनर्जी ने विरोध को एक अलग ही स्तर पर पहुँचा दिया। कोलकाता के साथ ही पश्चिम बंगाल के सभी शहरों में मोदी विरोधी नारों वाले बड़े-बड़े पोस्टर लगाए गए। इसके साथ ही मुख्यमंत्री बनर्जी ने यह माँग भी रखी कि भाजपा से किसी और को प्रधानमंत्री बना दिया जाए पर मोदी को किसी भी हालत में हटाया जाए।
अपनी इस इच्छा और माँग से लैस होकर वे दिल्ली पहुँची और अरविंद केजरीवाल के साथ मिलकर मोर्चा खोल दिया। कारण चाहे जो हो, केजरीवाल भी नरेंद्र मोदी से लगभग उतने ही नाराज़ थे जितनी ममता बनर्जी। विरोध के शुरुआती दिनों में ममता को शायद नीतीश कुमार से भी समर्थन की उम्मीद थी पर नीतीश कुमार नोटबंदी के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी के समर्थन में उतर गए और ममता बनर्जी का नीतीश कुमार के साथ मिलकर क्षेत्रीय विरोध की योजना केवल योजना धरी ही रह गई।
इसके साथ ही राज्य-केंद्र सम्बंधों में दरार बढ़ती गई। शारदा चिट फंड स्कैम में कोलकाता के पूर्व पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार की भूमिका को लेकर सीबीआई जाँच का विरोध कर रही ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया और राजनीतिक आचरण ने इन सम्बंधों को और खराब किया। इसी मामले में तृणमूल कान्ग्रेस के कई सांसदों के विरुद्ध सीबीआई ने चार्जशीट दाखिल किया और उनमें से कुछ की गिरफ़्तारी भी हुई। उसके बाद लगभग हर मुद्दे पर दोनों सरकारों के बीच तनाव रहा। नारदा केस में सीबीआई द्वारा अपने नेताओं की गिरफ्तारी के बाद टीएमसी एक बार फिर उसे रस्ते चलती दिख रही है।
इससे पहले हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों के दौरान दोनों दलों के नेताओं के बयानों की वजह से और प्रचार के दौरान भाजपा नेताओं पर तृणमूल कॉन्ग्रेस की ओर से हुए हमलों ने राज्य में राजनीतिक माहौल बिगाड़ने में प्रमुख भूमिका निभाई। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का इतिहास पुराना होने के बावजूद चुनाव परिणामों के बाद राज्य में हुई हिंसा का जो रूप दिखाई दिया वह पश्चिम बंगाल की राजनीति में पहले दिखाई नहीं दिया था। यही कारण था कि राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच पहले से बिगड़े सम्बंध और बिगड़ गए।
अब जबकि सीबीआई ने ममता बनर्जी के मंत्रियों को गिरफ्तार कर लिया है, पहले से ही बिगड़े इन सम्बंधों के और बिगड़ने की आशंका है। ममता बनर्जी और तृणमूल के समर्थकों की ओर से इन गिरफ्तारियों का विरोध शुरू हो चुका है। देखने वाली बात यह रहेगी यह मामला आगे किस दिशा में जाता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पहले राज्य के सत्ताधारी दल और फिर राज्य सरकार की भूमिका इस हिंसा में संविधान सम्मत नहीं रही है।
हिंसा पर कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा उठाए गए प्रश्नों पर ममता बनर्जी की सीधी प्रतिक्रिया कि ‘कोई हिंसा नहीं हुई’, लोकतांत्रिक मूल्यों में उनके और उनकी सरकार के विश्वास को उजागर करते हैं। इन गिरफ्तारियों के बाद शुरुआती प्रतिक्रियाएँ आगे जाकर कैसा रूप लेती हैं और सत्ताधारी दल की ओर से भविष्य में आने वाली प्रतिक्रिया राज्य में राजनीतिक माहौल को आकार प्रदान करेंगी।
राज्य सरकार और केंद्र के बीच लगातार बिगड़ रहे सम्बंधों के निकट भविष्य में सुधरने की आशा बहुत कम दिखाई दे रही है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है भविष्य में होनेवाले म्यूनिसिपल चुनाव। राज्य में म्यूनिसिपल चुनाव काफ़ी समय से नहीं हुए हैं। ऐसे में एक बार कोरोना पर काबू पा लिए जाने के बाद राजनीतिक दल इन चुनावों को कराने की माँग के साथ सड़कों या न्यायालयों में उतरेंगे। यह वह समय होगा जब राज्य में राजनीतिक तापमान फिर से चढ़ेगा और यह स्थिति तृणमूल कॉन्ग्रेस के लिए उपयुक्त नहीं रहेगी।
विधानसभा चुनावों में मिली हार को कुछ हद तक भुलाने के लिए लेफ़्ट और कॉन्ग्रेस फिर से चुनावी राजनीति में पूरी ताक़त के साथ उतरना चाहेंगे। ऐसा करना इन दलों के लिए इसलिए भी आवश्यक होगा क्योंकि राज्य में अस्तित्व बचाए रखने की लड़ाई लड़ने के अलावा इन दलों के पास कोई और चारा न होगा। ये परिस्थितियाँ भाजपा को एक मौका देंगी कि वह ताजा बने अपने संगठन को मज़बूती प्रदान करे और राज्य में अगली राजनीतिक लड़ाई के तैयार हो।
आने वाले समय में ममता बनर्जी और उनकी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी राज्य की अर्थव्यवस्था। राज्य ने पिछले कई वर्षों में अर्थव्यवस्था या उद्योग में निवेश नहीं देखा है। कृषि के क्षेत्र में भी सुधार या नए इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने को लेकर पिछले दस वर्षों में कोई नई पहल नहीं हुई है। रोजगार की समस्या बढ़ती गई है। इन सब के बीच ममता बनर्जी ने तीसरी बार सत्ता सँभाली है। इन बातों का उनके और उनकी सरकार के ऊपर जो दबाव रहेगा उसके बीच वे केंद्र से अपने टकराव को कहाँ तक जारी रख सकेंगी, यह बात उनके सरकार का राजनीतिक भविष्य तय करेगी।
ऐसे में यह समय ही बताएगा कि राज्य की राजनीति किस ओर जाती है पर आज अवश्य कहा जा सकता है कि फिलहाल ममता बनर्जी और उनकी सरकार के लिए रास्ते सीधे नहीं हैं।