Saturday, November 23, 2024
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जो थे ‘जननायक’ उसे लालू कहते थे ‘कपटी ठाकुर’, भारत रत्न मिलते ही बना लिया ‘गुरु’: जो आज बनते हैं सामाजिक न्याय के ‘मसीहा’ उन्हें मिला था ‘लंपट’ का तमगा

फिर आपातकाल लगा। इंदिरा गाँधी के तानाशाही वाले काल में उन्होंने नेपाल से ही आपातकाल विरोधी गतिविधियाँ चालू कीं। 1977 के लोकसभा चुनाव में कर्पूरी ठाकुर ने 'जनता पार्टी' के टिकट पर समस्तीपुर से बड़ी जीत दर्ज की। जून 1977 में वो फिर से बिहार के मुख्यमंत्री बने।

मोदी सरकार ने बिहार के दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को ‘भारत रत्न’ सम्मान दिए जाने की घोषणा की है। कर्पूरी ठाकुर को सामाजिक न्याय के लिए ‘जननायक’ कहा गया। वो बिहार में पहली गैर-कॉन्ग्रेसी सरकार के मुखिया थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बताया है कि उन्हें कभी कर्पूरी ठाकुर के साथ कार्य करने का मौका तो नहीं मिला, लेकिन उन्होंने भाजपा के दिवंगत नेता कैलाशपति मिश्र से उनके बारे में काफी सुना था। कैलाशपति मिश्र बिहार के वित्त मंत्री रहे थे और बाद में गुजरात एवं राजस्थान के राज्यपाल भी बने।

कर्पूरी ठाकुर की सरल जीवनशैली और विनम्र स्वभाव की चर्चा करते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने याद किया कि कैसे वे इस बात पर जोर देते थे कि उनके किसी भी व्यक्तिगत कार्य में सरकार का एक पैसा भी इस्तेमाल ना हो। नेताओं के लिए कॉलोनी बनाने का निर्णय हुआ तो उन्होंने जमीं तक नहीं ली। उनके निधन के बाद श्रद्धांजलि देने उनके गाँव पहुँचे नेताओं ने जब उनका घर देखा तो उनकी आँखों में आँसू आ गए। पीएम मोदी ने बताया कि कर्पूरी ठाकुर वे स्थानीय भाषाओं में शिक्षा देने के बहुत बड़े पैरोकार थे, ताकि गाँवों और छोटे शहरों के लोग भी अच्छी शिक्षा प्राप्त करें।

इसी बीच कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किए जाने के बाद इसका श्रेय लूटने के लिए बिहार के अवसरवादी नेता पिल पड़े। इसमें सबसे आगे रहे बिहार की गठबंधन सरकार में शामिल राजद के मुखिया लालू प्रसाद यादव। वही लालू यादव, जिन्होंने जीते-जी कर्पूरी ठाकुर का जम कर विरोध किया, लेकिन अब खुद को उनके लिए लड़ाई लड़ने वाला बता रहे हैं। बिहार को ‘जंगलराज’ में धकेलने वाले लालू यादव के चेहरे पर चढ़ा ये नकाब भी हम उतारेंगे, लेकिन उससे पहले जानते हैं कि कर्पूरी ठाकुर कौन थे।

कौन थे बिहार के कर्पूरी ठाकुर, जिन्हें मिला ‘भारत रत्न’

कर्पूरी ठाकुर की जन्मतिथि को लेकर काफी संशय है, लेकिन माना जाता है कि 24 जनवरी, 1924 को उनका जन्म हुआ था। समस्तीपुर जिले के पितौंझिया में गोकुल ठाकुर और रामदुलारी देवी के बेटे के रूप में उनका जन्म हुआ था। उस गाँव को अब ‘कर्पूरी ग्राम’ के नाम से जाना जाता है। कर्पूरी ठाकुर एक नाई परिवार से ताल्लुक रखते थे, जो पिछड़े समाज में आता है। दरभंगा स्थित CM कॉलेज में उनकी उच्च शिक्षा हुई, जो अधूरी रही। इसका कारण था – 1942 में वो महात्मा गाँधी के ‘करो या मारो’ आंदोलन में कूद पड़े थे और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया।

कर्पूरी ठाकुर के परिवार की बात करें तो उनके दादाजी का नाम था प्यारे ठाकुर। कर्पूरी ठाकुर 6 भाई और 2 बहन थे। उनके एक भाई का नाम था – रामस्वारथ ठाकुर। उनकी बहनें थीं – गाल्हो, सिया, राजो, सीता, पार्वती और शैल। जमीन-जायदाद के नाम पर एक फूस का घर और 3 एकड़ खेत थे। 1938 में उन्होंने अपने गाँव में ही ‘नवयुवक संघ’ की स्थापना की थी। 1940 में उन्होंने मैट्रिक पास की। वो आज़ादी से पहले जेपी-लोहिया की ‘कॉन्ग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ के सदस्य थे।=

महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व का उन पर प्रभाव था। कर्पूरी ठाकुर ने समाजवाद के प्रखर नेता राम मनोहर लोहिया के शिष्य के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया था। 1952 से लेकर अपनी मृत्यु तक कर्पूरी ठाकुर लगातार विधानसभा या लोकसभा के लिए चुने जाते थे। बिहार के शिक्षा मंत्री के रूप में कर्पूरी ठाकुर ने मैट्रिक की परीक्षा तक अंग्रेजी की अनिवार्यता ख़त्म कर दी। इससे कई गरीब छात्रों को पास होने का मौका मिला, जो अंग्रेजी न आने के कारण पीछे रह जाते थे।

कर्पूरी ठाकुर पंचायती राज व्यवस्था के हिमायती थे। जब वो 1971 में और फिर 1978 में मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने बिहार में पंचायत चुनाव कराया। इसके बाद 2 दशक तक राज्य में पंचायत चुनाव ही नहीं हुए। उन्होंने आरक्षण के भीतर आरक्षण को लागू किया, जिसके तहत पिछड़ों को 8% और अत्यंत पिछड़ों को 12% आरक्षण दिया गया। गरीब सवर्णों और महिलाओं के लिए भी उन्होंने 3-3 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया।

कर्पूरी ठाकुर ने 1952 में ताजपुर से पहली बार विधानसभा चुनाव जीता। 1957 में उन्होंने यहीं से प्रजा-सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर कॉन्ग्रेस प्रत्याशी को हराया। 50 के दशक में उन्होंने पश्चिमी एशिया और यूरोप के कई देशों का दौरा किया। 1962 में भी वो यहीं से जीते। 1967 में उन्होंने ‘संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी’ के टिकट पर चुनाव जीता। 1967 में जब महामाया प्रसाद के नेतृत्व में सरकार बनी, तब कर्पूरी ठाकुर उप-मुख्यमंत्री बने। उन्हें शिक्षा और वित्त जैसे बड़े विभाग मिले।

1969 में बिहार में मध्यावधि चुनाव हुए और कर्पूरी ठाकुर फिर ताजपुर से ही जीते। 22 दिसंबर, 1970 को बिहार का मुख्यमंत्री बनने से पहले उन्होंने जमशेदपुर के मजदूरों के लिए 28 दिनों का आमरण अनशन किया था। टाटा फैक्ट्री के माँगें मंजूर की, जिसके बाद मजदूरों ने कर्पूरी ठाकुर को अपना नेता माना। गोमिया की एक्सप्लोसिव फैक्ट्री के मजदूरों के लिए भी उन्होंने अनशन किया। 1972 में भी उन्होंने ताजपुर से जीत दर्ज की। हालाँकि, तब तक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन उग्र हो चुका था और विरोधी नेताओं के इस्तीफे के क्रम में मई 1974 में उन्होंने भी विधायकी छोड़ दी

फिर आपातकाल लगा। इंदिरा गाँधी के तानाशाही वाले काल में उन्होंने नेपाल से ही आपातकाल विरोधी गतिविधियाँ चालू कीं। 1977 के लोकसभा चुनाव में कर्पूरी ठाकुर ने ‘जनता पार्टी’ के टिकट पर समस्तीपुर से बड़ी जीत दर्ज की। जून 1977 में वो फिर से बिहार के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने मधुबनी के फुलपरास से कॉन्ग्रेस के रामजयपाल सिंह यादव को मात दी और विधायक बने, क्योंकि मुख्यमंत्री का 6 महीने के भीतर CM अनिवार्य है। 1980 में जब ताजपुर क्षेत्र को बाँट दिया गया तो वो समस्तीपुर से खड़े हुए और जीत दर्ज की।

बिहार में कॉन्ग्रेस की सरकार बनी और कर्पूरी ठाकुर नेता प्रतिपक्ष बने। चौधरी चरण सिंह से मतभेद के बाद उन्होंने ‘लोक दल (क)’ का गठन किया। 1985 के संसदीय चुनाव में कर्पूरी ठाकुर इंदिरा गाँधी के निधन की सहानुभूति लहर में हार गए, लेकिन जो जीवन में उनकी पहली हार थी, लेकिन 2 महीने बाद ही विधानसभा चुनाव में सीतामढ़ी के सोनबरसा से उन्होंने बड़ी जीत दर्ज की। ‘लोक दल’ और ‘जनता पार्टी’ का विलय न हो सका, लेकिन फिर भी उस चुनाव में कर्पूरी ठाकुर ने 47 सदस्यों को जिता कर अपने ‘लोक दल’ को सबसे बड़ी विरोधी पार्टी बनाया।

लालू यादव ने कर्पूरी ठाकुर को कहा था ‘कपटी’

अब आते हैं लालू यादव पर। आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए छात्र आंदोलन ने लालू यादव को भी बड़ा नेता बना दिया था। गोपालगंज के फुलवरिया में जन्मे लालू यादव बचपन से ही ड्रामा करने में दक्ष थे और गाँव में होने वाले छोटे-मोटे कार्यक्रमों में अभिनय करते थे। भले ही अब वो 75 वर्ष के हो गए हैं, लेकिन बचपन में भैंस पर बैठ कर करने वाली नाटकबाजी वाला खेल अब भी वो खेल लेते हैं, लेकिन दूसरे रूप में। अब वो कर्पूरी ठाकुर को ‘भारत रत्न’ दिए जाने का श्रेय ले रहे हैं।

लालू यादव ने एक ट्वीट कर के लिखा, “मेरे राजनीतिक और वैचारिक गुरु कर्पूरी ठाकुर जी को भारत रत्न अब से बहुत पहले मिलना चाहिए था। हमने सदन से लेकर सड़क तक ये आवाज़ उठाई, लेकिन केंद्र सरकार तब जागी जब सामाजिक सरोकार की मौजूदा बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना करवाई और आरक्षण का दायरा बहुजन हितार्थ बढ़ाया। डर ही सही राजनीति को दलित बहुजन सरोकार पर आना ही होगा।” लालू यादव ने मोदी सरकार को न सिर्फ ‘डरा हुआ’ बता दिया, बल्कि कर्पूरी ठाकुर को अपना गुरु घोषित कर दिया।

क्या कोई व्यक्ति अपने गुरु को ‘कपटी’ कह सकता है? लालू यादव आज जिन्हें अपना गुरु बता रहे हैं और मोदी सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि उसने ‘डर कर’ जिन्हें सम्मान दिया, उन्हीं कर्पूरी ठाकुर को लालू यादव ने ‘कपटी’ कहा था। संकर्षण ठाकुर ने अपनी पुस्तक ‘द ब्रदर्स बिहारी‘ और अरुण सिन्हा की किताब ‘नीतीश कुमार और उभरता बिहार‘ में इसका स्पष्ट जिक्र है। फरवरी 1988 में कर्पूरी ठाकुर के निधन को लालू यादव ने अपने लिए मौके के रूप में लिया था और बिहार में लगभग मृतप्राय विपक्ष के सबसे बड़े नेता के रूप में खुद को उभारा।

लालू यादव भले ही छात्र नेता थे और आपातकाल में जेल भी गए थे, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति में उन्हें लेन का श्रेय कर्पूरी ठाकुर को ही जाता है। 1977 में कर्पूरी ठाकुर ही थे, जिन्होंने मात्र 29 साल के लालू यादव को ‘भारतीय लोक दल’ के टिकट पर छपरा से लोकसभा का टिकट दिलाया था। लालू यादव को इस चुनाव में 85% वोट मिले और जीत का अंतर 77% रहा। इसके बाद उन्हें पार्टी से विधानसभा चुनाव का टिकट भी कर्पूरी ठाकुर ने ही दिलवाया।

1980 में कॉन्ग्रेस की बड़ी जीत के बावजूद बिहार में समाजवादी राजनीति को जीवित रखने वाले कर्पूरी ठाकुर ने ऐसे कई युवाओं को उस दौर में आगे बढ़ाया। लालू यादव ने भले ही खुद को कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद उनका उत्तराधिकारी भले ही घोषित कर दिया, लेकिन कर्पूरी ठाकुर खुद ऐसा कभी नहीं चाहते थे। पत्रकार संकर्षण ठाकुर अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि कर्पूरी ठाकुर अक्सर लालू को ‘लम्पट’ (आवारा) कहते थे। इसी किताब में जिक्र है कि कैसे लालू यादव अक्सर कर्पूरी ठाकुर को ‘कपटी’ कहा करते थे (सार्वजनिक तौर पर नहीं)।

लोहियावादी लक्ष्मी साहू, जो कर्पूरी ठाकुर क लाइफ-टाइम प्राइवेट सेक्रेटरी थीं, जिन्होंने एक वाकया सुनाया था। उस समय कर्पूरी ठाकुर नेता प्रतिपक्ष थे, लेकिन वो काफी बीमार थे। घर में आराम कर रहे थे। लेकिन, विधानसभा में एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा आन पड़ी और उन्हें उसमें जाना था। उन्होंने शिवनंदन पासवान से गाड़ी का जुगाड़ करने को कहा। उस दौरान लालू यादव सेकेण्ड हैण्ड Willys जीप का इस्तेमाल करते थे, जिसे वो खुद ड्राइव करते थे।

किस्सा कुछ यूँ है कि जब शिवनंदन पासवान ने लालू यादव से कहा कि वो कर्पूरी ठाकुर को उनके घर से विधानसभा लेकर जाएँ, तब लालू यादव ने कहा, “मेरी गाड़ी में तेल नहीं है। आप कर्पूरी जी को एक कार खरीद लेने के लिए क्यों नहीं कहते? वो इतने बड़े नेता हैं!” लक्ष्मी साहू बताती हैं कि लालू यादव ने सीएम बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर का नाम तक लेना बंद कर दिया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि ऐसे में वो हमेशा उनकी छाया में रहेंगे। उन्होंने कर्पूरी ठाकुर की याद में मेमोरियल बनाने का वादा भी पूरा नहीं किया।

लालू यादव ने देशरत्न मार्ग स्थित जिस घर में कर्पूरी ठाकुर का निधन हुआ वहाँ बाहर सिर्फ एक दीवार बनवाई, और कुछ नहीं। वो हमेशा कर्पूरी ठाकुर मेमोरियल के निर्माण की माँग को टालते रहे। लालू यादव उन दिनों VP सिंह और देवी लाल के दरबार में हाजिरी लगाते थे और शायद इसीलिए पटना में बीमार कर्पूरी ठाकुर के करीब रहने में या उनकी मदद करने में उन्हें कोई फायदा नहीं दिखता था। आखिरकार इन दोनों के आशीर्वाद से ही लालू यादव ने कर्पूरी ठाकुर के निधन के अगले वर्ष मार्च 1989 में उनका पद ग्रहण किया, बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने।

अरुण सिन्हा अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि लालू यादव को ये पसंद नहीं था कि कर्पूरी ठाकुर पिछड़े समाज की सभी जातियों को हिस्सेदारी देना चाहते थे और अपनी योजनाओं के बारे में सबको खुल कर नहीं बताते थे। इसीलिए, उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को ‘कपटी ठाकुर’ कहना शुरू कर दिया था। उसी समय एक अन्य युवा नेता नीतीश कुमार ने लालू यादव के समर्थन के लिए गैर-यादव विधायकों को मनाया और इस तरह लालू यादव नेता प्रतिपक्ष बने। आज अवसरवादी लालू यादव खुद को कर्पूरी ठाकुर का शिष्य बता रहे।

अवसरवादी लालू यादव ने समाजवादी के लिए क्या किया?

लालू यादव के समर्थक भले ही उन्हें ‘सामाजिक न्याय’ और समाजवाद के पुरोधा के रूप में पेश करते हों और उनकी गिनती राम मनोहर लोहिया व कर्पूरी ठाकुर के क्रम में करते हों, लेकिन लालू यादव ने ‘भूरा बाल साफ़ करो’ (कुछ विशेष जातियों के सफाये के लिए) का नारा लगाने और जातीय जनगणना की बातें कर के हिन्दुओं को बाँटने की कोशिश करने के अलावा और किया ही क्या है? श्रेय लेने की होड़ में वो जिस तरह की हरकत कर रहे हैं, उससे ‘जियति ना दिहिन कौरा, मरे डोलावय चौरां’ वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है।

अवसरवादी लालू यादव कहते थे कि नीतीश कुमार के पेट में दाँत है, आज उनकी पार्टी उन्हीं की सरकार का हिस्सा है। कारण? कारण ये कि लालू यादव के एक बेटे तेजस्वी इस सरकार में उप-मुख्यमंत्री हैं, दूसरे बेटे तेज प्रताप भी मंत्री हैं। बिहार में श्रेय लेने की होड़ में नीतीश कुमार भी शामिल हैं, जिन्होंने इसे अपनी पुरानी माँग करार दिया। कइयों को इसमें चुनावी फायदे के लिए लिया गया फैसला दिख रहा है, तो कुछ मोदी सरकार को झुका लेने के दावे कर रहे हैं।

अब देखना ये है कि 2024 के लोकसभा चुनावों और 2025 के विधानसभा चुनावों में बिहार में कर्पूरी ठाकुर का नाम उनके निधन के 36-37 वर्ष बाद किस तरह फिर से प्रासंगिक बनता है। लालू-नीतीश इसे अपने ‘गुरु’ को मिला सम्मान दिखा कर मोदी सरकार को झुका लेने का दम भरेंगे, वहीं भाजपा समाजवाद के एक पुरोधा को सम्मान दिए जाने की बात कहेगी। हालाँकि, बिहार की राजनीति पारंपरिक राजनीति व देश के अन्य क्षेत्रों की राजनीति से अलग है, यहाँ कब क्या हो जाए किसी को अंदाज़ा नहीं।

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भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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