प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने मंत्रिमंडल विस्तार से पहले नए सहकारिता (Cooperation) मंत्रालय के गठन का निर्णय लिया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को देश के पहले सहकारिता मंत्री के रूप में बड़ी जिम्मेदारी दी गई। इससे विपक्ष बेचैन हो गया है। विपक्ष को डर है कि सहकारिता से विकास का मंत्र पूरे भारत में लागू होने पर गरीब किसान और लघु व्यवसायी बड़ी संख्या में सशक्त होंगे, जिससे भाजपा और मजबूत होगी।
मोदी सरकार ने क्यों बनाया नया सहकारिता मंत्रालय
सबसे पहले तो ये जानिए कि भारत सरकार ने आखिर सहकारिता के रूप में एक नए मंत्रालय की ज़रूरत क्यों समझी। केंद्र ने मंगलवार (जुलाई 6, 2021) को इसके गठन की घोषणा की और शुक्रवार को पूर्व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को इसकी कमान दी गई। केंद्र सरकार का कहना है कि इससे ‘सहकार से समृद्धि’ के लक्ष्य को पाने में मदद मिलेगी। देश में सहकारिता आंदोलन को ये मंत्रालय मजबूत करेगा।
लेकिन, इसका मुख्य उद्देश्य ये है कि ये सहकारिता आंदोलन को एक अलग प्रशासनिक, कानूनी और नीतिगत ढाँचा व वातावरण प्रदान करे। ये मंत्रालय सहकारी समितियों को जमीनी स्तर तक पहुँचने वाले एक सच्चे जन-भागीदारी आधारित आंदोलन को मजबूत बनाने में भी सहायता प्रदान करेगा। सहकारिता के बारे में बता दें कि ये ऐसा आर्थिक विकास मॉडल है, जहाँ इसके हर सदस्य को अपनी जिम्मेदारी निभानी होती है और इससे उनका और देश का फायदा होता है।
केंद्र सरकार ने कहा, “यह मंत्रालय सहकारी समितियों के लिए ‘कारोबार में सुगमता’ के लिए प्रक्रियाओं को कारगर बनाने और बहु-राज्य सहकारी समितियों (MSCS) के विकास को सक्षम बनाने की दिशा में कार्य करेगा। समुदाय आधारित विकासात्मक भागीदारी के प्रति हमारी गहरी प्रतिबद्धता है।” बता दें कि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट के दौरान ही इस सम्बन्ध में घोषणा की थी। अब इसे पूरा किया गया है।
बहुराज्यीय सहकारी समितियों को अब इस मंत्रालय से सीधे मदद मिलेगी। बैंकिंग, खेती, चीनी मिल संचालन और डेयरी फार्मिंग जैसे कई क्षेत्र हैं, जहाँ लोग सहकारी संस्था बना कर साझा लक्ष्य के लिए अपना-अपना योगदान देते हैं। सहकारिता का प्रभाव इसी से समझ लीजिए कि देश में फ़िलहाल 1.94 लाख कोऑपरेटिव डेयरी सोसाइटी और 330 चीनी मिल एसोसिएशन हैं। गुजरात की सहकारी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे अमूल ब्रांड को इसकी सफलता का सबसे बड़ा उदाहरण माना जा सकता है।
भारत में कृषि में मदद के लिए ग्रामीण स्तर पर किसानों द्वारा कई ‘प्राइमरी एग्रीकल्चरल क्रेडिट सोसाइटीज’ का गठन किया जाता है। किसानों को इससे सुगमता से कर्ज उपलब्ध हो जाता है। इसके लिए जिला एवं राज्य स्तर पर सहकारी बैंक होते हैं। 363 जिला सहकारी और 33 राज्य सहकारी बैंक इस काम में लगे हुए हैं। 2019-20 में देश में 1539 शहरी सहकारी बैंक थे। साथ ही 95,238 ऐसी सोसाइटियाँ थीं।
हालाँकि, सहकारिता के विकास में केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकार की भी भूमिका होती है। राज्यों में सहकारी आयुक्त के साथ-साथ रजिस्ट्रार ऑफ सोसाइटीज भी होते हैं, जो इन सहकारी समितियों के संचालन का औपचारिक कार्य करते हैं। पूरे देश में सहकारिता का मॉडल अभी तक अच्छे से लागू नहीं हो पाया है और अमित शाह की बड़ी जिम्मेदारी यही होगी कि इससे जमीनी स्तर पर लोगों को जोड़ा जाए और उत्साहित किया जाए।
अमित शाह के केंद्रीय सहकारिता मंत्री बनने से विपक्ष बेचैन क्यों?
लेकिन, आखिर विपक्षी की बेचैनी का कारण क्या है कि वो केंद्र सरकार के इस नए पहल का स्वागत करने की बजाए इसका विरोध कर रहा है। कॉन्ग्रेस का कहना है कि केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र से लेकर बंगाल तक की सहकारी संस्थाओं में भाजपा का प्रभाव बढ़ाने के लिए ऐसा किया गया है। पार्टी के वरिष्ठ नेता रमेश चेन्निथला ने की इस ‘चेतावनी’ के बाद कॉन्ग्रेस ने इस पर विचार-विमर्श शुरू कर दिया है।
उसकी योजना है कि संसद के मॉनसून सत्र से पहले सब कुछ खँगाल कर इसमें से कुछ मामलों को उठाया जाए। केंद्र में नंबर-2 माने जाने और पीएम मोदी के करीबी कहे जाने वाले व्यक्ति को इसकी कमान मिलने से चिंतित कॉन्ग्रेस इस बारे में अन्य पार्टियों से भी चर्चा करेगी। अमित शाह का किसी मामले में घुसना ही उसे महत्वपूर्ण बना देता है। सहकारी संस्थाओं में सालों से जमे राजनीतिक आकाओं की पैठ अब ख़त्म होने की संभावना है, इसीलिए उन्हें ये डर है।
कॉन्ग्रेस के अलावा वामपंथी भी तिलमिलाए हुए हैं। CPI(M) के नेता और दो बार केरल के वित्त मंत्री रहे थॉमस इसाक भी चिंतित हैं। चार बार के विधायक ने कहा कि इसका कुछ गलत उद्देश्य है। उन्होंने आरोप लगाया कि अमित शाह ने गुजरात के सहकारी बैंकों पर ‘कब्ज़ा’ किया और ‘श्वेत क्रांति’ के अग्रदूत जॉर्ज कुरियन को ‘गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ’ से बाहर कर दिया। उन्होंने वैद्यनाथन समिति की रिपोर्ट लागू करने का भी विरोध किया।
दरअसल, इस रिपोर्ट के लागू होने से सहकारी रजिस्ट्रार से शहरी बैंकों की बागडोर भारतीय रिजर्व बैंक को सौंपने के बाद प्राथमिक सहकारी बैंकों को भी इसके अंतर्गत लाया जा सकता है। उनका कहना है कि इससे सहकारी बैंक अपंग हो जाएँगे। उन्होंने ये भी कहा कि इसके खिलाफ जन-आंदोलन की ज़रूरत है क्योंकि इससे ये ढाँचे पर प्रहार होगा। उन्होंने कहा कि सहकारिता राज्यों का विषय है और केंद्र इस पर कब्ज़ा करना चाहता है।
अब हम आपको इन दलों की चिंता का कारण बताते हैं। असल में जिन दो राज्यों में सहकारिता पर सबसे ज्यादा राजनीतिक कब्ज़ा है, वो हैं महाराष्ट्र और केरल। जहाँ एक जगह शरद पवार की ‘राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी (NCP)’ ने चीनी मिलों से लेकर कई सहकारी संस्थाओं में पैठ बनाई हुई है, केरल में यही काम CPI(M) ने किया है। हजारों करोड़ रुपयों के इस क्षेत्र में सरकार का घुसना इन नेताओं को पसंद नहीं आ रहा है।
Before reshuffling the Cabinet, govt created a new ministry: the Ministry of Cooperation, to be headed by Amit Shah.@ShreejaSingh5 explains the motive behind the move, what will be the role of the new ministry & more at: https://t.co/fhEL4ElRHa#CabinetExpansion2021 #Politics
— moneycontrol (@moneycontrolcom) July 9, 2021
केरल में सहकारी आंदोलन, खासकर इसका बैंकिंग क्षेत्र वहाँ की सत्ताधारी वामपंथी दलों के नियंत्रण में ही है। केरल और महाराष्ट्र में ये सहकारी संस्थाएँ वित्तीय रूप से काफी मजबूत हैं और इनका एक बड़ा नेटवर्क है। केरल में तो कॉन्ग्रेस का भी ऐसी कुछ समितियों और बैंकों पर अच्छा प्रभाव है। कर्नाटक, बंगाल और तमिलनाडु में भी सहकारिता एक जन-आंदोलन बन कर सामने आया है और वहाँ भी कई वर्षों से कुछ ही खास दल कब्ज़ा जमाए बैठे हैं।
अब केंद्र सरकार इनके लिए नियम-कानून बनाएगी और जनता के लिए काम होगा, जिससे इन्हें प्राइवेट कंपनियों की तरह चला रहे इन राजनीतिक दलों और चंद नेताओं का प्रभाव कम होगा। पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र के अलावा केरल भी राजनीतिक रूप से चर्चा में रहने वाला राज्य है। जहाँ बंगाल में भाजपा ने तृणमूल का गढ़ हिलाने की कोशिश की है, केरल में उसे पाँव जमाना है। महाराष्ट्र में क्षेत्रीयता के नाम पर कुछ दल दादागिरी का झंडा उठाए बैठे हैं।
अमित शाह को क्यों ही दी गई सहकारिता मंत्रालय की कमान?
अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि आखिर इसकी कमान अमित शाह के हाथ में ही क्यों? इसका एक ही कारण है- लंबा अनुभव। प्रशासनिक रूप से सक्षम अमित शाह का गुजरात में सहकारिता को लेकर काम करने का अच्छा अनुभव है। एक समय उन्हें राज्य में सहकारिता आंदोलन का पितामह कहा जाने लगा था। गाँव, गरीब और किसानों के नेटवर्क से राज्य ने विकास की नई ऊँचाइयों को छुआ।
अमित शाह भाजपा की राष्ट्रीय सहकारिता प्रकोष्ठ के संयोजक के पद पर भी रह चुके हैं। मात्र 36 वर्ष की उम्र में उन्हें अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक (ADCB) का अध्यक्ष चुना गया था। उस समय बैंक 20.28 करोड़ रुपए के घाटे में चल रहा था। शाह ने मात्र एक साल में बैंक को संकट से उबारा और 6.60 करोड़ रुपए के लाभ में लाकर 10% के मुनाफे का वितरण किया। इस तरह इस क्षेत्र से उनका पुराना और गहरा नाता है।
कुछ ऐसी ही कहानी गुजरात के आणंद में स्थित अमूल डेयरी की भी है। दिसंबर 1946 में इसका जन्म एक सहकारी आंदोलन के रूप में ही हुआ था। इसी क्रांति की वजह से भारत विश्व में सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक बना। खेड़ा जिले में पहले किसानों की स्थिति दयनीय थी, लेकिन उन्हीं किसानों ने एक सहकारी समिति बना कर कई दुग्ध उत्पादन केंद्र बनाए और आज सफलता की ऊँचाई को छू रहे हैं।
आज करीब 11,000 गाँवों से ये किसान प्रतिदिन 60 लाख लीटर दूध इकट्ठा करते हैं। इसके लिए तीन चरणों वाले मॉडल का उपयोग किया गया था। प्राइमरी प्रोड्यूसर, यानी गाँव की संस्थाओं से दूध लिया जाता था। दूसरा चरण, यानी दूध को सहयोगी भंडारों के पास भेजा जाता था जहाँ उन्हें संरक्षित रखा जाता था। फिर अंतिम चरण में इसे बेचा जाता है। इस तरह इसमें बिचौलियों की भूमिका ही ख़त्म हो गई।
गुजरात में सहकारिता से बड़ी संख्या में महिलाएँ भी जुडी हैं। अमित शाह को केंद्रीय सहकारिता मंत्री बनाए जाने का एक कारण ये भी है कि देश के कई सहकारिता बैंक और समितियाँ आज घोटाले से त्रस्त हैं और शाह को ऐसे मामलों में कड़ाई से काम लेने के लिए जाना जाता है। महाराष्ट्र में कोऑपरेटिव बैंक घोटाला सामने आया था, जिस मामले में ED (प्रवर्तन निदेशालय) कार्रवाई भी कर रही है।