वो बताते हैं कि अपने जीवन में उन्होंने दो स्वतंत्रताओं को सबसे अधिक महसूस किया है। जिनमें से एक वो थी जब कि बयालिस साल की उम्र में पचहत्तर बेंत खाकर अमीर की जेल में पड़े, उन्हें वहाँ से छुड़ाया गया और दूसरी उससे छत्तीस वर्ष और पहले छः साल की उम्र में, जब कि उन्हें मकतब न जाने की इजाजत मिल गयी। कह नहीं सकता, दोनों में से किसको उन्होंने ज्यादा पसंद किया।
ताज़िकिस्तान के ख्यातिप्राप्त लेखक सदरुद्दीन एनी अपने बारे में बताते हैं, “छह साल की अवस्था में माँ-बाप मुझे मस्जिद के मकतब में ले गए। मकतब का फर्श केवल 9 गुणा 6 वर्ग गज का था। उसे लकड़ी के कटघरे से नौ भागों में बाँट दिया गया था। विद्यार्थी इन्हीं कठघरों में ढोबों की तरह बैठते और मुल्ला का डंडा उनके सिर पर रहता था। विद्यार्थी बिना समझे ही कुरान की आयतों को जोर-जोर से दोहराया करते थे।”
ज़ाहिर है ऐसी जगह से आजादी मिलना एनी को पसंद आया था। सवाल ये है कि ताज़िकिस्तान के एक लेखक का जिक्र भारत में क्यों किया जाए? उनकी याद इसलिए आती है क्योंकि राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिन हाल ही में बीता है। कई भाषाओं के जानकार राहुल सांकृत्यायन को उनकी लिखी ‘वोल्गा से गंगा तक’ के लिए अक्सर याद किया जाता है। उनके किए अनुवाद की बात कम की जाती है। ‘दाखुंदा’ का उन्होंने सीधा अनुवाद नहीं किया था, किताब की शुरुआत में लिखा है कि ये ‘रूपांतर’ है।
माना जा सकता है कि राहुल सांकृत्यायन ने सदरुद्दीन एनी की किताब के भावों को हिंदी में उतारा है, शब्दों को पकड़ने की कोशिश नहीं की। वैसे अगर दाखुंदा का शाब्दिक अर्थ देखें तो ये मोटे तौर पर पहाड़ी जैसा अर्थ लिए हुए है। जैसे हिंदी में ‘देहाती’ कहने पर सिर्फ ग्रामीण का बोध नहीं होता, उसमें ‘गंवार’, मूर्ख, नासमझ, या दुनियादारी से अनभिज्ञ वाला भाव भी होता है, वैसे ही दाखुंदा कहना भी पहाड़ी के साथ-साथ बेवकूफ कहना हो जाता है। ये किताब यादगार नाम के ‘दाखुंदा’ और गुलनार नाम की लड़की की कहानी है।
बुखारा और ताज़िकिस्तान से जुड़े होने के कारण इसे मध्य एशिया की कहानी कह सकते हैं। ये आजाद होने की एक लड़ाई पर आधारित है, इसलिए इसे क्रांति का महत्वपूर्ण दस्तावेज भी कह सकते हैं। बौद्ध मत के अध्ययन में त्रिपिटकाचार्य के स्तर तक पहुँच चुके राहुल सांकृत्यायन अपने शुरूआती दौर में हिन्दुओं की उपासना पद्धतियाँ देखने निकले थे, और अंतिम दौर में वो वामपंथी थे। उन्हें रूसी कम्युनिस्ट क्रांति जैसी योजना से एक इस्लामिक सत्ता की पराजय पर लिखी गयी किताब पसंद आई होगी। शायद इसीलिए उन्होंने इसका रूपांतरण किया।
ये कहानी एक नायक, एक नायिका, किसी खलनायक, थोड़े से विछोह और फिर मिलन की सीधी सी कहानी नहीं है। हिन्दी सिनेमा के राजकपूर वाली श्री 420 जैसी फिल्मों के नायक जैसा ही इस किताब का दाखुंदा भी मुश्किलें झेलता रहता है, मगर चतुर-चालाक, या सीधे शब्दों में कहें तो धूर्त नहीं बनता। कई कठिनाइयों के बाद भी अपना चरित्र ना छोड़ना ही दाखुंदा को नायक बना देता है। दूसरी तरफ जो गुलनार है, उसे जबरदस्ती झेलनी पड़ती है, कई शादियाँ कर चुके लोगों की रखैल जैसा भी उसे जीना पड़ता है, लेकिन ये भी यादगार को नहीं भूलती।
ताज़िकिस्तान की ये लड़ाई, काफी कुछ वैसी ही थी, जैसी अभी हाल में अफगानिस्तान में चलती रही। एक तरफ कट्टरपंथी जमातें थीं और दूसरी तरफ आम लोग। जब लड़ाई में गोलियाँ चलनी बंद हो जाती हैं, तथाकथित शांति स्थापित हो जाती है, तब भी लड़ाई ख़त्म नहीं होती। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हारने के बाद भी कट्टरपंथी अपनी सोच को नहीं बदलते बस उपरी चोला बदलकर, नकाब ओढ़कर सामने आ जाते हैं। दाखुंदा का अंत भी कोई अंत नहीं, एक शुरुआत ही है। अंतिम पन्ने पर समझ आ जाता है कि यहाँ से एक और लड़ाई शुरू होगी।
सौ साल पहले के दौर और आज के दौर में अंतर देखें तो ये लगता है कि अब लड़ाइयाँ उतनी हिंसक नहीं होती। किसी ने ये नहीं सोचा कि हो सकता है कि उस ख़ास कट्टरपंथी मजहबी सोच से लड़ना पड़े तो हिंसा हो, आमतौर पर ऐसा होता नहीं दिखता। दूसरे देश जैसे ईरान, इराक, अफगानिस्तान, सीरिया में ऐसे हिंसक आन्दोलन कोई बड़ी बात तो नहीं। हमने शायद विदेशों की घटनाओं की ओर से आँख मूंदकर कबूतरों वाली शान्ति को गले लगा रखा है। कई बार कहा जाता है कि साहित्यकार की कलम भविष्य भी लिख जाती है।
‘दाखुंदा’ पढ़ने का मौका मिले तो सोचियेगा, इतिहास का दस्तावेज सामने पड़ा है, या भविष्य का कोई डरावना सच? ये भी सोचियेगा कि राहुल सांकृत्यायन को अनेकों भाषाओं का जानकार बताते वक्त उनके इस रूपान्तर पर चुप्पी क्यों है? फ़िलहाल सोचने पर जीएसटी भी तो नहीं लगता न!