हमारे पुराणों को लेकर वामपंथियों में बड़ी मशहूर ‘थ्योरी’ है कि जिन्हें शास्त्रों में असुर बताया गया है, वे असल में इंसान थे। यही कारण है कि उन्हें महिषासुर “जनप्रिय, मूलनिवासी राजा” लगता है। आज की पत्रकारिता के समुदाय विशेष के सदस्य भले ही अभिव्यक्ति की आजादी का ढोंग रचते हों, लेकिन उनके लक्षण आसुरिक ही नजर आते हैं।
गुरुवार (14 नवंबर 2019) को सबरीमाला के मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बेंच में भेजे जाने पर सागरिका घोष का कहना है कि अगर मंदिर एक सार्वजनिक स्थल है तो वह ‘अशुद्धता’ (‘इम्प्यूरिटी’) के नाम पर किसी लिंग, जाति, आस्था या शारीरिक क्रिया आधारित भेदभाव नहीं कर सकता है। उन्हें रजस्वला महिलाओं को ‘इम्प्योर’ घोषित किया जाना और उनके साथ ‘भेदभाव’ का समर्थन अनैतिक और हास्यास्पद लगता है।
It is patently immoral and absurd to hold menstruating women as “impure” and justify discrimination against them. If a shrine is a public place, it cannot discriminate on grounds of any “impurity” arising from gender, caste or religion or bodily function. #SabarimalaVerdict
— Sagarika Ghose (@sagarikaghose) November 14, 2019
उनकी बात बिलकुल सही होती, अगर मंदिर सार्वजनिक स्थल होता। यह मेरी या करोड़ों अय्यप्पा भक्तों की गलती नहीं है कि सागरिका घोष को ऐसा लगता है उनके घर के बाहर पूरी दुनिया ‘पब्लिक प्लेस’ है जिसके बारे में वे अपनी वैचारिक थूक-खकार उगल सकतीं हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। मंदिर एक सार्वजनिक नहीं बल्कि विशिष्ट स्थल है- उनके लिए जो मंदिर में प्रवेश की सामान्य और विशिष्ट अर्हताएँ पूरी करते हैं।
सामान्य अर्हता हुई हिन्दू होना। यानी मंदिर के प्रति श्रद्धा-भाव होना, उसके यम-नियम (इसका अर्थ सागरिका खुद ढूँढ़ें) का पालन करने का वचन देना। इसके लिए कोई अलग से घोषणा-पत्र या शपथ-पत्र कोर्ट में नहीं दिया जाता। मंदिर में घुसने का अर्थ ही यह होता है कि घुसने वाला खुद को हिन्दू धर्म के अंतर्गत आने वाली किसी न किसी आस्था, उपासना पद्धति, पंथ आदि का अनुगामी घोषित कर रहा है।
यह तो हुई सामान्य अर्हता। इसके अलावा कुछ मंदिरों में प्रवेश के लिए विशिष्ट नियम होते हैं, जो उस मंदिर के देवता की इच्छा पर आधारित होते हैं- और देवता की इच्छा का पता उसी धर्मग्रंथ से चलता है, जो यह बताता है कि इस मंदिर में इस वाले देवता का वास है। सबरीमाला ऐसा ही मंदिर है, और इससे जुड़े धर्मशास्त्रों ‘भूतनाथ उपाख्यानं’ और ‘तंत्र समुच्चयं’ में साफ लिखा है कि इस मंदिर में भगवान अय्यप्पा का नैष्ठिक ब्रह्मचारी रूप स्थापित है।
सागरिका घोष की बात तब भी सही हो सकती थी, अगर महिलाओं पर यह रोक उनकी ‘अशुद्धता’ के चलते होती। लेकिन ऐसा भी है नहीं। इस रोक का कारण है रजस्वला आयु वर्ग की महिलाओं का उस मंदिर की पूजा-साधना के लिए अयोग्य होना, ‘अशौच’ होना। शौच-अशौच पवित्रता-अपवित्रता नहीं होते।
चूँकि सागरिका को मंदिर और सार्वजनिक फुटपाथ में अंतर नहीं पता, इसलिए उन्हें तो मूर्ख माना जा सकता है। लेकिन बरखा दत्त मंदिर का नाम स्पष्ट तौर पर लेतीं हैं और इसके बाद भी कहती हैं कि उन्हें सबरीमाला में जबरन प्रवेश चाहिए। यह मूर्खता नहीं, दुर्भावना वाली आसुरिक वृत्ति है।
Disappointing that the Supreme Court could not stand by its own verdict on #Sabarimala – as the matter gets referred to a larger bench. We cant be talking about a Uniform Civil Code if we still believe that menstruating women should keep away from some temples. Sorry. #WeTheWomen
— barkha dutt (@BDUTT) November 14, 2019
इसे ‘पीरियड्स’, नारी अधिकार, नारीवाद (जो अपने आप में कम्यूनिज़्म का ही बदला हुआ रूप है; जिसे यकीन न हो, कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो और फेमिनिस्टों के उद्देश्यों में मिलान करके देख ले) की आड़ में हिन्दूफ़ोबिया, मंदिरों, हिन्दू धर्म और हिन्दू धर्मावलम्बियों पर हमला ही माना जाएगा।
ऐसा आज पहली बार नहीं हो रहा है। पौराणिक समय में भी यही होता था। असुर जिन पूजा-पद्धतियों, साधनाओं के खुद मुरीद नहीं होते थे, उन पर हमले करते थे, उनमें विघ्न डालते थे, शास्त्रार्थ के बहाने कुतर्क करते थे, राज्य सत्ता का बल प्रयोग, हिंसा, शोरगुल से भक्तों का ध्यान भंग करना वगैरह। इसलिए, बरखा दत्त और सागरिका घोष कुछ नया नहीं कर रही हैं, केवल उनका माध्यम (इंटरनेट) नया है।
लेकिन जैसे हमने रामलला के लिए 500 साल तक बाबर-औरंगज़ेब जैसी क्रूर, अंग्रेज़ों जैसी चंट और सेक्युलरासुर सरकारी मशीनरी जैसी अधर्मी ताकतों से युद्ध किया, वैसे ही सबरीमाला पर भी आपका प्रोपेगंडा पोस्ट-दर-पोस्ट, महीने-दर-महीने, अदालत-दर-अदालत, पीढ़ी-दर-पीढ़ी काटा जाता रहेगा।