हाल ही में ख़बरें आई हैं कि केंद्रीय विद्यालय में प्रार्थना के दौरान संस्कृत का एक श्लोक पढ़ने की वज़ह से संविधान को ठेस पहुँची है। लोकतंत्र की व्यवस्था चरमरा गई है। कई लोग इससे विशेष रूप से आहत भी हुए हैं। मसला इतना विकराल हो गया कि इसपर स्कूल प्रशासन नहीं बल्कि देश का सर्वोच्च न्यायालय फ़ैसला सुनाएगा। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में भी 5 जजों की संवैधानिक बेंच इस पर फ़ैसला करेगी। अब कोर्ट इसका निर्णय करेगा कि विद्यालयों में ‘असतो मा सदगमय’ (मुझे झूठ से सच की ओर ले चलें) जैसी प्रार्थनाएँ गाई जा सकती हैं या फिर नहीं।
कमाल की बात यह है कि इस शिकायत को कोर्ट तक ले जाने वाले विनायक शाह नाम के व्यक्ति खुद को नास्तिक बताते हैं। शायद इसलिए, उनमें बतौर सेकुलर देश का नागरिक होने के कारण इतनी पीड़ा, इतना दुख, देश के प्रति चिंता है।
सोचिए कि संस्कृत का श्लोक पढ़ने का दूसरा पर्याय आख़िर धार्मिकता का प्रचार करना कैसे हो सकता है। केंद्रीय विद्यालय की प्रार्थना में धार्मिक तत्व ढूँढ निकालने वाले मदरसों से लेकर मिशनरी स्कूलों के अस्तित्व में होने को लेकर चुप हैं। जिन्हें न जाने कितनी धार्मिक संस्थाओं से बाकायदा फंडिंग की जाती है। ऐसे शैक्षिक संस्थानों में विशेष समुदाय का हवाला देते हुए उसी धर्म के अनुरूप न केवल प्रार्थना होती है बल्कि शिक्षा भी उसी दिशा में दी जाती है।
केंद्रीय विद्यालय को देश में शिक्षा के लिहाज़ से एक प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान का दर्ज़ा मिला हुआ है। हज़ारों लोगों की कोशिश होती हैं कि उनका बच्चा/बच्ची केंद्रीय विद्यालय से शिक्षा ग्रहण करे। यहाँ तक पहुँचना थोड़ा कठिन तो है लेकिन शायद ही कोई ऐसा अभिभावक होगा जो अपने बच्चे को यहाँ पढ़ाकर सिर-माथा पकड़े।
इतनी दलीलों के बाद भी मान लेते हैं कि संस्कृत हिंदू धर्म की वाहक हैं। लेकिन, 5000 साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति का हवाला देने वाली दर्ज़नों किताबें इस बात का प्रमाण हैं कि संस्कृत जितना हिंदू धर्म से जुड़ी उसका उतना ही संबंध हमारे देश और संस्कृति से भी हैं। अब आप यह कहने लग जाएँ कि देश की उन सभी सभ्यताओं को ख़ारिज किया जाए जिनका संबंध हिंदू धर्म से हैं तो शायद फिर इस मुद्दे पर कोई बात करनी वाली ही नहीं बचेगी।
अगर मात्र स्कूल में संस्कृत के कुछ श्लोकों से संविधान को ठेस पहुँचती है, धर्म का प्रचार होता है तो आप उसे क्या कहेंगे जो जगह-जगह विद्यालयों में जाकर ईसा-मसीह के जीवन से लेकर उनके चमत्कारों पर बात करते हुए ईसाई धर्म को सर्वश्रेषठ बताते हैं। शैक्षिक संस्थान में इस तरह की बातों को तो फिर अराजकता की श्रेणी में डाल देना चाहिए।
इस पूरे मामले को दर्ज़ कराने वाले शाह ने इस बात का दावा किया है कि केंद्रीय विद्यालय संगठन की ओर से 28 दिसंबर, 2012 को जारी संशोधित एजुकेशन कोड में पढ़ रहे सभी छात्रों के लिए सुबह की प्रार्थना में ‘असतो मा सदगमय’ को गाना अनिवार्य बनाया गया। उनका कहना है कि इससे नास्तिक लोगों की भावनाएँ आहत हो सकती हैं।
शाह साहिब को किस तरह बताया जाए कि शैक्षिक संस्थानों में आस्तिकता और नास्तिकता को प्राथमिकता देने से बड़ा कार्य वहाँ पढ़ रहे छात्रों को उचित दिशा दिखाना है। अगर नास्तिक और आस्तिक के झूले पर झूलते हुए छात्र स्कूल का रुख करें तो वो भले ही हिंदू-मुस्लिम, सुन्नी-सिया, ऊँच-नीच की लड़ाई में न पड़े लेकिन लड़ाईयों का विस्तार करते हुए आस्तिक-नास्तिक के दंगो को जन्म दे देंगे।
साल 2018 में भी इसी तरह की याचिका दर्ज़ कराई गई थी जिसमें लिखा था कि केंद्रीय विद्यालयों में 1964 से हिंदी-संस्कृत में सुबह की प्रार्थना हो रही है जो कि पूर्ण रूप से असंवैधानिक है। याचिका दर्ज़ कराने वाले ने इसे संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 के खिलाफ बताते हुए कहा था कि इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती है।
आज चाहे किसी भी समुदाय का कोई भी छात्र हो वो विद्यालय शिक्षा को लेने और खुद के विकास के उद्देश्य से जाता है। शायद एक भाषा के रूप में ही सही लेकिन हिंदू छात्र को उर्दू जुबां से गुरेज़ नहीं है और एक मुस्लिम छात्र को संस्कृत में टॉप करने से परहेज़ नहीं है। खुद सोचिए, बेवज़ह की दलीलों देना वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि आप नास्तिक है।
क्या देश में संस्कृत भाषा के श्लोक से हर शख्स की भावनाएँ आहत हो जाएँगी? शायद नहीं, लेकिन ऐसे लोग उस माहौल का निर्माण जरूर कर रहे हैं जब साहित्य,कविताओं को, गीतों को भी धर्म से ही लेकर देखा जाएगा। क्या कभी आपने किसी छात्र को इस तरह की शिकायतों में उलझता देखा है कि वो पढ़ाई छोड़कर शिकायत करता दिखा हो… इस प्रार्थना को बंद करो, मेरी भावनाएँ आहत होती है।