अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मामले का सुप्रीम कोर्ट का फैसला नवम्बर 2019 में ही आ चुका है, जिसके बाद न सिर्फ यहाँ राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ बल्कि अगस्त 2020 में भूमिपूजन भी हुआ। लेकिन क्या आपको याद है कि इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट का क्या फैसला था? इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पूरी जमीन को तीन हिस्सों में बाँटने का निर्देश दिया था। रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और बाबरी पक्ष को ज़मीन बाँट दी गई थी।
इस फैसले के बाद हिन्दुओं ने गजब का संयम दिखाया क्योंकि बाबरी विध्वंस के बाद पुलिस-प्रशासन को आशंका थी कि कोई सांप्रदायिक घटना हो सकती है। क़ानूनी रूप से शांतिपूर्ण तरीके से मुद्दे को सुलझाने के लिए रामलला विराजमान ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहाँ उन्हें जीत मिली। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर तो काफी बात हो चुकी है, लेकिन हमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को भी याद करने की ज़रूरत है।
अयोध्या राम मंदिर मामला: क्या था इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला?
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का सार ये था कि हिन्दू और दूसरा समुदाय, ये दोनों ही इस विवादित जमीन (तब) के बराबर के हकदार हैं। निर्मोही अखाड़े ने दलील दी थी कि वो अनंत काल से इस स्थल की देखभाल और प्रबंधन का काम करता आ रहा है। दूसरे पक्ष को पूरा एक तिहाई हिस्सा दिया गया था। हिन्दू पक्ष की दलील थी कि जहाँ बाबरी मस्जिद का गुम्बद स्थित था (जिसे दिसंबर 1992 में ध्वस्त किया गया), वहीं रामलला का जन्म हुआ था।
हाईकोर्ट ने कहा कि चूँकि सदियों से हिन्दू और दूसरे समुदाय के लोग इसका प्रयोग करते आ रहे हैं, इसीलिए दोनों का ही इस पर अधिकार है। राम चबूतरा, सीता रसोई, भंडार और बाहर की खुली जगह निर्मोही अखाड़े को मिली। हालाँकि, कोर्ट ने ये भी कहा था कि 1993 के अयोध्या एक्ट के तहत जिस पक्ष को नुकसान हुआ हो, उसकी भरपाई के लिए कुछ एडजस्टमेंट्स किए जा सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अधिग्रहित की गई भूमि को भी हिन्दुओं और दूसरे मजहब वालों के लिए व्यवस्थित करते हुए प्रवेश और निकासी के लिए अलग-अलग प्रबंध करने के साथ-साथ ये भी कहा था कि दोनों से एक-दूसरे को कोई समस्या नहीं आनी चाहिए। साथ ही पूरी भूमि के आधिकारिक बँटवारे के लिए स्पेशल ड्यूटी ऑफिसर और रजिस्ट्रार के पास जाने को कहा गया था। वहाँ इसकी औपचारिकता पूरी होनी थी।
तीन जजों में से एक जस्टिस एसयू खान ने कहा था कि विवादित ढाँचा मस्जिद था और मस्जिद को बनाने के लिए किसी मंदिर को ध्वस्त नहीं किया गया। उनका कहना था कि मंदिर के अवशेषों का उपयोग मस्जिद बनाने के लिए हुआ। उनका मानना था कि स्वामित्व साबित करने में दोनों समुदाय विफल रहे। उनका कहना था कि 1949 के पहले से मस्जिद के गुम्बद को भगवान श्रीराम का सटीक जन्मस्थान माना जाने लगा।
जस्टिस सुधीर अग्रवाल ने जस्टिस एसयू खान की इन बातों से सहमति जताई- मस्जिद के गुम्बद को भगवान श्रीराम का जन्मस्थान माना जाता है, विवादित ढाँचे को एक पक्ष ने हमेशा से मस्जिद ही माना है और इसका कोई सबूत नहीं कि बाबर ने 1528 में इसे बनाया। लेकिन हाँ, उन्होंने जस्टिस एसयू खान की उस बात से सहमति नहीं जताई कि मंदिर को तोड़ कर मस्जिद नहीं बना था। उनका कहना था कि मंदिर को तोड़ा गया था।
वहीं जस्टिस डीवी शर्मा ने माना कि न तो ये विवादित ढाँचा मस्जिद था और न ही इसे बाबर ने बनवाया था। उन्होंने ASI के सर्वे के हवाले से माना कि विवादित ढाँचे के निर्माण के लिए मंदिर को तोड़ा गया था। उन्होंने स्तम्भों पर बने हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरों को देख कर कहा कि ये इस्लामी स्थापत्य का हिस्सा नहीं है। उन्होंने ये भी कहा कि यहाँ समुदाय के लोग 1528 से नमाज नहीं पढ़ते थे।
जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने कहा था कि 1996 में सिविल जजों के उस फैसला का भी समर्थन किया था, जिसमें कहा गया था कि ये वक़्फ़ की संपत्ति नहीं है। चूँकि अयोध्या के रामलला नाबालिग हैं, इसीलिए उन्होंने टाइटल डेक्लेरट्री के परिसीमन के लिमिटेशंस उनके लिए लागू न होने की बात कही। उन्होंने रामजन्मभूमि के खुद के अपने-आप में एक देवता होने की बात का भी समर्थन किया था। उन्होंने इस स्थान को ईश्वरीय आत्मा के प्रतीक के रूप में माना।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजमेंट और तीनों जजों के विचारों को देख कर ऐसा लगता है कि उन्हें सब कुछ पता था, लेकिन सभी पक्षों को खुश करने के लिए भूमि को तीनों पक्षों में बाँट दिया गया। जस्टिस शर्मा द्वारा कही गई कई बातें सुप्रीम कोर्ट में उठीं और हिन्दू पक्ष ने इसके माध्यम से दलीलें भी पेश कीं। तो इस तरह से ये फैसला न होकर तुष्टिकरण बन गया। इसके पीछे सांप्रदायिक तनाव का भय था या कुछ और, ये चर्चा का विषय है।
हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फैसले को क़ानूनी रूप से ‘Unsustainable’ बताया था। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ तक कहा कि अगर ये सार्वजनिक शांति बनाए रखने के लिए था, तो भी ये साध्य नहीं था। उसका कहना था कि 1500 स्क्वायर यार्ड्स की भूमि को तीन हिस्सों में बाँटना अंततः शांति बनाए रखने के लिए भी ठीक नहीं था। इसको बाँट देने से किसी भी पक्ष का भला नहीं होगा, ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा था।
कैसे अलग था अयोध्या श्रीराम जन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
अब जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को 10 साल बीत चुके हैं, ये कहा जा सकता है कि इस मामले को उस दौरान इस तरह से ट्रीट किया गया, जैसे ये दो पड़ोसियों के मामूली जमीन विवाद का झगड़ा हो और दोनों ठीक रह सकें, इसीलिए दोनों में जमीन बाँट दी गई। जबकि, सच्चाई ये है कि राम सहस्रों वर्षों से भारत में पूजे जाते रहे हैं और 100 करोड़ हिन्दुओं के देश में उनके ही आराध्य की जमीन का अतिक्रमण कर लिया गया, और उन्हें कहा जाए कि आधा-आधा बाँट लो?
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पुराने जमाने के घुमंतुओं द्वारा लिखी गई बातों और गुरु नानक देव की अयोध्या यात्रा सहित कई साक्ष्यों का अध्ययन किया। जहाँ अयोध्या में ही मस्जिद के लिए अलग भूमि उपलब्ध कराने का आदेश दिया गया, वहीं पूरी विवादित भूमि हिन्दुओं को दी गई। सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के बाद ट्रस्ट का गठन हुआ। राम मंदिर के लिए पत्थर तराशने का कार्य तो पहले से ही चालू था, अब इसका शिलान्यास भी हो गया।
सबसे बड़ी बात कि इस पर सुप्रीम कोर्ट को घेरने के लिए लिबरलों के पास केवल वही सब मुद्दे थे, जिनके आधार पर वो हर चीज का विरोध करते हैं। समरसता की बातें की गई। समुदाय के लोगों में से कई ने इसे शरिया के खिलाफ बताया। कइयों ने बाबरी ध्वंस का मुद्दा उठाया। कुछ ने कहा कि जहाँ मस्जिद है, वहाँ आदिकाल तक मस्जिद ही रहती है। वही पुराने राग अलापने वालों ने कोई सटीक तर्क नहीं दिया। यहाँ बहस की एक घटना का जिक्र करना ज़रूरी है:
अधिवक्ता वैद्यनाथन ने ‘स्कन्द पुराण’ का उदाहरण देते बताया कि काफी पहले से सरयू में स्नान कर भगवान श्रीराम जन्मभूमि के दर्शन की परंपरा रही है। जब जस्टिस अशोक भूषण ने पूछा कि ‘स्कन्द पुराण’ कब लिखा गया था तो वैद्यनाथन ने बताया कि ये महाभारत काल में महर्षि वेद व्यास द्वारा लिखा गया। जब फिर सवाल हुआ कि इसमें देवता के दर्शन की बात क्यों नहीं है, तो वकील ने बताया कि पूरी जन्मभूमि ही देवता है।
जस्टिस भूषण ने पूछा कि इस मंदिर को बाबर ने तोड़ा था कि औरंगजेब ने, तो वैद्यनाथन ने बताया कि इस बारे में भ्रम है लेकिन ये सर्वविदित है कि अयोध्या के राजा श्रीराम थे। फ्रेंच ट्रेवलर विलियम फिंच ने अपनी भारत यात्रा (1608-11) में अयोध्या मंदिर का जिक्र किया है। जोसफ ताईफ़ेंटालर की पुस्तक का हवाला दिया गया, जिसमें भगवान श्रीराम के मंदिर के तोड़े जाने और उनमें लोगों की अटूट आस्था होने का जिक्र है।
सार ये कि सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट को ज़मीन का बँटवारा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। ये जमीन का झगड़ा नहीं था। ये अपनी आस्था के लिए, विदेशी अतिक्रमण से हुए नुकसान को ठीक करने के लिए और इतिहास में हुई गलतियों को ठीक करने के लिए लड़ी गई लड़ाई थी। इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट में इस पर व्यापक बहस हुई। कोर्ट को बताया गया कि मथुरा और काशी की तरह ही साकेत भी हिन्दुओं की आस्था का केंद्र था।
काशी-मथुरा की मुक्ति के बिना अधूरा है राम मंदिर
जब आप संस्कृत के प्राचीनकाल में सबसे लोकप्रिय व्याकरणविद पाणिनि को पढ़ेंगे तो पाएँगे कि उनके समय में मथुरा का वैभव ऐसा था, जैसा 16वीं शताब्दी की शुरुआत में विजयनगर और रोम का रहा होगा। मथुरा का फैलाव काफी बड़ा था, वहाँ ब्राह्मणों की बड़ी-बड़ी बस्तियाँ थीं और व्यापार का वो उस समय का सबसे बड़ा केंद्र था। ‘अष्टाध्यायी’ में मथुरा की भव्य परंपरा का विस्तृत वर्णन किया गया है।
ठीक इसी तरह काशी के वैभव का जिक्र सभी शैव ग्रंथों में है। मथुरा और काशी के बारे में एक और अच्छी बात ये है कि इसके प्रमाण लगभग कई सारे हिन्दू धर्म-ग्रंथों में हैं और अयोध्या से कहीं ज्यादा इसके साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं। महाभारत में मथुरा का वर्णन है। मोक्षदायिनी काशी का वर्णन कई पुराणों में है। ऐसे में अब जब इन दोनों स्थलों की मुक्ति के प्रयासों का आगाज हो चुका है, इस राह में एक बहुत बड़ी बाधा भी है।
वो बाधा है – ‘‘उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 {Places of Worship (Special Provisions) Act, 1991}, जिसके तहत किसी भी धार्मिक स्थल में परिवर्तन नहीं किया जा सकता, वो वैसा ही रहेगा, जैसा वो आज़ादी के समय था। वहाँ यथास्थिति बनी रहेगी। लेकिन, ये पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के अंतर्गत आने वाले स्थलों पर लागू नहीं होता। अयोध्या को इससे छूट दी गई थी, इसीलिए उसका केस लड़ा जा सका।
भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने दिसंबर 2019 में इसमें संशोधन करने के लिए पीएम मोदी को पत्र लिखते हुए कहा था कि ये उनके पूजा करने के मूल अधिकारों का उल्लंघन है और आपत्तिजनक है। उनका कहना था कि ‘फंडामेंटल राइट्स’ में संसद कोई बदलाव नहीं कर सकता है। उनका कहना था कि अनुच्छेद 25-26 ‘फ्रीडम ऑफ वरशिप’ प्रदान करता है, इसीलिए कोई इसे रद्द नहीं कर सकता है।
Legal fight erupts over Krishna Janambhumi, as a Hindu Group files civil suit in Mathura Court. The Hindu Group demands removal of masjid from there and land cleared. pic.twitter.com/8wcjSUAc0y
— TIMES NOW (@TimesNow) September 27, 2020
जहाँ काशी के शिवलिंग को स्वयंभू माना गया है और कहा गया है कि वो स्वयं प्रकट हुए हैं, वहाँ के ज्ञानवापी मस्जिद को देख कर ही पता चलता है कि उसका निचला हिस्सा मंदिर का है, जिसे तोड़ कर मस्जिद बनाया गया। दूसरी तरफ मथुरा के लिए अखाड़ा परिषद पक्षकार बनने के लिए विचार कर रहा है। वहाँ औरंगजेब ने मंदिर तोड़ कर शाही ईदगाह मस्जिद बनवाई थी। इसके लिए सिविल सूट भी दायर हो चुका है।
हम इसके लिए प्रार्थना कर सकते हैं कि राम मंदिर में जितने हिन्दुओं ने अपना खून बहाया, वैसा काशी-मथुरा के लिए न हो क्योंकि अब तक जिन्होंने बलिदान दिया है, उन्होंने सिर्फ अयोध्या के लिए ही नहीं दिया था। कारसेवकों पर गोली चलवाने वाले मुलायम सिंह हों या राम मंदिर के लिए अपनी सरकार कुर्बान कर देने वाले कल्याण सिंह – इतिहास में कुछ भी छिपा नहीं है। बाबरी ध्वंस के दौरान अपना खून बहाने वाले अशोक सिंघल से लेकर सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ने वाले 92 वर्षीय के पराशरण, इन वरिष्ठों का योगदान जाया न गया था और न जाएगा।
राम मंदिर के लिए संघर्ष करने वालों की गाथाओं से हम आपको समय-समय पर परिचित कराते रहे हैं, जिनमें किशोर कुणाल और केके मुहम्मद जैसे बुद्धिजीवियों से लेकर कोठरी भाइयों के बलिदान तक शामिल हैं। ये भगीरथ प्रयास, बलिदान और संघर्ष अयोध्या-काशी-मथुरा, इन तीनों के लिए था। इसीलिए, अयोध्या की लड़ाई तब तक अधूरी है, जब तक काशी और मथुरा का अतिक्रमण ख़त्म नहीं हो जाता।
फ़िलहाल मथुरा को लेकर सक्रियता दिख रही है। तभी एक तरफ इकबाल अंसारी कह रहा है कि मंदिर-मस्जिद की बात करने वाले देश की तरक्की रोक रहे, तो असदुद्दीन ओवैसी 1991 के क़ानून और मथुरा में 50 के दशक में हुए समझौते का हवाला दे रहा। कॉन्ग्रेस नेता महेश पाठक खुद को पुरोहितों का प्रतिनिधि बता कर श्रीकृष्ण जन्मभूमि याचिका की निंदा कर रहे। जो भी हो, फ़िलहाल तो – ‘काशी-मथुरा बाकी है।‘