पिछले वर्ष नवम्बर में चीन से शुरू हुआ कोरोना संकट अब अंतरराष्ट्रीय आपदा बन चुका है। आज विश्व के 196 देशों के 425,987 (वर्तमान में सक्रीय केस) लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं। विश्वभर में इस आपदा में अब तक 18,957 लोग मारे जा चुके हैं। यह संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस महामारी के कारण इटली, चीन, ईरान और स्पेन आदि देशों में जान-माल का सर्वाधिक नुकसान हुआ है। अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ़्रांस और भारत जैसे ताकतवर देश भी इससे अछूते और अप्रभावित नहीं हैं।
जिन देशों ने चीन के अनुभव से सबक लेकर जरूरी एहतियातन कदम उठा लिए हैं, उनमें काफी कम नुकसान हुआ है। दक्षिण कोरिया, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड ऐसे देशों में अग्रणी हैं। इस अंतरराष्ट्रीय आपदा ने पहले से ही मंदी की शिकार विश्व अर्थ-व्यवस्था को धराशाई कर दिया है। इस अंतरराष्ट्रीय संकट से भयभीत विश्व-मानव ठिठक-सा गया है। हालाँकि, भारत में इस महामारी की शुरुआत अपेक्षाकृत देर से हुई है। अब भारत इतिहास की इस सर्वाधिक भयावह आपदाओं में से एक आपदा के मुहाने पर खड़ा है।
इस आपदा से लड़ने और जीत हासिल करने में न सिर्फ राष्ट्रीय नेतृत्व की सक्षमता और दूरदर्शिता बल्कि प्रशासनिक कुशलता और सक्रियता की भी परीक्षा होने वाली है। इसके अलावा इस निर्णायक लड़ाई में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका भारतवासियों की होने वाली है। यह आपदा भारत के राष्ट्रीय चरित्र और संकल्प की प्रयोगशाला सिद्ध होने वाली है।
22 मार्च को रविवार के दिन प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना की कड़ी को तोड़ने के लिए ‘जनता कर्फ्यू’ और मीडिया/स्वास्थ्य/पुलिस/सफाईकर्मियों एवं परचून, दूध, फल-सब्जी आदि रोजमर्रा की वस्तुएं उपलब्ध कराने वालों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ‘थाली बजाओ-ताली बजाओ’ का आह्वान करके राष्ट्रीय चरित्र और संकल्प का परीक्षण प्रारम्भ कर दिया है।
भारतवासियों ने उनके इस आह्वान का पूर्ण पालन करते हुए अत्यंत सकारात्मक संकेत दिए हैं। ‘जनता कर्फ्यू’ और ‘थाली बजाओ-ताली बजाओ’ में देशवासियों ने उत्साहजनक भागीदारी करते हुए कोरोना संकट के खिलाफ शंखनाद किया है। हालाँकि, यह राष्ट्रीय चरित्र और संकल्प की अभिव्यक्ति की शुरुआत मात्र है। आने वाले दिन और भी मुश्किल होने वाले हैं, और आने वाली परीक्षाएँ और भी कठिन होने वाली हैं। कल ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा किए गए 21 दिनों के ‘लॉक डाउन’ से उन कठिन दिनों की भी शुरुआत हो रही है।
अगर भारतवासी इन मुश्किल दिनों और कठिन परीक्षाओं के लिए एक परिवार के रूप में, एक राष्ट्र के रूप में एकजुट होते हैं, तो कोरोना को निश्चित रूप से पराजित होना पड़ेगा। भारतीय संस्कृति के आधारभूत विचार ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के निर्णायक आत्मसातीकरण का क्षण निकट है। इस संकट की घड़ी में हमें तीन बातों का विशेष ध्यान रखना है- रोजमर्रा की वस्तुओं का अति-संग्रह नहीं करना है; अपेक्षाकृत असमर्थ, अक्षम, ‘अभागे’ लोगों/परिवारों के साथ वस्तुओं, साधनों और सुविधाओं को साझा करना है; सरकार और शासन-प्रशासन के निर्देशों का मन से अनुपालन करना है।
कोरोना संकट ने वर्तमान सभ्यता की समीक्षा का भी अवसर उपलब्ध कराया है। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण ने वर्तमान सभ्यता के स्वरूप और संवेदना का केंद्र बदल दिया है। यांत्रिकता और व्यक्तिवाद, ये दो घटक इस नई बनी सभ्यता के आधार-स्तम्भ हैं। यांत्रिकता और व्यक्तिवाद की गिरफ़्त में हाँफती इस सभ्यता की धमनियों में उपभोक्तावाद संचारित हो रहा है।
वास्तव में यह यांत्रिक सभ्यता उपभोक्तावाद का उपनिवेश है। इसकी सांसों में धुआँ उड़ाते असंख्य वाहनों की दुर्गन्ध और कानों में कोलाहल है। पिघलते ग्लेशियरों, कटते जंगलों और उजड़ते पशु-पक्षियों की कराह इस सभ्यता की उपलब्धि है। असीम उत्पादन, अति संचय और अंध उपभोग ने विश्व-मानव का अवमूल्यन करके उसे उपभोक्ता मात्र बना दिया है।
क्रमशः क्षरित मनुष्यता ने इस आत्मजीवा इकाई को आत्म-निर्वासित कर दिया है। अपनी भौतिक प्राप्तियों को सेलिब्रेट करती यह सभ्यता बेहद अकेली, उदास और अवसादग्रस्त है। यह विडम्बना ही है कि आवागमन के साधनों की अनवरत उन्नति, संचार माध्यमों की अकल्पनीय प्रगति और सोशल मीडिया माध्यमों की अबाध उपलब्धता के बावजूद दिलों की दूरियाँ बढ़ती ही जा रही हैं।
सामाजिकता और आत्मीय संवाद रहित सभ्यता अपने अकेलेपन में अवाक् है। भौतिक साधन-सुविधाओं की दासता और उनके अधि-ग्रहण ने मनुष्य को न सिर्फ समाज और परिवार से दूर कर दिया है, बल्कि स्वयं से भी अलगा दिया है। आत्मीय संबंधों से रहित आत्म-निर्वासित मनुष्य एक रोबोट बन गया है। निश्चय ही, वर्तमान सभ्यता अति भौतिकता, अति यांत्रिकता और अति बौद्धिकता से आक्रांत है। भरी-भरी और सुखी-संतृप्त दिखने पर भी खाली, खोखली, व्यथित और बेचैन…!
ऐसी सभ्यताएँ किसी भी आपदा या आक्रमण के लिए सर्वाधिक भेद्य होती हैं। इसलिए अगर समय रहते सभ्यता समीक्षा करते हुए इसके चाल-चलन को ठीक न किया गया तो इसका हस्र भी माया, बेबिलोनिया, मेसोपोटामिया, इन्का आदि सभ्यताओं वाला ही होगा।
इस सभ्यता को अपनी गति को थामकर तनिक आत्म-चिंतन करने की आवश्यकता है। कोरोना की आपदा ने वह अवसर उपलब्ध कराया है। जिनके पास खाने-पीने तक का समय न था, परिवार से बोलने-बतियाने और स्वयं तक को जानने-समझने की फुर्सत न थी, वे हाथ-पर-हाथ धरकर घर में बैठे हैं और सोच रहे हैं कि उनकी दुनिया कितनी प्रदूषित और संक्रमित हो गई है।
‘वर्ल्ड इज वन न्यूज़ (WION)’ नामक चैनल ने इधर प्रसारित की गई अपनी एक ताजा रिपोर्ट में लोगों की गतिविधियाँ सीमित हो जाने के बाद प्रकृति के स्वरूप में आए सकारात्मक परिवर्तन को दिखाया है। इस रिपोर्ट में दिखाया गया है कि लोगों की भागमभाग और भीड़भाड़ कम हो जाने से समुद्र तटों, पहाड़ों और सड़कों का चेहरा एकदम बदल गया है। वह फिर से सुन्दर, सुरम्य और शांत होने लगा है।
प्रकृति मनुष्य की सबसे निकटस्थ मित्र और सहचरी होती है। परन्तु अत्यधिक दोहन और शोषण करके मनुष्य ने उसे अपना शत्रु बना लिया है। असंतुलित विकास और जनसंख्या विस्फोट ने कोढ़ में खाज का काम किया है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है? आज यह बात सर्वाधिक विचारणीय और प्रासंगिक है कि इस दुनिया को सुन्दर और जीने लायक कैसे बनाया जा सकता है!
प्राचीनतम भारतीय संस्कृति और उसके जीवन-मूल्य इस हाँफती-जूझती सभ्यता के घावों पर मलहम लगा सकते हैं। स्वयं भारतवासियों को भी अपनी उन जड़ों की और लौटना होगा, जिनको कि वे कालिदास बनकर रात-दिन काटने में लगे हैं। गौतम बुद्ध, महात्मा गाँधी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन और चिंतन में ऐसे एकाधिक सूत्र हैं, जो रोबोट बने विश्व-मानव को राह दिखा सकते हैं।
गौतम बुद्ध का ‘अष्टांग मार्ग’, महात्मा गाँधी का ‘हिन्द स्वराज’ और पंडित दीनदयाल उपाध्याय का ‘एकात्म मानव-दर्शन’ अंध-सभ्यता के ज्योतिपुंज हैं। इनका जीवन और चिन्तन भारतीय संस्कृति का सारभूत है। ‘मध्यमार्ग’ के अनुकरण में ही वर्तमान सभ्यता की गति है। सीमित उत्पादन और संयमित उपभोग ही भविष्य का मार्ग है। व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि और परमेष्टि की एकात्मता से ही जीवन को उन्नत और आनंदमय बनाया जा सकता है।
सत्य, अहिंसा, बंधुत्व, अस्तेय और अपरिग्रह आदि को अपनाकर ही इस हिंस्र सभ्यता को मानवीय बनाया जा सकता है। मानव–सभ्यता को तनिक ठहरने और विचारने का जो अवसर कोरोना संकट ने दिया है, उसे यूँ ही हाथ से फिसल न जाने देना चाहिए, बल्कि वैकल्पिक जीवन-शैली और मानवीय संकल्पों की उद्गम-स्थली बनाना चाहिए।