1892 में ओटोमन साम्राज्य में एक व्यक्ति ने बुर्क़े की सहारा लेकर डकैती की कोशिश की। कहते हैं कि उस समय के सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय ने बुर्क़े पर प्रतिबंध लगा दिया। अगर आधुनिक दौर की बात करें तो बुर्क़े का सहारा लेकर 1937 में अमीन अल हुसैनी नामक अपराधी फ़िलिस्तीन से बुर्क़ा पहन कर भागने में सफल हुआ और लेबनान जाकर नाज़ी समर्थित गतिविधियों में शामिल रहा। उसके बाद 1948 के एक वाकये में इराक़ी सेना ने बुर्क़ा पहन कर फ़िलिस्तीन में घुसपैठ किया।
इसके बाद लंदन, टोरंटों, पुणे, ग्लासगो, फिलाडेल्फिया से ज़ेवरों की चोरी से लेकर, दुकानों से दारू चुराने, लाहौर में चर्चों पर बम फेंकने, कहीं बच्चे चुराने, कहीं किसी आतंकी को जेल से भगाने, सैनिकों और पुलिसकर्मियों को अफ़ग़ानिस्तान में कई बार बम से उड़ाने, पैंपोर पुलिस चीफ़ मंजूर अहमद को मारने, एवम् दसियों बार बैंकों में डाका डालने से लेकर ब्रिटेन से संदिग्ध आतंकी यासिन ओमर का भाग निकलने, पाकिस्तान में 2007 में बन्नू में 15 को मारने, पेशावर चेकप्वाइंट पर तालिबानी महिला के खुद को उड़ाने, रोटरडम में पॉकेटमारी में अचानक वृद्धि आने, कर्बला जाते हुए इस्कंदरिया में इराकी शिया श्रद्धालुओं की सुसाइड बॉम्बिंग, मुंबई हमले, जॉर्डन में 2008-9 में 50 लोगों द्वारा 170 अपराधी वारदातें, सोमालिया के 2009 वाले होटल बॉम्बिंग में, सिंगापुर के आतंकी क़ैदी के भागने में, 2010 में पाकिस्तान के खार में 41 लोगों की सुसाइड बॉम्बिंग में हत्या, उसी दिसंबर में सउदी पुलिस पर गोली चलाने में, 2011 में सोमालिया के आंतरिक मंत्री की हत्या में, उसी साल पाकिस्तान में बम धमाकों की जाँच करती पुलिस टोली पर महिला बमबाजों के हमले में, काबुल के रिसॉर्ट होटल पर हमले में, इस्ताम्बुल पुलिस स्टेशन पर 2015 के सुसाइड बॉम्बिंग में, बोको हरम के जिहादियों के भागने में, सउदी मस्जिद पर हुए आत्मघाती हमले में, चैड के अंज़ेमीना बाजार के धमाके में, येमेन के सना में शिया मस्जिद पर हुए हमले में, बलूचिस्तान के इमामबर्गा शिया मस्जिद की सुसाइड बॉम्बिंग में, इंडोनेशियाई बलात्कारी और क़ातिल अनवर के जेल से भागने में, इराक़ के पश्चिमी अनबर इलाके में विस्थापित लोगों के कैम्प पर हुए सुसाइड बॉम्बिंग में पेशावर के कृषि कॉलेज पर हुए तालिबानी हमले में, अफ़ग़ानिस्तान के शिया मस्जिद पर हुए टेरर अटैक में, श्री लंका के ईस्टर हमलों में… सबमें एक ही चीज कॉमन है: बुर्क़ा।
इसमें दसियों मामले ऐसे हैं जो बैंकों में डकैती से लेकर घड़ियाँ छीन कर भागने और बुर्क़े में होने का लाभ उठाकर पॉकेटमारी तक के हैं। पूरे यूरोप और अमेरिका में बैंकों में डाका डालने का यह एक पसंदीदा तरीक़ा है क्योंकि इस पर आप सवाल नहीं कर सकते। सवाल इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि आपको संवेदनहीन से लेकर बिगट और रेसिस्ट तक के टैग झेलने पड़ सकते हैं।
जिस तुर्की के चाँद को देख कर भारत के लोग ईद मनाते थे, वहाँ भी हिजाब या किसी भी तरह के वैसे कपड़े पर प्रतिबंध लगा, हटा और फिर लग गया जिससे लोगों की पहचान छुपती हो। साथ ही ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, फ़्रान्स, बेल्जियम, ताजिकिस्तान, लातविया, बुल्गारिया, कैमरून, चैड, कॉन्गो-ब्रैज़ाविल, गेबोन, नीदरलैंड्स, चीन, मोरक्को और श्री लंका में बुर्क़े पर प्रतिबंध है।
इन सारी जगहों पर प्रतिबंध का मुख्य कारण अपराध या आतंक ही है जो कि बुर्क़े की ओट में होता रहा है। ये सारी सूचनाएँ आपको बहुत ही आसानी से एक ही जगह, सारे लिंक्स के साथ यहाँ मिल जाएँगी। मुझे इस आर्टिकल को स्क्रॉल करने में क़रीब साढ़े तीन मिनट लगे, पढ़ने की बात तो खैर रहने ही दीजिए।
आप गूगल पर कुछ शब्द टाइप करेंगे जिसमें बुर्क़ा, क्राइम, टेरर आदि हैं, और आपके लिए सैकड़ों खबरें आ जाएँगी जिसके केन्द्र में एक ऐसा लिबास है जो आपके सर के बालों से लेकर चप्पलों के रंग तक को छुपा लेता है मज़हब के नाम पर। आप सवाल करेंगे तो आपको साम्प्रदायिक कहा जाएगा, आपको कहा जाएगा कि तुम्हें दूसरी संस्कृतियों का सम्मान करना चाहिए। आपको संवेदनहीन कहा जाएगा और आप पर तमाम अंग्रेज़ी ठप्पे लग जाएँगे जिसका मतलब न तो सुनाने वाले को पता है, न आपको। ट्विटर पर ऐसे विशेषण टहलते रहते हैं तो लोग बिना अर्थ जाने भी फेंक कर मारते हैं।
अब गूगल पर बुर्क़ा हटा दीजिए और जावेद अख़्तर द्वारा दिए गए बयान वाला ‘घूँघट’ टाइप कर दीजिए। कुछ परिणाम नहीं आएगा सिवाय उन चंद वामपंथी लेखों के जिसमें घूँघट को बंधन, पिछड़ेपन, पितृसत्ता और दासता की निशानी बताया जा रहा होगा। इन्हीं पोर्टलों और वेबसाइटों पर आपको अनिएसा हसीबुआँ के डिज़ायनर हिजाबों द्वारा 2016 न्यूयॉर्क फ़ैशन वीक में समुदाय विशेष की महिलाओं के सशक्तीकरण की बात मिल जाएगी कि आप हिजाबों में भी अब डिजाइन चुन सकते हैं। फिर आपको 2017 में नाइकी द्वारा नए सशक्तीकरण और महिला एथलीटों को ‘इनेबल’ करने के लिए डिज़ायनर हिजाब पर लेख मिल जाएँगे।
हिजाब और बुर्क़ा इनेबलर हैं, समुदाय विशेष की महिलाओं को डिज़ायनर सशक्तीकरण देते हैं क्योंकि अब उनके पास गर्मी में किस रंग और डिजाइन के बुर्क़े में पसीने से तर होना है, इसके लिए विकल्प हैं। अब हिजाब द्वारा सर का ढका रहना अपनी तथाकथित कल्चरल आइडेंटिटी को बरक़रार रखने की तरफ एक सशक्त क़दम है। लेकिन घूँघट! वो तो बंधन की निशानी है, उसका संस्कृति से कोई मतलब नहीं, पब्लिक में अपने सर और शरीर को ढकना सनुदाय विशेष की महिलाओं का चुनाव है, हिन्दुओं को लिए वही सर ढकना पितृसत्ता की एक पीछे ले जाती सोच।
यही कारण है कि आम तौर पर अपने आप को एथीईस्ट मानने वाले जावेद अख़्तर ने श्रीलंका द्वारा बुर्क़े पर लगे प्रतिबंध के बाद, शिवसेना द्वारा भारत में भी इस पर प्रतिबंध लगाने की बात पर घूँघट को बुर्क़े के समकक्ष ला दिया है। उन्होंने कहा है कि दोनों पर बैन लगना चाहिए, अगर बुर्क़ा पर लगाना ही है तो।
जावेद अख़्तर गीत लिखते हैं, फ़िल्मों की पटकथा भी लिखते रहे हैं जिसमें उन्होंने कुछ पीढ़ियों को सहज रूप से यह बताया कि ब्राह्मण, बनिया आदि व्यभिचारी और सूदखोर ही होते हैं, लेकिन अहमद, एंथनी जैसे लोग दयालु, दानी और परोपकारी होते हैं। जिनको लगता है कि यह संयोग मात्र है उनसे कहूँगा कि जावेद साहब द्वारा लिखी फ़िल्मों को दोबारा देखें और उनमें नायकों और बाकी के छोटे नायक/नायिकाओं के नाम और आचरण पर ध्यान दें।
ये सारी बातें इतने सूक्ष्म रूप से फ़िल्मों में डाली गईं हैं कि हम ये मानने लगे कि बनिया तो सूदखोर और अत्याचारी ही होता है, और पंडितों का काम है आँखों में धूल झोंक कर पैसे कमाना। वहीं, ईसाई और समुदाय विशेष का पात्र आपको कभी लाचार, गरीब बच्चे को पालता दिखेगा, या फिर खुदा से दो बेटे माँगता जो देश पर शहीद हो जाए। मुझे इस बात से गुरेज़ नहीं कि ईसाई या समुदाय विशेष वाले नाम के पात्र अच्छे दिखाए जाते हैं। बिलकुल दिखाए जाने चाहिए ताकि समाज में व्याप्त भेदभाव मिटे, लेकिन हर ब्राह्मण ने सबको लूटा, हर बनिए ने सबका पैसा मारा, ऐसा मैं नहीं मानता।
खैर, आगे बढ़ते हुए जावेद अख़्तर जी को बुर्क़े की चर्चा में घूँघट को घुसाने के लिए तो ‘नमन रहेगा’। पहली बात यह है कि लेखक हो कर भी संदर्भ कैसे भूल गए जावेद जी? संदर्भ यह है कि बुर्क़े का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों के लिए होता है और वो किसी भी देश की सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं। दूसरी बात यह है कि बुर्क़ा इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है, बल्कि मज़हब के कुछ ठेकेदारों की करतूत है। ये एक थोपी हुई परम्परा है जिसमें महिलाओं को एक वस्तु की तरह मान कर, उसे कैसे बाहर में जाना चाहिए, इस पर मर्दों ने साज़िशन एक नियम बना दिया है। ये वैसा ही है जैसे तीन तलाक और निकाह हलाला जिसमें कई बार मौलवी साहब ही हलाला की रस्म पूरी कर रहे होते हैं।
बुर्क़ा की बनावट ऐसी है कि उसमें चेहरा तो छोड़िए आदमी ही गायब हो जाता है। उसके भीतर अगर आपने बमों से लैस बेल्ट बाँध लिया हो, आरडीएक्स या आईईडी बैग में लेकर घूम रहे हों, विस्फोटकों को एक जगह से दूसरी जगह ले जा रहे हों, भीड़ भरी जगह में आ जा रहे हों जहाँ कैमरा तक लगा हुआ है, आप पर संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके भीतर एक गर्भवती महिला हो सकती है, एक मोटी महिला हो सकती है, या एक एक महिला हो सकती है जो कोई सामान पीठ पर रखे हुए है। बुर्क़े के भीतर कुछ भी हो सकता है लेकिन आपको यही मानना होगा कि भीतर एक मुस्लिम महिला है जिसे उसका मज़हब इसी तरीके से उनके कल्चर को ढोने के लिए निर्देश देता है।
यूँ तो जावेद साहब ने घूँघट शब्द पर डायलॉग और गाने दोनों ही लिखे होंगे, फिर भी लगता है कि अपनी साम्प्रदायिकता में वो यह भूल गए कि आज तक किसी महिला ने घूँघट ओढ़ कर ‘जय श्री राम’ कहते हुए बाज़ार में खुद को बम से नहीं उड़ाया। आज तक किसी भी महिला की ऐसी तस्वीर नहीं मिली जिसमें वो घूँघट काढ़ कर चेहरे पर आरडीएक्स बाँध कर चर्चों में घुस रही हो। आज तक पुलिस ने एक स्केच जारी नहीं किया है जिसमें साड़ी का घूँघट बनाए एक महिला ने सर पर कूकर प्रेशर बम रखा हो जिसे उसने एक मस्जिद के सामने फोड़ दिया हो।
जानते हैं जावेद जी ऐसा क्यों है? पहली बात तो यह है कि हिन्दुओं ने कभी भी धर्म के नाम पर आतंक नहीं मचाया है। आपके दोस्तों ने एक टर्म ज़रूर बनाया था, पर सत्य सामने आ गया। दूसरी बात यह है कि घूँघट के नीचे सच में बम नहीं छुपाया जा सकता। न तो ऐसा हो सकता है, न ही एक हिन्दी फिल्म की नायिका के साड़ी (या घाघरे) के नीचे जाँघ पर रायफल बाँधने के अलावा कोई उदाहरण मुझे याद आता है जिसमें ऐसी कोई वारदात हुई हो।
इसलिए, जब आपके जैसे लोग इस तरह की बातें करते हैं तो आप हर दिन अपनी क्रेडिबिलटी खोते हैं। आपका झूठ सामने आता है कि आप एथीईस्ट हैं जबकि आप भीतर से ‘मजहबी’ हैं जिसे इस बात की चिंता है कि बुर्क़ा तो इस्लाम का अंग है, इसे कैसे हटा देगा कोई। हमें इससे मतलब नहीं है जावेद जी कि बुर्क़ा हटे या रहे। समय आने पर समुदाय विशेष की महिलाएँ खुद सड़क पर आएँगी कि उन्हें गर्मियों में सोलर कूकर नहीं बनना और उन्हें हवा के थपेड़ों को अपने चेहरे पर महसूस करना है।
वो समय हो सकता है सौ साल बाद आए। लेकिन तब तक, दो बातों को, संदर्भ से बिलकुल हटा कर, अपनी अश्लील हँसी के साथ परोसना बंद कीजिए। ध्यान रहे कि बुर्कों का इस्तेमाल बम फोड़ने के लिए होता रहा है, घूँघट राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला नहीं है।