करीब तीन महीने से दिल्ली फैज़ और मिर्ज़ा ग़ालिब को समर्पित रही। अब तीन महीने बाद मुझे भी कुछ लेखक याद आ रहे हैं। दिल्ली का वर्णन करते हुए रामशंकर विद्रोही ने लिखा था –
“दिल्ली ऐबको की है
ये दिल्ली इल्तुतमिश की है
ये दिल्ली लगती है जैसे
ये रज़िया सुल्ताना दिल्ली है
ये दिल्ली बलबनो की है
वफादारों की दिल्ली है “
दंगा साहित्यकारों की ‘ऐबकों’ की इस दिल्ली में आज फिर हिंदुओं को घर की महिलाओं को छुपाना पड़ा, तलवारें लिए ‘बलबनों’ के आगे लोगों को जिंदा रहने के लिए अपने नाम बदलने पड़े, घरों को चिन्हित होने से बचाने के लिए आक्रान्ताओं की हाँ में हाँ मिलानी पड़ी, माथे से तिलक और हाथों से कलावा उतारने पड़े… मंदिरों को ‘खिलजियों’ ने जलाकर राख कर दिया। इस तरह एक बार फिर भारत की धर्म निरपेक्षता हिंदुओं के साथ होने वाला सबसे भद्दा मजाक बनकर रह गया है।
देश का एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जो दिल्ली में हुए हिन्दू-विरोधी दंगों को अभी तक सेक्युलर चश्मे से देख रहा है और इसकी सच्चाई देखकर चाहता है कि और लोग भी इस हिन्दू-विरोधी दंगों को उसी चश्मे से देखें। उनके पास ऐसा करने की कुछ व्यक्तिगत वजह हैं, जैसे अपने विचारक वर्ग की स्वीकृति का पात्र बने रहना, अपने पियर ग्रुप्स के बीच हिंदुओं को मुस्लिमों के प्रति असहिष्णु बताकर अपनी सभ्यता का परिचय देना… सोशल मीडिया पर सेक्युलर टेस्ट में अच्छे नम्बर लाकर सोशल मीडिया के लेफ्ट-लिबरल गिरोह के परीक्षण में पास होना इत्यादि।
ऑपइंडिया ने फैसला किया कि वह दंगों में पीड़ितों के परिवारों से जाकर सम्पर्क स्थापित करेंगे और जानने की कोशिश की कि क्या समाज के ढाँचे में वास्तव में वह गैप मौजूद है, जो लोगों को इतनी निर्ममता से मारने पर मजबूर कर देता है? हमारी ग्राउंड रिपोर्ट्स में पता चला कि यह खाई तो वाकई में बहुत बड़ी थी, और इस खाई को और बड़ा करने की कोशिशें दूसरी तरफ से बहुत पहले से की जा रहीं थीं।
हम उस देश मे रहते हैं जहाँ सेक्युलरिज़्म की परिभाषा एक मजहब के लोगों के सुबह चार बजे स्पीकर्स पर ‘अलार्म’ बजाने से दूसरे धर्म के लोगों को उठाया जाना है और दिन में मिलकर इसे गंगा-जमुनी तहजीब नाम दे दिया जाता है ताकि उस धर्म के लोगों को आपत्ति करने अधिकार उनकी असहिष्णुता साबित कर दी जा सके। लेकिन अगर हमारे मुल्क में कोई इस तरह की तहजीब वास्तव में मौजूद है तो फिर हिंदुओं के घरों को चिन्हित करने वाले लोग कौन थे?
क्या उत्तर पूर्वी दिल्ली में सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं के मन्दिर, घरों, दुकानों और स्कूलों निशाना लगाकर उन पर हमला करने वाले कोई विदेशी नागरिक थे? अगर वो भारत के ही थे तो क्या उनकी शिक्षा में गाँधी का अहिंसावादी मॉडल शामिल नहीं है? या गाँधी भी सिर्फ हिन्दुओं के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं? ‘कुदरती गुलेलों‘ के लिए कई महीनों से ट्रैक्टर में पत्थर भरकर लाने वाले, पेट्रोल बम की आपूर्ति कराने वाली ताहिर हुसैन जैसे नेताओं की ‘सेक्युलर छतें’ इस दूसरे ‘प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस’ की तैयारियाँ किस कारण से कर रहीं थीं? गंगा-जमुनी तहजीब की कहानी आईबी अधिकारी अंकित शर्मा की निर्मम हत्या से लेकर उत्तराखंड के दिलबर सिंह नेगी की जली हुई लाश खूब बता रही है।
दिल्ली में हुए हिन्दू विरोधी दंगों की हकीकत रवीश कुमार जैसे सभ्य प्रपंचकारियों से लेकर सोशल मीडिया पर दिन-रात हिंदुओं को कोसने वाले जानते हैं। जिस गैस चेम्बर से लेकर भारत मे फासीवाद के उदय पर देश का एक विशेष गिरोह दंगा-साहित्य लिखता रहा, दिल्ली के दंगे उन्हीं अफवाहों की परिणति हैं। आज सुबह ही दंगों में मृतक दिलबर सिंह नेगी के जलकर राख हुए शरीर का वीडियो सामने आया है। क्रूरता की हद देखिए कि उनके दोनों हाथ-पैर काटकर, जिंदा शरीर के बाकी हिस्से को जलती दुकान में फेंक दिया गया। इस बर्बरता को याद रखें, यह सब हिन्दू विरोध के नाम पर शुरू हुआ था।
दूसरी ओर इसी देश में मुस्लिमों के विशेषाधिकारों को भी देखिए, वो आज भी शरीयत के आगे संविधान को हीन मानते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पहले तीन तलाक बिल पर बना कानून था और अब हिंदुओं को नागरिकता देने की बात पर करीब तीन महीने से चल रहा शाहीन बाग का बिरियानी महोत्सव है। सेक्युलरिज़्म का नाम मैंने कुछ गिने-चुने मुस्लिम लोगों के मुँह से भी सिर्फ गत 2-3 सालों में ही सुना होगा, वो भी सिर्फ तब-तब इस्तेमाल किया जाता है, जब धर्म निरपेक्षों के अपने दाँव उल्टे पड़ जाते हैं।
उदाहरण के तौर पर कुछ दिन पहले ही ‘हम जिंदा कौमें हैं ..‘ और ‘सब बुत उठवाए जाएँगे, सब तख्त गिराए जाएँगे‘ जैसी सेक्युलर शायरी पढ़ने वाले गालिब-वादी भी पुलिस की प्रतिक्रिया पर ‘सेक्युलरिज़्म’ और अल्पसंख्यक शब्द का विक्टिम कार्ड खेलते देखे गए हैं।
शाहीनबाग से शुरू हुए ‘फ़क हिंदुत्व’ और इस्लामिक नारे इन विभत्स घटनाओं के जिम्मेदार हैं। याद रखें, और भूलें नहीं कि यह हिन्दू विरोधी दंगे थे। आईबी अधिकारी अंकित शर्मा का 400 बार शरीर चाकू से गोदा गया, एक अन्य हिन्दू का शरीर काटकर आग के हवाले कर दिया गया। 19 साल के विवेक के सिर में ड्रिल मशीन घोंपी गई। हिंदुओं को दंगाइयों से अपनी जान बचाने के लिए अपने नाम इमरान बताने पड़े, हाथों से कलावा खोलना पड़ा।
ध्यान दें, ये सब इसी सेक्युलर राष्ट्र में उन हिंदुओं के साथ हुआ है, जिन्हें प्राइम टाइम में बेहद सभ्य भाषा में फासिस्ट बताते हुए उनके खिलाफ निरंतर घृणा भरी जाती है। देश का लेफ्ट लिबरल ‘वॉक प्रोग्रेसिव’ युवा बॉलीवुड की फिल्मों से बहुत प्रभावित होता है, तो फ़िल्म का ही उदाहरण देता हूँ। जिस तरह थप्पड़ फ़िल्म से उदारवादियों ने सीखा होगा कि रिश्ता बचाना सिर्फ महिलाओं की जिम्मेदारी नहीं होती, ठीक उसी तरह सेक्युलरिज़्म की पहरेदारी भी अकेली हिंदुओं की जिम्मेदारी नहीं है। और हर बार यह थप्पड़ हिन्दुओं के ही गाल पर ही मारा जाता रहा है। इसमें यह संभव नहीं है कि एक समुदाय विशेष हिन्दुओं के घरों को जलाने के लिए उन्हें चिन्हित कर जला दे और बदले में हिन्दू जाकर उसे गले लगा आए। यह दंगा-साहित्य कुछ पुरस्कार जीतने के लिए लिखी गई किताबों तक सीमित रहे, मानवता के लिए उनका योगदान उतना ही काफी माना जाएगा।
2014 से ही देश का यही विचारक वर्ग आज एकदम नग्न नजर आ रहा है। रवीश कुमार जैसे धूर्त जिस तरह लोकसभा चुनाव की शाम की आखिरी पेटी खुलने तक नरेंद्र मोदी सरकार के हारने के ख्वाब देखता रहा, उसी तरह वो आठ राउंड फायरिंग करने काले शाहरुख को अनुराग मिश्रा साबित करने की कोशिश करते हुए देखा गया है।
देश का छोड़िए, धर्म निरपेक्षता की हक़ीक़त उस दिल्ली से पूछिए जिसकी मिट्टी में जिहाद और तख़्त-ए-ताऊस की खातिर बाबर से लेकर अकबर और औरंगजेब जैसों के रक्तपात से सींचा गया। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि पाँच सौ सालों में भी कुछ खास नहीं बदला है, दिल्ली की जमीन पर तब भी हिंदुओं का खून गिरता था, आज भी हिन्दुओं का खून गिरा है। उसी ‘बलबन’ और ‘ऐबकों’ की दिल्ली में, जिस की धर्म निरपेक्षता पर इतिहास से ज्यादा ‘लिबरल साहित्य’ लिखा गया है।
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