रामनवमी हुई। हर साल हुआ करती थी। पिछले साल रामनवमी खबरों में आई। कारण राम नहीं, मजहबी लोग थे। बिहार और बंगाल में पिछले साल रामनवमी में लोगों ने दंगे किए। पाँच लोग बंगाल में मरे। उसी समय बिहार में भी छिटपुट झड़पें हुईं जिसमें मारपीट की वारदातें हुईं (कोई मरा नहीं)। महान पत्रकार, और हिन्दी पत्रकारिता के स्वघोषित स्तम्भ श्री रवीश कुमार जी ने प्राइम टाइम और लेखों की झड़ी लगाकर बिहारियों को चिट्ठी लिख दी थी। जबकि पाँच लोगों की मौत वालें दंगे पर एक शब्द नहीं निकला।
बंगाल में उसी समय के आस पास बर्धमान, धूलागढ़ में दंगे और बाकी जगहों पर चुनावी हिंसा चरम पर थी। रवीश की क़लम में उबाल आया, और उन्होंने बिहारियों से प्रार्थना करते हुए बंगाल पर भी लिखा, लेकिन जैसी तीक्ष्णता बिहार के हुक्मरान को गरियाने में दिखी, बंगाल में इन्हें पता ही नहीं चला कि किस पार्टी का शासन है, किसकी पार्टी के लोग किसको मार और काट रहे हैं चुनावों में। रवीश तक सूचना ही नहीं पहुँची।
इस साल भी रामनवमी आई। इस साल फिर से रामनवमी चर्चा में रही। इस साल फिर चर्चा का कारण समुदाय विशेष वाले ही थे। कट्टरपंथी पत्थरबाज़, जिन्हें क्यूट लोग ‘रेडिकल्स’ कहा करते हैं। कट्टरपंथी पत्थरबाज़ों ने रामगढ़ में रामनवमी में पत्थरबाज़ी की। कसमारा में मस्जिद के सामने से जुलूस निकलाने पर आपत्ति दर्ज की जैसे कि हुकूमत ख़लीफ़ा की चल रही हो, उस भारत सरकार की नहीं जिसने जुलूस निकालने की इजाज़त दी थी। सूरसागर में जुलूस पर पत्थरबाज़ी हुई और गाड़ियों में आग लगा दिया गया।
किसी अच्छे कट्टरपंथी ने निंदा नहीं की। वो तो आतंकी हमलों की भी निंदा नहीं कर पाते। वो बस बताते हैं कि कौन अच्छा कट्टरपंथी है, और जिसने कुछ भी ग़ैरक़ानूनी या आतंकी किया, उसे ये ‘मजहबी’ मानने से इनकार कर देते हैं। हाँ, सैफ्रन टेरर होता है, हिन्दू इन्हें हर जगह लिंच कर देते हैं, मोदी राज में ये बहुत डर से जी रहे हैं।
सितम्बर 2017 के रामगंज, जयपुर के दंगे भी याद आते हैं जब पूरी रात इन्होंने पुलिस थाने को ही बंधक बना लिया था और आगजनी, दंगे और हिंसा के बाद इनके दबाव के कारण प्रशासन को केस वापस लेने पड़े, और दंगाइयों को छोड़ना पड़ा। पत्थरबाज़ी और आगजनी से इन्होंने पंद्रह मिनट में पूरी भीड़ जुटा ली, इलाके में बवाल काटा, और फिर प्रशासन मूक बना रहा।
मैं क्यों गिना रहा हूँ ये दंगे और मज़हब? वो इसलिए कि असहिष्णुता का ठप्पा उस पर पड़ा है जिसने इन अल्पसंख्यकों के हर आतंक को चुपचाप सहा है, और पोलिटिकली करेक्ट होने के चक्कर में ये कहते-कहते पीढ़ियाँ निकाल दीं कि आतंक का कोई मज़हब नहीं होता। हर आतंकी और उसका संगठन एक ही नारा लेकर निकलता है, काले झंडे पर सफ़ेद रंग से लिखा वाक्य क्या है, सबको पता है। बोल नहीं सकते, वरना ‘बिगट’ और ‘कम्यूनल’ होने का ठप्पा तुरंत लग जाएगा।
छिट-पुट सामाजिक हिंसा को धार्मिक रंग देकर त्रिशूल पर कंडोम टाँगा गया, अख़लाक़ की भीड़हत्या पर पूरा हिन्दू समाज ज़िम्मेदार हुआ, उना के दलित की पिटाई का ज़िम्मा भी सारे हिन्दू समाज पर, सीट की लड़ाई में मरे जुनैद का ज़िम्मा भी हिन्दुओं के सर… लेकिन प्रशांत पुजारी, डॉक्टर नारंग, अंकित सक्सेना, और दर्जन भर से ज़्यादा हिन्दुओं की भीड़हत्या का ज़िम्मा इस्लाम पर कभी नहीं पड़ा क्योंकि हमें पोलिटिकली करेक्ट होने का रोग है।
अख़लाक़ के बाद भी साम्प्रदायिक घटनाएँ हुईं। कहीं दंगे हुए, कहीं एक हिन्दू लड़की को चौदह समुदाय विशेष वाले लड़कों ने ये पूछकर सरेराह छेड़ा, हाथ लगाया, दुपट्टा खींचा कि उसका बुर्क़ा कहाँ है। कहीं प्रशांत पुजारी को काट दिया गया क्योंकि वो आरएसएस का था। डॉक्टर नारंग को घर से खींचकर इस्लामी भीड़ ने मार दिया। जीटीबी नगर मेट्रो स्टेशन के पास एक हिन्दू ई-रिक्शाचालक के कुछ मजहबी युवकों ने इतना मारा कि वो मर गया। कासगंज में चंदन को ‘शंतिप्रियों’ ने मार दिया। अंकित को उसकी गर्लफ़्रेंड के समुदाय विशेष के परिवार वालों ने बीच सड़क पर गला रेत कर, चाकुओं से गोदकर मार दिया।
इन पर्वों में अब पत्थरबाज़ी आम क्यों हो गई है? क्योंकि ‘शांतिप्रिय’ डरा हुआ है? ‘शंतिप्रियों’ में मोदी सरकार में इस तरह का भय है कि वो दुर्गा विसर्जन से लेकर सरस्वती पूजा, होली, दिवाली और रामनवमी का इंतज़ार करते हैं और पत्थरबाज़ी करते हैं। ये अपने आप में अलग स्तर का भय है। ये भय इस स्तर का है कि ये भयाक्रांत लोग हिन्दुओं को हर पर्व पर पत्थरबाज़ी और दंगे भड़का कर अपने डर का इज़हार कर देते हैं।
ये नैरेटिव नहीं बन पाता क्योंकि कट्टरपंथियों का इस देश के बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के समुदाय विशेष में दूध-भात है। अल्पसंख्यक के नाम पर जो मार-काट और हिंसा इन्होंने हर पर्व पर फैलाई है, वो महज़ घटनाएँ नहीं हैं, ये सिग्नेचर है, ये स्टेटमेंट हैं, शक्तिप्रदर्शन है कि देखो हम क्या कर सकते हैं, और तुम क्या कर लोगे।
इसका कारण भी बहुत अजीब है कि इन्हें ये कॉन्फ़िडेंस मिलता कहाँ से है। ये कॉन्फ़िडेंस इन्हें रामचंद्र गुहा टाइप के लुच्चे कहानीकार देते हैं, ये कॉन्फिडेंन्स इन्हें राजदीप, बरखा, रवीश सरीखे लोग और फेसबुक पर टहलते वैसे युवा देते हैं जिन्हें एक ही तरह की खबरें सुनाने और पढ़ने का शौक है। पूरा माहौल बनाया जाता है कि मोदी के आने के बाद ही सब कुछ हो रहा है, जबकि ऐसा कुछ नहीं है।
चूँकि आप अभी ही किशोरावस्था से जवानी में पहुँचे हैं, तो दुनिया अभी ही शुरु नहीं हुई है। चूँकि आपने अभी ही खबरें पढ़नी शुरु की हैं, तो ज़रूरी नहीं कि वारदातों का होना भी आज ही शुरु हुआ है। चूँकि आपने रवीश का प्राइम टाइम ही देखा है, तो उसका मतलब यह नहीं बाकी कोई और पत्रकारिता कर ही नहीं रहा। चूँकि, कोई कह दे रहा है कि भले ही घटनाएँ कॉन्ग्रेस-सपा-तृणमूल के कार्यकाल में हुई, लेकिन माहौल तो मोदी के कारण बना है, तो वो सच नहीं हो जाता।
पहलू खान को मारने की हिम्मत अगर मोदी देता है भीड़ को, तो फिर फ़ैयाज़ और क़ुरैशी नामक गौतस्करों द्वारा यवतमाल से नागपुर दाने के रास्ते में कॉन्स्टेबल प्रकाश मेशराम पर ट्रक चढ़ा कर मार देते हैं तो उसको हिम्मत कौन देता है? और ऐसी एक घटना नहीं है, कि गौतस्करों ने गाड़ी पुलिस पर चढ़ा कर भागने की कोशिश की। गूगल पर सर्च कर लीजिए।
चूँकि एक जगह ‘शांतिप्रिय’ मार दिया गया, तो क्या उसकी बराबरी तभी होगी जब एक हिन्दू को मार दिया जाए! या फिर, भारत के हर हिस्से में मजहबी नारा चिल्लाकर बम से दसियों को उड़ा देने वाली घटनाओं को भी इसी आलोक में देखा जाएगा? क्या आपको वो दौर याद नहीं है, पाँच-सात साल पहले का ही था कि हर पर्व में बड़े धमाके सुनाई दे जाते थे? कौन करवाता था, किस मज़हब के लोगों को डर का माहौल उन्हें ऐसा करने पर मजबूर करता था?
कितने नाम गिनाऊँ, कितनी घटनाएँ याद दिलाऊँ? छिटपुट घटनाओं को जेनरलाइज़ करने और लगातार होने वाली आतंकी घटनाओं को भटके हुए नौजवान और ‘रेडिकल्स’ के नाम कर देने से कुछ नहीं बदलता। नैरेटिव में कुछ होने भर से वही सत्य नहीं हो जाता। नैरेटिव के उस पार देखने की कोशिश करने पर दूसरे पक्ष की सच्चाई भी दिखती है। आप गौरी लंकेश, दभोलकर, पनसरे याद रखते हैं, किसके राज में हुआ, कब हुआ, उससे आपको मतलब नहीं।
तर्क यह आता है कि अब रामनवमी पर जुलूस क्यों निकाला जाता है, पहले तो नहीं होता था। ये कितनी वाहियात बात है! जुलूस निकालने में क्या समस्या है? निकालेंगे तो कट्टरपंथी पत्थर बरसाएगा? संविधान में ऐसा लिखा है कि आसमानी किताब में? तुम्हारे तमाम जुलूस सही, हिन्दू निकाल रहे हैं तो पूछा जाता है कि ज़रूरत क्या है? पहले भी निकाले जाते थे, जिसे सरकारों ने बंद कराया।
जुलूस ही निकाल रहे हैं, दंगे नहीं कर रहे। किसी का जुलूस निकालना अगर दंगे करने, पत्थरबाज़ी का लाइसेंस होता तो याद करो कितने मुहर्रम बीते, कितने जुलूस निकले, और कितनी बार अप्रिय घचनाएँ हुईं। फिर कोई क्यों न कहे कि इनकी सामूहिक सोच में ही समस्या है कुछ। ये इतनी जल्दी डरने का नाटक कर के दूसरों के साथ आगजनी, दंगे और हिंसा पर कैसे उतर आते हैं?
जो भी संवैधानिक है, इजाज़त के दायरे में है, वो करने पर किसी दूसरे मज़हब के लोगों को समस्या क्या है? क्या उन्होंने मस्जिद में रामनवमी का झंडा गाड़ दिया या फिर उनके घरों में घुस कर पताका लहरा आए? फिर दंगा करने की बात कहाँ से आई? किसी का इलाक़ा किसी के बाप का नहीं है, वो भारत सरकार का है, और वहाँ की सड़कों पर चलने का सबको हक़ है।
समुदाय विशेष की आबादी कोई यूएन सर्टफाइड ख़िलाफ़त की ज़मीन नहीं है जो दूतावासों की तरह जेनेवा कन्वेन्शन द्वारा देश के कानून से परे है। लेकिन कुछ लोगों को ऐसा ही लगता है कि वो ‘शांतिप्रिय’ हैं, उन्हें मत छेड़ो। कौन छेड़ रहा है? सड़क से जाना छेड़ना कब से हो गया? हम ‘जय श्री राम’ का नारा लगाएँ तो उससे तुम्हें दिक्कत और तुम दिन में पाँच बार लाउडस्पीकर से अजान दो तो वो सही?
हम अजान को सुनते हैं क्योंकि हम स्वीकारते हैं कि तुम्हारी मजहबी ज़रूरत है, तुम करते हो, इसमें समस्या नहीं। इसे पीसफुल कोएग्जिस्टेंस कहते हैं, जो शायद बहुतों को रास नहीं आता। दूसरी तरफ से यमुना की तहज़ीब बहती नहीं दिखती, गंगा वाले अकेले ढो रहे हैं। हमारे नारे से क्या दिक्कत है किसी को? क्या किसी को गाली दी जा रही है? किसी पर हमला किया जा रहा है? जैसे तुम्हारी अजान बर्दाश्त करते हैं, दिन में पाँच बार, वैसे ही साल में कुछ दिन हमारी जय-जय कार भी सुन लो। क्या समस्या है? पीसफुल कोएग्जिस्टेंस की पालकी को थोड़ी देर तुम भी कंधा दे दो, क्योंकि साल भर तो हम देते ही हैं।
लेकिन नहीं, ये भी मंज़ूर नहीं। पत्थरबाज़ी होती रहेगी, और उसका दोष भी हिन्दुओं पर ही मढ़ा जाएगा कि तुमने त्योहार ही क्यों मनाया। क्या करें सरकार, इस्लाम के नाम पर हो रहे दंगे, आतंकी वारदातों पर हर बार इनकी मुहर, और इनके भटके हुए नौजवानों के कारनामे हमें कन्विन्स नहीं कर पाते कि ये शांति का मज़हब है। होगा, कहीं किसी और दुनिया में। हमारी दुनिया में तो नहीं है।
आतंकियों और दंगाइयों को यह कह कर नकार देना कि ये लोग समुदाय विशेष से हो ही नहीं सकते, क्योंकि इस्लाम यह नहीं सिखाता, और इस समस्या पर बैठकर विचार करना तो दूर, इसकी निंदा करने में आनाकानी, यह बताता है कि आप इसको लेकर सीरियस नहीं हैं, फिर हम कैसे मान लें कि रामनवमी के जुलूस पर पत्थर फेंकने वाले लोगों का मज़हब शांति का संदेश देता है?