Sunday, September 15, 2024
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भारत में रहने वाले सभी लोग यहाँ के मूलनिवासी: शूद्रों यानी ‘दास-दस्यु’ और ‘सबसे निचले पायदान’ वाले नैरेटिव पर डॉ अम्बेडकर का फैक्ट-चेक

ऋग्वेद का गहराई से अध्ययन करने के बाद, अम्बेडकर ने देखा कि आर्य आधिपत्य सिद्धांत और गैर-आर्यन प्रजातियों मतलब दास-दस्यु पर आधिपत्य स्थापित करने का कोई सबूत नहीं है, न ही दास-दस्यु कोई अलग जाति-प्रजाति है। 

चूँकि विश्व मूलनिवासी दिवस- जो कि प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को मनाया जाता है- भारत में शुरुआत से ही एक विवादित, परंतु अज्ञात विषय रहा है। इसलिए यह हमें इस बात की जाँच करने के लिए प्रेरित करता है कि ‘मूलनिवासी’ कौन थे और उनकी उत्पत्ति भारतीय समाज में कैसे हुई? इस संदर्भ में, डॉ बीआर अम्बेडकर से बेहतर कोई नाम नहीं हो सकता। इन्होंने अपने लोकप्रिय पुस्तक, ‘शूद्र कौन थे? – वे इंडो-आर्यन समाज में चौथे वर्ण कैसे बने’ में अत्यंत वैज्ञानिक और विस्तृत तरीके से इसका विश्लेषण किया है।

पहली बार 1946 में प्रकाशित यह पुस्तक, मुख्य रूप से हिंदू समाज के चौथे वर्ण के रूप में शूद्रों की उत्पत्ति पर आलोचनात्मक प्रकाश डालती है। पुस्तक इस तथ्य पर ध्यान केंद्रित करती है कि कैसे ‘जाति की समस्या’ सामाजिक संगठन और संरचना निर्धारण करने में एक प्रभुत्वशाली कारक बन गई।

महार समुदाय में जन्म और बचपन से ही जातिवाद का कड़वा अनुभव होने के कारण, डॉ अंबेडकर ने ऐतिहासिक साक्ष्यों के आलोक में ‘जाति-समस्या’ की जाँच की और प्रमाणित किया कि कैसे जाति सामाजिक कार्रवाई का मूलभूत मापदंड बन गई। अपने गहन अध्ययन के आधार पर वह दावा करते हैं कि मूल रूप से शूद्र इंडो-आर्यन समाज में क्षत्रिय थे, जो ब्राह्मणवादी कानूनों की गंभीरता के कारण समय के साथ इतने अपमानित हो गए कि वो लोग सार्वजनिक जीवन में वास्तव में बहुत निम्न दर्जे पर पहुँच गए।

आर्यन आक्रमण सिद्धांत और डॉ अम्बेडकर

अपने सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए, डॉ अम्बेडकर ने विभिन्न ब्राह्मणवादी विद्वानों और लेखकों का अध्ययन  किया, लेकिन उन्हें हिंदू समाज के चौथे वर्ण के रूप में शूद्रों की उत्पत्ति के लिए हिंदू धर्मग्रंथों और साहित्य में कोई उल्लेख नहीं मिला। फलस्वरूप, उन्हें पश्चिमी-यूरोपीय दार्शनिकों द्वारा स्थापित आर्य-आक्रमण सिद्धांत का उल्लेख करना पड़ा।

आर्य आक्रमण सिद्धांत के अनुसार, आर्य वे हैं जिन्होंने वेदों की रचना की, और बाहर से आकर भारत पर आक्रमण किया और स्थानीय लोगों पर अपना वर्चस्व स्थापित किया। स्थानीय लोगों को यूरोपीय लोग मूल निवासी, दास-दस्यु मानते थे। श्वेत रंग की सर्वोच्चता में विश्वास करते हुए उन्होंने दावा किया कि आर्य श्वेत नस्ल के थे, जबकि दास-दस्यु काले रंग के थे।

आर्यों ने श्वेत रंग को प्राथमिकता दी और चतुर्वर्ण व्यवस्था बनाई। इसमें शूद्रों यानी ‘दास-दस्यु’ को अलग कर व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर रखा गया। आर्यन आक्रमण सिद्धांत, पश्चिमी लेखकों द्वारा भारत पर पश्चिम की वरीयता/सर्वोच्चता स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया। उनका कुतर्क था कि भारत के लोग अज्ञानी-अंधविश्वासी रहे हैं और पश्चिम के लोग ज्ञानी हैं, जिन्होंने वेदों की रचना की।

डॉ बीआर अम्बेडकर ने ‘आर्यन आक्रमण सिद्धांत’ का पूरी तरह से खंडन किया और अपने विश्लेषण से इस तथ्य को स्थापित किया कि भारत में रहने वाले सभी लोग आर्य हैं और वे (आर्यन) बाहर से आई कोई जाति नहीं हैं। इस संबंध में, उन्होंने सबसे पहले वेदों, मुख्य रूप से ऋग्वेद का उल्लेख किया। जिससे पता चलता है कि ऋग्वेद में कई स्थानों पर आर्य शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसके अलग-अलग अर्थ हैं जैसे, सम्माननीय व्यक्ति, भारत का नाम, नागरिक या शत्रु आदि। लेकिन कहीं भी इसका प्रयोग जाति या नस्ल के तौर पर नहीं किया गया है।

ऋग्वेद का गहराई से अध्ययन करने के बाद, अम्बेडकर ने देखा कि आर्य आधिपत्य सिद्धांत और गैर-आर्यन प्रजातियों मतलब दास-दस्यु पर आधिपत्य स्थापित करने का कोई सबूत नहीं है, न ही दास-दस्यु कोई अलग जाति-प्रजाति है। दूसरा, उनका दावा है कि यदि त्वचा का रंग इंडो-आर्यन समाज में ‘चतुर्वर्ण-व्यवस्था’ या नस्ल वर्गीकरण का आधार था, तो हिंदू समाज के चार वर्गों (वर्णों) के लिए चार अलग-अलग रंग का उल्लेख होना चाहिए था। यहाँ आर्य-आक्रमण सिद्धांत अपनी वैधता और प्रामाणिकता स्थापित करने में विफल हो जाता है। इसके अलावा ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जो यह साबित कर सके कि आर्य, दास-दस्यु इंडो-आर्यन समाज में अलग-अलग नस्लें थीं।

शूद्र क्षत्रिय, ब्राह्मण और उपनयन संस्कार

किंतु यहाँ प्रश्न उठता है कि शूद्र कौन थे? इसका उत्तर देते हुए, डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि शूद्र आर्य थे, जो हिंदू समाज के क्षत्रिय वर्ग से संबंधित थे। शूद्र क्षत्रियों का एक इतना महत्वपूर्ण हिस्सा था कि प्राचीन आर्य समुदायों के कुछ सबसे प्रतिष्ठित और शक्तिशाली राजा शूद्र थे। किंतु कालांतर में, ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों के शूद्र कुल के ‘उपनयन संस्कार’ से इनकार ने उन्हें इंडो-आर्यन समाज में दूसरे से चौथे पायदान पर धकेल दिया।

शूद्र कुल के क्षत्रियों के ‘उपनयन संस्कार’ से इनकार का उद्भव ब्राह्मणों की प्रतिशोध की भावना से हुआ था, जो कुछ शूद्र राजाओं के अत्याचारों, उत्पीड़न और अपमान से कराह रहे थे। ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों को उपनयन देने से इनकार का कानूनी या धार्मिक आधार नहीं था, बल्कि पूरी तरह से दोनों वर्णों के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण था।

डॉ अम्बेडकर द्वारा किया गया यह विश्लेषण स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है कि यद्यपि हिंदू समाज सदियों से जाति या वर्ण के आधार पर विभाजित है, लेकिन तथ्य यह है कि भारत में रहने वाले सभी लोग मूलनिवासी और आर्य हैं।

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डॉ रेणु कीर
डॉ रेणु कीर
Dr. Renu Keer is an Associate Professor in the Department of Political Science, at Atma Ram Sanatan Dharma College, University of Delhi.

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