“सभी मर्द एक जैसे होते हैं!” फिल्मों का ये जाना माना जुमला एक बार फिर याद आ गया जब कंगना रनौत विवादों में फिर से आईं। संभवतः ये जुमला 1921 में आई सॉमरसेट मॉम की कहानी “द रेन” से शुरू हुआ होगा। ये बड़ी रोचक सी कहानी है, जिसे हमने सॉमरसेट की दूसरी कई कहानियों की ही तरह सिर्फ एक बार ही पढ़ा, कभी दोबारा नहीं पढ़ा। अच्छी लघु-कथाओं या उपन्यासों के लक्षण जैसा इसमें भी चार-छह किरदार ही हैं। अक्सर आलोचक ऐसा मानते हैं कि ज्यादा किरदार हों तो पाठक की रूचि कहानी से हट जाती है।
कहानी एक जहाज से शुरू होती है जो किसी किनारे पर रुकती है और वहाँ मीज़ल्स (खसरा रोग) फैला होता है। जब तक ये पक्का पता नहीं चल जाता कि यात्रियों में से किसी को ये बीमारी नहीं लगी, तब तक जहाज को आगे जाने से रोक लिया जाता है। इस मज़बूरी में जहाज के चार यात्री- एक डॉक्टर, उसकी बीवी, एक मिशनरी और उसकी बीवी भी फँस जाते हैं। वो लोग एक होटल में कमरा लेते हैं। उसी होटल में जहाज की एक और यात्री मिस थॉम्पसन भी रुकी होती है। मिस थॉम्पसन के कमरे से अक्सर ग्रामोफ़ोन बजने और मर्दों की आवाजें आती रहती हैं।
बाकी यात्रियों को शक था कि मिस थॉम्पसन जिस्म-फरोशी के धंधे में हैं। मिशनरी उसे सुधार कर उसकी “आत्मा को सही रास्ते पर लाने” के लिए अड़ा होता है। इस दिशा में वो प्रयास भी शुरू कर देता है। डॉक्टर और उसकी पत्नी मानने लगते हैं कि मिशनरी धीरे-धीरे अपना जाल बुन रहा है और सही वक्त आते ही वो मिस थॉम्पसन को सही रास्ते पर ले आएगा। मिशनरी और मिस थॉम्पसन में नजदीकियाँ बढ़ने लगती हैं। मिस थॉम्पसन अब नित नए पुरुषों से भी कम मिलती हैं और शोर-शराबा भी घटने लगता है।
मिशनरी ने द्वीप के गवर्नर पर भी दबाव बनाया होता है, ताकि न सुधरने में मिस थॉम्पसन को वापस भेजा जा सके। इन सब के बीच द्वीप पर लगातार बारिश हो रही थी। कुछ दिन ऐसा ही चलता रहता है और एक दिन अचानक मिशनरी लापता हो जाता है। उसकी लाश समुद्र किनारे मिलती है। उसने अपना ही गला काट लिया था। आत्महत्या से व्यथित डॉक्टर कुछ समझ नहीं पाता और उलझन में होटल लौटता है। वहाँ पहुँचने पर जैसे ही उसकी आँखें खुलती हैं! मिस थॉम्पसन अब अपने पुराने रंगीले रूप में थी!
मिस थॉम्पसन अब अपने पुराने रूप में डॉक्टर और उसके दूसरे साथियों की खिल्ली उड़ाने वाली हँसी हँसती है और कहती है “तुम मर्द, सब बिलकुल सूअर हो, एकदम एक जैसे!”
कहानी यहीं, इसी वाक्य पर ख़त्म हो जाती है और पाठकों को सोचने के लिए छोड़ देती है। कैथोलिक पादरियों में अविवाहित रहने जैसी परम्परा चलती है। ईसाईयों के अन्य मत; जैसे प्रोटेस्टेंट या ऑर्थोडॉक्स इस सेलीबेसी (celibacy) जैसे सिद्धांत को नहीं मानते। भारतीय आध्यात्मिक धाराओं के हठयोग जैसी परम्पराओं में बहुत थोड़े से लोगों को इसकी अनुमति होती है। ये इतना मुश्किल सिद्धांत है, जिसे मानना आम लोगों के लिए लगभग नामुमकिन होता है। इसे जबरन लोगों पर थोपने के नतीजे बिलकुल वैसे ही होंगे जैसे चर्च के लिए हुए हैं।
जबरन ब्रम्हचर्य को धर्म और आध्यात्म से काटना कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे योग को हिन्दुओं के धर्म से अलग कोई चीज़ घोषित करना। इसके पूरे-पूरे नतीजे नहीं निकल सकते। योग के आठ अंगों में से एक में ब्रम्हचर्य भी आ जाता है। सिर्फ आसन से जैसे कुछ शारीरिक लाभ होंगे भी तो उचित तरीके से करने पर ही होंगे, जैसे-तैसे करने पर नहीं, वैसे ही ब्रम्हचर्य में भी होगा। जबरन इसे किसी सामाजिक संस्था पर थोप देना, जिसका मुख्य उद्देश्य कुछ और है, वैसे ही हानिकारक परिणाम देगा, जैसे गलत तरीके से किए गए आसनों से होगा। जड़ों से कटकर कौन सा पेड़ उपजा है?
बाकी अगर बाल या यौन शोषण जैसे मामलों में चर्च जितने ही जुर्माने भरने का सामर्थ्य हो, या इच्छा हो तो जारी रखिए। भावनाओं का उद्वेग कौन से बाँध मानता है, ये किसने नहीं देखा?