पढ़े-लिखे दिखने वाले लोग, डिग्री-डिप्लोमा वाले लोग, स्वघोषित बुद्धिजीवी आदि से ले कर फेसबुकिया मायाजाल में दिन के दस घंटे निकालने वाले मोदी द्वारा समुद्र किनारे, बालू से प्लास्टिक बीनने को पब्लिसिटी स्टंट बता रहे हैं। वो लिख रहे हैं कि ‘पीआर जहाँ भी मिले बीन लेना चाहिए’। कोई ये कह रहा है कि सब दिखावा है, कोई ये भी कह देगा कि देखो, प्लास्टिक बीन कर, प्लास्टिक की थैली में ही रख रहा है। और सबसे उन्नत नस्ल के चिंटू वो होंगे जो कहेंगे एक दिन तो साफ कर दिया, कल कौन करेगा?
ये परिवर्तन छः सालों में आया है कि कुछ लोग इतने बौरा गए हैं कि व्हाट्सएप्प पर घूमता वो चुटकुला अगले दो अक्टूबर तक सही हो जाएगा जिसमें लिखा होता है कि लिब्रांडु समूह और उनके समर्थक खाने के बाद उल्टी करने लगेंगे, अगर मोदी कह दे कि खाने के कुछ घंटे बाद, आदमी विष्ठा करता है।
सरकार की आलोचना होनी चाहिए, जहाँ ज़रूरी है बेशक कीजिए, लेकिन ये सोचना कि मोदी फलाँ दिन ही झाड़ू क्यों लगाता है, मोदी एक दिन ही प्लास्टिक कचरा क्यों इकट्ठा कर रहा है, मोदी एक दिन ही फौज से मिलने क्यों जा रहा है, मोदी एक दिन ही वेस्ती क्यों पहन रहा है, इससे आपकी मानसिकता पर आप स्वयं प्रकाश डाल रहे हैं।
मोदी ने तमिलनाडु जाने पर वहाँ की वेशभूषा धारण की, वहाँ का भोजन किया। लोग कह रहे हैं कि ये तो चुनावों के कारण हो रहा है। लोग यह बहुत ही आराम से भूल जाते हैं कि मोदी जब भी किसी ऐसे इलाके में जाते हैं, वो वहाँ का पहनावा या कोई विशिष्ट चीज जरूर धारण करते हैं। अरुणाचल में उन्होंने एक टोपी पहनी थी, जो कि वहाँ की जनजाति से संबंधित था। लोगों ने मजाक उड़ाया था।
आप पूछते हैं ना कि साउथ में नॉर्थ वालों को तो ऐसे करते हैं, वैसे करते हैं, या यह कि उत्तरपूर्व के लोग तो खुद को भारत का हिस्सा नहीं मानते। जब कोई बड़ा नेता सांकेतिक तौर पर ऐसा करता है तब आप उपहास करते हैं। तब आपको भारत की विविधता के लिए सम्मान नहीं दिखता। तब आप अपनी घृणा की आग में जल रहे होते हैं, और अपने हृदय की कालिमा को फेसबुक पर अपने ही देश के लाखों-करोड़ों लोगों का उपहास करने वाले शब्दों के रूप में उतार देते हैं।
जी नहीं, प्रधानमंत्री का काम न तो झाड़ू देना है, न कचरा उठाना
कभी सोचा है कि प्रधानमंत्री को ऐसा क्यों करना पड़ रहा है? जिन कूढमगज लोगों ने इसे पीआर और स्टंट कहा है, उनसे सीधा सवाल यह है कि यह पब्लिसिटी स्टंट कैसे है? इससे पब्लिसिटी कैसे मिलती है? क्या मोदी की कोई फिल्म आने वाली है? क्या मोदी ग्रीन ऑस्कर के लिए प्रयासरत है? या, मोदी को ऐसा लगता है कि समुद्र तट पर कचरा उठाते देख उसे तमिलनाडु के लोगों का वोट मिल जाएगा?
ये किस तरह का तर्क है? इतनी दुर्भावना ले कर ज़िंदा ही क्यों हैं ऐसे लोग? इतनी घृणा ले कर हर दिन कैसे बिता रहे हैं लोग? क्या ये आश्चर्य की बात नहीं है कि आपको समुद्र तट साफ भी चाहिए, और कोई इसे एक जन-अभियान बनाना चाहता है तो आपको दर्द होने लगता है? लोग इसी तरह तब भी हँस रहे थे जब स्वच्छता अभियान शुरु हुआ था। लोग तब भी हँस रहे थे जब ‘शौचालय’ बनवाने की बात शुरु हुई थी।
तब यही चम्पू मंडली ये कह कर हँस रही थी कि शौचालय बनाने से क्या होगा, उसको तो लोग इस्तेमाल ही नहीं कर रहे। रवीश कुमार जैसे महान पत्रकारों ने गाँव-गाँव घूम कर शौचालयों में बाकायदा कैमरा लगा कर दिखाया था कि नहीं भाई, लोग तो इसमें विष्ठा नहीं त्याग रहे। मतलब, इनकी इच्छा यह थी कि आप पहले शौचालय बनवाओ, फिर बाल्टी में पानी ले कर खड़े रहो, और जब आदमी शौच कर ले, तो पानी डाल दो, उन्हें साबुन दो और चापा कल चला कर हाथ धुलवा दो।
और ये काम कौन करे? ये काम वही करेगा जिसे ये फालतू का आइडिया आया था कि देश में करोड़ों लोग खुले में शौच करते हैं, जिनसे उन्हें बीमारी होती है, भूजल प्रदूषित होता है, महिलाओं के लिए ये हर दिन मरने जैसी स्थिति है, इसलिए इन्हें शौचालय बना कर दिया जाए। और हाँ, हर बात में ‘पब्लिसिटी स्टंट’ लिख देने वाले तो ये भी कह देंगे कि मोदी को न सिर्फ बाल्टी में पानी ले कर खड़ा होना चाहिए बल्कि उससे पहले वाला स्टेप भी कर देना चाहिए ताकि आम आदमी को हाथ न धोना पड़े।
ये घृणा नहीं तो और क्या है?
हमारा समाज बहुत ही सिनिकल है, और लोग सनकल हैं। ‘सनकल’ अंगिका का एक शब्द है जो असामान्य व्यवहार करने वाले समझदार लोगों के प्रयोग में लाया जाता है। बाकी समय वो खूब शायरी करेंगे, विदेशी नीति पर चर्चा करेंगे, अर्थव्यवस्था पर लेख लिखेंगे, लेकिन जो बात एकदम सीधी हो, और फ्रेम में मोदी आ जाए तो वो सनक जाते हैं। तब सारा ज्ञान भितरामपुर चला जाता है, और भीतर की कुबुद्धि बाहर वमन हो जाती है।
वहीं, ‘सिनिकल’ अंग्रेजी का शब्द है जिसका अर्थ है वह अवस्था जो हर बात में मीन-मेख निकालता हो। ऐसे लोगों को छिद्रान्वेषी भी कहते हैं। ये वैसे लोग होते हैं जो हर बात में सिर्फ बुराई ही निकालते हैं। इन्हें बुलेट ट्रेन नहीं चाहिए क्योंकि लोग भूखे मर रहे हैं, इन्हें चन्द्रयान नहीं चाहिए क्योंकि लोग बीमार हैं, इन्हें राफेल नहीं चाहिए क्योंकि उसकी ज़रूरत क्या है, इन्हें शौचालय नहीं चाहिए क्योंकि प्रधानमंत्री टट्टी की बात क्यों कर रहा है?
और यही लोग, बाद में कहेंगे कि आह! जापान की ट्रेन गजब तेज होती है, हमारे यहाँ तो कभी टाइम से कुछ आता ही नहीं। यही लोग कहेंगे कि आदमी चाँद पर गया और हमारे यहाँ लोग खेत में शौच कर रहे हैं। यही लोग कहेंगे कि पाकिस्तान तो पुलवामा और उरी में जवानों को मार रहा है, कहाँ गया छप्पन इंच का सीना। यही लोग कहेंगे कि तेरह लाख बच्चे कुपोषण से मर जाते हैं, लेकिन सरकार को परवाह ही नहीं।
सरकार को परवाह है इसलिए वो उन बातों पर ध्यान दे रही है जिससे बचाव हो बीमारियों से। ये पहला कदम है। चूँकि आपके लिए प्रधानमंत्री के मुँह से सिर्फ बड़े-बड़े शब्दों का निकलना ही पद की गरिमा के योग्य है, और उस पर करेले जैसी बात यह कि वो आपकी विचारधारा का नहीं है, तब तो आपको लगेगा ही कि शौचालय की बात लाल किला से कोई क्यों करता है!
ये आपको नहीं पचेगा। क्योंकि आप अपनी घृणा के ज़हर को हर मिनट बहत्तर बार अपनी धमनियों और शिराओं में भेज रहे हैं। आपके द्वारा साँस में लिए गए ऑक्सिजन का सत्तर प्रतिशत जो दिमाग में पहुँचता है, वो आपकी घृणा से सना हुआ है, इसलिए आपको हर बात में स्टंट नज़र आता है। एक बार सोचिए कि प्रधानमंत्री द्वारा झाड़ू देने, सफाई कर्मचारी के पाँव धोने, रेत से कचरा बीनने से कौन वोट देने को प्रेरित होगा? आप तो नहीं होंगे, ये तो तय है।
अगर ये स्टंट ही है, तो क्या इससे कोई नुकसान है?
एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि हाँ मोदी को स्टंट ही करना है, वो हर बात कैमरे के सामने ही करता है। यही आपका तर्क होता है। अब ये बता दीजिए कि कचरा बीनने से किस तरह के नुकसान हैं? झाड़ू देने से सड़क पर किस तरह की क्षति होती है? सफाई कर्मचारी के पाँव धोने से क्या उनके पाँव में पकुआ लग जाता है? इन बातों से क्या हानि होती है समुद्र, सड़क, या समाज को? और हाँ, आपके पृष्ठ भाग से उठता धुँआ उस नुकसान में शामिल नहीं किया जाएगा!
ये सवाल भी खूब आता है कि कैमरे के सामने करने का मतलब क्या है? मतलब बहुत ही साफ है कि उसका ये सांकेतिक कार्य एक संदेश की तरह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचे। इसका और कोई दूसरा लक्ष्य नहीं होता। प्रधानमंत्री का काम झाड़ू लगाना नहीं है, उसका काम यह है कि वो एक बार कोई संदेश दे, ताकि लोग उसे अपनाएँ, जीवन में लाएँ और वैयक्तिक बदलाव से सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर वो बदलाव दिखे।
अगर आपको लगता है कि मोदी हर दिन थैला ले कर घूमता रहे, कचरा बीनता रहे, तब आप उसे कहेंगे कि हाँ, ये स्टंट नहीं है, वो गंभीर है इस बात को ले कर, तो वो नहीं होने वाला। उसकी गंभीरता इसी बात में है कि उसने अपने व्यस्त कार्यक्रम में से दस मिनट निकाल कर, लोगों तक पर्यावरण की सुरक्षा के संदेश दिया। ये तो नेहरू ने भी किया था, और इंदिरा ने भी, इससे मतलब नहीं है। चूँकि उन्होंने यूपी में गेहूँ काटी थी, इसका ये मतलब नहीं हो जाता कि बाकी कोई न काटे!
मुद्दा यह है कि इस कथित स्टंट से बदलाव संभव है कि नहीं? बिलकुल संभव है। अगर आज मैं सब्जी लाने के लिए अपने बैग में, हमेशा एक कपड़े का थैला रखता हूँ, तो ये बदलाव मुझमें आया है। वैसे ही लाखों लोग होंगे जो कचरा यहाँ-वहाँ फेंकते होंगे, उन्हें अब लोग टोकेंगे। कई बार लोक-लाज से भी लोग संभलते हैं। कई बार, जो बातें हमें पता है कि गलत है, उन्हें सामाजिक अभियान के रूप में लाने से आपको अपनी पीठ पर दसियों जोड़ी आँखें ताकती महसूस होती हैं, और आप संभल जाते हैं।
ये पहले भी पता था कि सड़कों पर गंदगी नहीं करनी चाहिए, और कचरा कूड़ेदान में या गाड़ी में फेंकना चाहिए, लेकिन लोग अपनी छतों से नीचे फेंकते रहे। ऐसा होना कम तभी होगा जब इस समाज के सामूहिक व्यवहार को समझते हुए, उसे उसी तरह से समाधान सुझाया जाए। समाधान यही है कि क्या तुम्हें प्रधानमंत्री के झाड़ू मारने से भी बात समझ में नहीं आती? लोग झेंप जाते हैं, अगली बार सोचते हैं कि वो ऐसा न करें।
अमिताभ बच्चन ने पोलियो की दो बूँदों के लिए क्या घर-घर जा कर दवा पिलाई थी? क्या वो इतने नाटकीय तरीके से बोल कर अपने बच्चों के पैर सीधे कर रहे थे? उस व्यक्ति को क्या पड़ी थी ऐसा करने को, बिना पैसा लिए? उस व्यक्ति ने यह बात समझी कि उनका कहा बहुत लोग मानेंगे, और लगातार चले इस अभियान का हासिल यह है कि भारत पोलियो मुक्त है।
उसी तरह, आप न सही, आप भले ही उन लोगों में से हों जो ये मानते हैं कि वो तो बस उनके प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने वोट दिया, आपके नहीं, बाकी के लोगों को उनमें उम्मीद दिखती है। बाकी के लोग उनके सांकेतिक कार्यों को अपने जीवन में लाना चाहते हैं। अगर आधा भारत इन आदतों को सीख ले, कचरा फेंकना बंद कर दे, सड़कें साफ करने लगे, तो बदलाव की गति दोगुनी हो जाएगी।
आपका क्या है, आप तो व्हाट्सएप्प ग्रुप के चुटकुले के वो पात्र हैं जिन्हें पता चल जाए कि मोदी ने कहा कि करने के बाद धोना चाहिए, तो आप उसे पूरे पैर में लपेट कर घूमेंगे और फेसबुक पर अपडेट करेंगे, “देखो बे मोदी, हम नहीं धोते, हमें कुछ नहीं हुआ। इन फासीवादी बातों में हम नहीं उलझेंगे। हमारी टट्टी, हम चाहे जैसे करें, जैसे रखें, प्रधानमंत्री को हमारे बाथरूम में घुसने की आवश्यकता नहीं है।”
दोस्त कहेगी, “यार बहुत दुर्गंध दे रहा है।” आप कहेंगे, “ये क्रांति की खुशबू है कामरेड! ये फासीवादी ताकतों को यह संदेश देना है कि उसे सत्ता ज़रूर मिल गई लेकिन वो ये तय नहीं करेगा कि हम अपने शरीर से निकले अपशिष्ट को धोएँ, पोंछे, सर पर लगाएँ या…”
वामपंथन कहेगी, “बेबी मेरा माइंड, तू करे ब्लो…”