Sunday, December 22, 2024
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मैं भारत का हिन्दू हूँ और अब मुझे यहाँ डर लगता है…

मेरे पिता और मुझे धमकाने वालों के पिताओं में फर्क बस यही है कि मेरे पिता के लिए मेरी मौत उनकी अपनी मौत से भी बुरी होगी, जबकि उनके पिता छाती ठोक कर कहेंगे कि फलाने की राह में कुर्बानी है ये, किसी काफिर को मार कर जेल गया है, फख्र है।

“सुबह-सुबह घर की घंटी बजी, मैं आवाज़ सुन कर दरवाजे तक गया। बाहर तीन लड़के खड़े थे। हुलिया मजहब वाले जैसा था, टोपी लगाए हुए, दाढ़ी रखी हुई। कहा, “दरवाजा खोलो, बात करनी है तुमसे।” मैंने सीधा कहा कि मैं न तो उन्हें जानता हूँ, न ही दरवाजा खोलूँगा। दो दरवाजे हैं मेरे कमरे पर, पहला लोहे का है, दूसरा काठ का। मैंने दूसरा दरवाजा बंद करने को हाथ लगाया तो उनमें से एक ने लम्बा छुरा दिखाते हुए कहा, “बहुत उँगलियाँ चलती हैं तुम्हारी आज कल, कमलेश तिवारी की तरह तुझे भी हलाल कर देंगे आज।” यह कहते हुए एक ने दरवाजे पर किसी लोहे से प्रहार किया और मुझे लगा कि थोड़ी देर में ये दरवाजा तोड़ देंगे। यह स्थिति ऐसी थी जहाँ मैं न भाग सकता था, न बच सकता था। इतनी बेचैनी मैंने कभी महसूस नहीं की। मैं उन क्षणों को याद करने लगा जब एक लड़का मेरा पैर बाँध देगा, दूसरा मेरा हाथ पकड़ेगा और तीसरा अरबी में कुछ बुदबुदाते हुए अपने लिए जन्नत में कमरा बुक करने के लिए धीरे-धीरे मेरे गले पर चाकू फेरेगा…”

और धक से मेरी नींद खुल गई। मैं अपने गले को पकड़ते हुए जग गया। मैं यह सोचते हुए अगले दो घंटे तक जगा रहा कि एक दिन हो सकता है सच में ऐसा हो। मेरे विडियो या लेख के कमेंट में आप इरफानों, अहमदों, मोहम्मदों, आलमों, अरशदों, मलिकों और तमाम मजहबी नाम वाले का लिखा पढ़ेंगे तो आप पाएँगे कि इनके पास सिर्फ मेरा पता नहीं है, वरना ये चाकू ले कर किसी भी दिन मुझे रेतने पहुँच जाएँगे।

जो मेरे हितैषी हैं, मेरे दोस्त हैं, इंटरनेट पर मुझसे जुड़े लोग हैं, वो बार-बार कहते हैं कि मैं जो लिख रहा हूँ, वो सत्य है, समय की माँग भी है लेकिन मैं ही क्यों लिखता हूँ? वो चिंतित होते हैं कि किसी दिन मुझे कुछ हो जाएगा। वो मुझे बताते हैं कि और भी पत्रकार हैं जो कहाँ नाला है, किधर सड़क है, किसे कितना फाइन लगा, कहाँ गले की चेन लूटी जा रही है, इन विषयों पर घंटे-घंटे भर बोल रहे हैं, मैं भी क्यों वैसा नहीं करता?

वो कहते हैं कि और भी लेखक हैं, साहित्यकार हैं जो सिर्फ अपनी किताबों के रिलीज के समय एमेजॉन पर कितना डिस्काउंट मिल रहा है, वो बताने आते हैं, मैं उनकी तरह क्यों नहीं बन जाता? एक तरीके से देखा जाए तो यह सही रास्ता है, गाली नहीं सुनना पड़ती मैसेज बॉक्स में; आपको अकेले में ऑफिस के नीचे इधर-उधर नहीं देखना पड़ता कि कोई संदिग्ध आपकी तरफ तो नहीं आ रहा; आप ऑफिस जाने और आने का समय कभी भी एक जैसा नहीं रखते ताकि कोई घात लगाए बैठा हो तो उसके मजहबी उन्माद का शिकार न बनें…

ये वास्तविकता है जिससे मेरे जैसे मुट्ठी भर लोग हर रोज जूझते हैं। मुझे ये सपना क्यों आता है कि मेरे दरवाजे के सामने की फर्श पर ‘अगला नंबर तुम्हारा है’ लिखा हुआ दिखता है? सपने तभी आते हैं जब उससे जुड़ी कुछ बातें आपको परेशान करती हैं। अपना मानने वाले हमेशा लिखता है कि ‘अजीत तुम ख्याल रखो अपना, यू टेक केयर!’

मेरे माता-पिता इंटरनेट पर नहीं हैं। वो बस ये जानते हैं कि मैं पत्रकार हूँ। वो ये भी नहीं समझते कि पत्रकार होता क्या है। अगर वो जान जाएँगे तो मेरे सहकर्मियों की तरह, जिनकी पत्नी और जिनके पति ये सलाह देते हैं कि ‘कुछ और क्यों नहीं कर लेते’, मेरे माँ-बाप भी कहेंगे कि गाँव आ जाओ, खेत है, गायें हैं पंद्रह, खेती करो और जीवन जियो। कोई माँ या पिता अपनी संतान को इस तरह से किसी के छुरे की धार से हलाल होता नहीं देख सकता, तस्वीर नहीं देख सकता, लाश तो छोड़ ही दीजिए।

तो क्या करूँ मैं? हर दिन चोर की हत्या पर उठते बवाल को सच मान लूँ कि हिन्दू ही इस देश का असली आतंकी है और ‘शांतिप्रिय समुदाय’ वाले सताए जा रहे हैं? क्या मैं ये मान लूँ कि ‘जय श्री राम’ का नारा आतंकवादियों का नारा है जैसे कि मीडिया का पतित पत्रकार गिरोह और दोगले लोगों का समूह बार-बार पूरी दुनिया को बताना चाहता है? क्या मैं ये मान लूँ कि इस्लाम शांतिप्रिय मजहब है और सारे कट्टरपंथी डर कर जीने को मजबूर हैं? क्या मैं ये मान लूँ कि कट्टरपंथियों द्वारा फैलाए जा रहे आतंक, उनके द्वारा की जा रही हिन्दुओं की लिंचिंग, उनके द्वारा गला रेत कर की जा रही हत्याएँ, उनके द्वारा आतंकियों के समर्थन में निकलने वाली रैलियाँ, उनके द्वारा सोशल मीडिया पर खुलेआम गला काटने की धमकियाँ सब किसी समानांतर ब्रह्मांड की घटनाएँ हैं?

मैं यह नहीं मानता कि उस एक मजहब के सारे ऐसा करते हैं, वो सारे गुनहगार हैं, लेकिन मैं आतंकियों, अपराधियों, बलात्कारियों, उन्मादियों और इस तरह की इच्छा रखने वाले लोगों का नाम क्यों न लूँ? मैं यह भी नहीं मानता कि अपराधियों को अपराधी कहना, उनका नाम लेना, उनके मजहबी कारणों से किए गए गुनाहों में उनका मजहब लिखना किसी भी तरह से अनुचित है।

क्या इसे सच मान कर अपनी पत्रकारिता करता रहूँ? ये करना होता तो मैं इस क्षेत्र में आता ही नहीं। मैं सच में खेती ही कर लेता। मुझे याद है कि इकनॉमिक टाइम्स में काम करते हुए जब मैंने अपने एडिटर को त्यागपत्र दिया था तो उन्होंने पूछा था कि यहाँ से छोड़ कर जाओगे तो क्या करोगे, तुम्हारे पास तो नौकरी भी नहीं है। तब मैंने कहा था कि मैं गाँव जा कर कुदाल उठाऊँगा और पिताजी के साथ खेती कर लूँगा लेकिन रीढ़ मोड़ कर जीना न मेरे माँ-बाप ने सिखाया न ही मेरे उस स्कूल, सैनिक स्कूल तिलैया ने, जहाँ से सैकड़ों बच्चे सशस्त्र सेनाओं में भर्ती हो कर दुष्कर जीवन व्यतीत करते हैं।

कुछ दूसरे मजहब वाले मुझसे इसलिए नाराज होते हैं कि मैं सिर्फ उन्हीं की गलती और अपराध क्यों दिखाता हूँ? एक तरह से प्रश्न सही है लेकिन उत्तर यह है कि बाकी हर मीडिया पोर्टल इन अपराधियों को, इन आतंकियों को, इन अराजक तत्वों को, ‘समुदाय विशेष’ की आड़ में बिना नाम छापे बचाता रहा है। इनके अपराधों को इसलिए छुपाया जाता रहा ताकि इनकी ‘शांतिप्रिय’ होने की नकली छवि बनी रहे। ऐसा इसलिए होता रहा, क्योंकि राज्याश्रयी मीडिया ने अपनी आत्मा मैडमों के चरणों में गिरवी रख दी थी।

कट्टरपंथी अपराध करेगा तो उसका नाम और मजहब बोल्ड अक्षरों में लिखा जाएगा। ये बताना ज़रूरी है कि बलात्कार मदरसों में भी हो रहे हैं, मस्जिदों के मुल्ले भी बलात्कारी हैं और हलाला से लेकर तमाम तरह के पेट में मरोड़ और मुँह में उल्टी ला देने वाले कृत्यों में ख़ास कट्टरपंथी मजहब वाले ही शामिल होते हैं। जब अपराध कर रहे हैं, तो उनका नाम क्यों नहीं लिखा जाए? हिन्दुओं का नाम लिखा जाए, आठ हिन्दू बलात्कार करें तो यही ‘शांतिप्रिय’ नाम वाले पूरी दुनिया में हिन्दुओं को और इस देश को ही बलात्कारी बता देते हैं, लेकिन जब ये बलात्कार करें, गला रेतें, तो उनके नाम न लिखे जाएँ?

और जब आप लिखते हैं तो आपको धमकियाँ मिलती हैं। आपको बताया जाता है कि आप इस देश के ‘मजहब’ वालों के लिए कुछ नहीं हैं। क्योंकि इन्हें इस राष्ट्र के कानून का कोई भय नहीं है। ये भारत का कानून तब ही मानते हैं जब इनका अपना दोषी हो। तब ये शरियत और पर्सनल लॉ की बातें नहीं करते क्योंकि चोरी, बलात्कार, हत्या आदि की सजा तो शरियत में डीटेल में लिखी हुई है। वहाँ इनको भारतीय दंड विधान की याद आती है, लेकिन जब अभियुक्त हिन्दू हो, पीड़ित इनके मजहब का, तब ये शरियत से चलते हैं। तब फतवा निकलता है, तब इसी राष्ट्र के संविधान की होली जला कर कट्टरपंथी वही करता है जो उसके ऊपर बैठा कट्टरपंथी कहीं से बैठ कर आदेश देता है। करोड़ों समर्थक तैयार रहते हैं ऐसे फतवों का पालन करने के लिए, लाखों इस पर सोचते हैं, हजारों इस पर योजना बनाते हैं, सैकड़ों शिकार पर घात लगाते हैं, दर्जनों उसका पीछा करते हैं, और उनमें से एक टोली मौका पाते ही गला रेत देती हैं।

संविधान और प्रशासन तो कमलेश तिवारी के लिए मौजूद था ना? क्या हुआ? जब दोषी पकड़े जा रहे हैं, तो कहा जा रहा है कि वो तो बस इसलिए मारने को आ गए क्योंकि उसने तो फलाने के लिए फलानी बात लिख दी थी! एक मजहब के नाम वाला पत्रकार है जो ये लिख रहा है कि उसकी माँ तो कह रही है कि किसी भाजपा वाले ने ही मरवा दिया, तो पुलिस कट्टरपंथी मजहब वालों को क्यों पकड़ रही है! बाकी मरे हिन्दुओं की माँ ने क्या कहा था वो किसी को याद नहीं?

आप ध्यान दीजिए कि ऐसे मौकों पर ऐसे नाम वाले लोग, जो अपने बारे में बायो में स्वयं को पत्रकार, परोपकारी, घुमक्कड़, स्वतंत्र आत्मा, सामाजिक कार्यकर्ता आदि लिखे रहते हैं, वो अपनी केंचुली उतार कर फौरन मजहब विशेष के बन जाते हैं, सारी पहचानें मिट जाती हैं क्योंकि ‘मजहब वाला’ चाहे आतंकवादी हो, बलात्कारी हो, चोर हो, हत्यारा हो, किसी भी तरह का अपराधी हो, उसकी भी सारी पहचान और उससे जुड़े सारे विशेषण गौण हो जाते हैं, बचता है तो बस उसका ‘मजहबी’ होना।

फिर एक कट्टरपंथी, दूसरे कट्टरपंथी को, सहोदर मान कर उसकी प्रतिरक्षा में जुट जाता है। वो सवाल उठाने लगता है कि आपको कैसे पता कि मजहब विशेष वाले ने ही मारा है, जाँच हुई है क्या? वो पूछने लगता है कि कमलेश तिवारी की जाती दुश्मनी भी तो हो सकती है। वो लिखने लगता है कि प्राथमिक जाँच में यह निकल कर आया है कि कमलेश तिवारी की पार्टी के लोगों ने चंदे के लिए उसकी हत्या कर दी।

यही पूरा समूह, ये पूरा इकोसिस्टम, ये हलाल इकोसिस्टम ऐसे ही एक घड़ी की तरह काम करते हैं। सबको पता है कि उनका काम क्या है, उन्हें कितना बोलना है, क्या बोलना है, कब बोलना है, किस बात को पकड़ कर तूल देना है। इसीलिए हजारों आतंकी वारदातों को अंजाम देने वाला मजहब शांतिप्रिय होने का तमगा चमकाता फिरता है और हजारों साल से अतिसहिष्णु रहा हिन्दू असहिष्णुता का पर्याय बना दिया जाता है। और जो इनमें अच्छे लोग हैं, जिन कलाम साहब की हम भारतीय पूजा करते हैं, वो इनके लिए ‘बुरे’ हैं, वो ‘बस नाम के’ ही कहे जाते हैं। आरिफ़ मोहम्मद खान, केके मोहम्मद ‘बुरे’ हैं क्योंकि वो तार्किक बातें करते हैं।

ये इकोसिस्टम फेसबुक पर आपके ‘जय श्री राम’ लिखने से ले कर संस्कृत में कुछ भी लिखने पर समूह में रिपोर्ट करता है और आपका अकाउंट वही फेसबुक बंद करता है जो अपने आप को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का चैंपियन मानता है। आज कमलेश तिवारी पर कुछ लोग लिख रहे हैं तो ट्विटर पर अकाउंट सस्पैंड हो रहा है। ऐसा इसलिए होता है कि इकोसिस्टम अपने सारे पहचान मिटा कर सिर्फ एक पहचान धारण कर लेता है ऐसे मौकों पर। वो पहचान, वो आइडेंटिटी, वो एक शब्द क्या है, ये बताने की ज़रूरत नहीं।

मेरा एक मित्र अमेरिका में है, वो मुझे लिखता है कि मैं एक विडियो बनाऊँ जिसमें मैं भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी से, गृहमंत्री अमित शाह जी से अपील करूँ कि भारत के हर उस इलाके की सुरक्षा चौकस कर दी जाए जहाँ भी एक खास मजहब के लोग बीस प्रतिशत से ज्यादा हैं। इसका कारण उसने बताया कि अगर बाबरी मस्जिद पर निर्णय मस्जिद वाले पक्ष में नहीं गया तो वो दंगा करेंगे, और इसका सबसे बुरा प्रभाव उन हिन्दू बच्चियों पर पड़ेगा जिसका बलात्कार करने से पहले इस समुदाय विशेष के लोग एक बार सोचेंगे भी नहीं।

उसका डर गलत नहीं है। भारत में इस्लामी आक्रांताओं के आगमन के समय से आज तक, किसी न किसी रूप में बलात्कार करना और दंगों के नाम पर हर तरह के आतंक की छाप छोड़ना इस समुदाय विशेष का सिग्नेचर तरीका है। इन्हें कोई झिझक ही नहीं होती क्योंकि ये मजहबी तौर पर जायज है। न तो पाप का भागी बनने का डर, और कानून का खौफ तो खैर है ही नहीं, तो क्यों न डरें हम अपनी बच्चियों के लिए?

ये उस देश में हो रहा है जो हिन्दुओं की एकमात्र बड़ी जगह है। ये उस राष्ट्र में हो रहा है जहाँ कथित तौर पर हिन्दूवादी सरकार है। मेरे जैसों को उस देश में डर लग रहा है जहाँ अस्सी प्रतिशत जनसंख्या हिन्दुओं की है। ये डर इसलिए लगता है क्योंकि हम कभी भी संगठित हो कर किसी से लड़ते नहीं। हमारे घरों में हथियार नहीं होते जबकि आत्मरक्षा आप किचन के बर्तनों से नहीं कर सकते। हमने कभी भी इस आने वाले युद्ध की तैयारी की ही नहीं जो अलहिंद नामक कई संगठन ऐलान कर चुके हैं।

मैं हिन्दू हूँ और मुझे बहुत डर लगता है अपने ही इस देश में क्योंकि न तो कमलेश तिवारी पहला शिकार था इन हलालप्रेमियों का, न ही मैं आखिरी होऊँगा। मैं या मेरे जैसे और लोग इनकी राह का रोड़ा हैं। अभिव्यक्ति की आजादी आप उस समुदाय विशेष को समझने बोल रहे हैं, जहाँ हलाला जैसी विचित्रता स्वीकार्य है सबको? उस लड़की से कोई पूछता भी है कि उससे जो करवाया जा रहा है उसकी सहमति है उसमें?

फिर मेरी अभिव्यक्ति तो गई संविधान के उन पन्नों में जिसकी विवेचना कुछ ऐसे भी होती है कि आपकी अभिव्यक्ति से दूसरे की भावना आहत हो गई, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति तो फ्री स्पीच है, तो आपकी भावना का कुछ नहीं किया जा सकता। इसलिए मुझे अस्सी प्रतिशत हिन्दुओं के देश में, जहाँ एक अरब आबादी है मेरे धर्म की, जहाँ कथित तौर पर मेरी विचारधारा के लोगों की सरकार है, लेकिन मैं सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहा क्योंकि यहाँ का कानून मुझे सुरक्षित होने की फीलिंग नहीं दे पा रहा।

मुझे डर इसलिए लगता है कि किसी दिन छुरा ले कर आए तीन लोग मुझे काट देंगे और मेरी लाश की फोटो पर गर्दन को पिक्सिलेट करके फीचर्ड इमेज बना कर अंग्रेज़ी मीडिया लिखेगा ‘कॉन्ट्रोवर्सियल स्क्राइब मर्डर्ड; ही वाज नोन फॉर राइटिंग अगेन्स्ट इस्लाम’। लेखों के शीर्षकों में इस हत्या को सूक्ष्म तरीके से जायज ठहराया जाएगा कि ‘मजहब विशेष पर लगातार लेख लिख कर उकसाने वाले पत्रकार की हत्या’। कुछ लोग यह भी कहेंगे कि ये हत्या तो इसके अपने लोगों ने ही राजनैतिक लाभ के लिए कराई है।

इसीलिए मुझे एक अरब हिन्दुओं के बीच हो कर भी अपने हिन्दू होने और सच बोलने को लेकर डर लगता है। मुझे मेरे शुभचिंतकों का डर जायज लगता है जब वो कहते हैं कि सँभल कर रहा करो। मेरे पिता और मुझे धमकाने वालों के पिताओं में फर्क बस यही है कि मेरे पिता के लिए मेरी मौत उनकी अपनी मौत से भी बुरी होगी, जबकि उनके पिता छाती ठोक कर कहेंगे कि फलाने की राह में कुर्बानी है ये, किसी काफिर को मार कर जेल गया है, फख्र है।

मैं भारत का हिन्दू हूँ और मुझे इसलिए डर लगता है क्योंकि यहाँ किसी का गला रेत कर हलाल करने वालों को किसी का डर नहीं लगता।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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