Sunday, November 17, 2024
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JNU का वो काला दिन, जब वामपंथियों के डर से मिटाने पड़े थे स्वास्तिक और शुभ दीपावली के निशान

"सॉरी यार रूम के बाहर का स्वास्तिक मिटाना पड़ा, शुभ दीपावली का पट्टा निकालना पड़ा... वरना ये लोग इस रूम में भी तोड़ कर घुस जाते।" ABVP छात्र ने सुनाई आपबीती और कहा - 'मैं ABVP से हूँ, और मैं गुंडा नहीं हूँ'

मैं कलम का सिपाही नहीं हूँ। इसलिए लेखन में सिद्धहस्त भी नहीं हूँ। लेकिन आज जो मैं लिख रहा हूँ, वो लिखने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी नहीं बचा था। पिछले साल जनवरी की 5 तारीख को मैंने अपने भीतर कुछ टूटा हुआ महसूस किया। मुझे लगा कि मैं हार गया हूँ। मुझे लगा कि अब और मैं लड़ नहीं सकता। लेकिन एक जुनून था, जिसने मुझे उस हार को स्वीकारने नहीं दिया।

उस दिन मुझे नहीं पता था कि मुझे आगे क्या करना चाहिए। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं ये सब किसके साथ साझा करूँ, किस पर यकीन करूँ, किसको समझाऊँ, किससे सलाह लूँ और किससे मदद की गुहार लगाऊँ?

जब मुझे इनमें से किसी भी सवाल का जवाब ठीक से नहीं मिला तब मैंने सोचा कि अब लिखने के अलावा कोई चारा नहीं! मुझे नहीं पता कि कितने लोग इस लिखे हुए को पढ़ेंगे, या कितने लोग इसे पढ़ कर मेरी भावनाओं को समझ पाएँगे। पर मुझे इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

मैं अपने आप को अपने भीतर के डर से मुक्त करना चाहता हूँ। मैं असमर्थता के चंगुल से अब बाहर आ जाना चाहता हूँ। मैं जेएनयू की वादियों में बिना डरे दुबारा विचरण करना चाहता हूँ, कि लोग मेरा सामाजिक बहिष्कार न कर दें। और मेरी ये भावनाएँ न जाने कितने और जेएनयू वालों की भावनाएँ हैं, जिन्हें मैं इस लेख के माध्यम से शब्द देना चाहता हूँ।

उस दिन नए साल की पाँचवीं सुबह थी। उस दिन जो दंगे जेएनयू कैम्पस में हुए, उससे आप सब भली-भाँति परिचित हैं। जेएनयू के लोग भी भली भाँति परिचित हैं। जेएनयू का ‘कॉमन स्टूडेंट’ भी जानता है कि उस दिन जो हुआ, वो वामपंथी कुंठा का परिणाम और उनकी हिंसा की प्रवृत्ति की एक बानगी भर था।

पर आश्चर्य इस बात का है कि जेएनयू के एक बड़े वर्ग ने न सिर्फ उस घटना को स्वीकार कर लिया बल्कि हमारे खिलाफ नफरत फैलाने की जो साजिश रची गई, जो सोशल बॉयकॉट का ढोंग किया गया, उसमें भी शामिल हुए। तभी मेरे दिमाग में ये बात कौंधी कि जेएनयू को एक रंग में रंगने की जो साजिश एक लंबे समय से चलती आ रही है, उसका अपना प्रभाव दिखना तो लाजिमी है।

एक तरफ जेएनयू में भारत के हर कोने से विद्यार्थी आता है, हर भाषा, हर धर्म, हर वर्ग का विद्यार्थी जेएनयू में शिक्षा लेता है… एक तरह से देखें तो जेएनयू भारत का ही छोटा सा स्वरूप है। विविधता में एकता की खूबसूरती की जगह विविधता को समाप्त कर देने की कोशिश जब सफल होती दिखे तो दुख होता है।

मैं जब से जेएनयू में हूँ, तब से ही मुझे इस बात का एहसास है कि जेएनयू में एक ऐसा वर्ग है, जिसे ‘कॉमन स्टूडेंट्स’ कहा जाता है। जो राजनैतिक रूप से किसी एक पक्ष की ओर झुका हुआ नहीं है। जिसे गलत और सही में अंतर करना आता है। लेकिन 5 जनवरी की घटना के बाद ये भ्रम टूट सा गया और लगा जैसे जेएनयू में सच में बोलने की, सोचने की, सच कहने की, अपने अधिकारों के लिए लड़ने की, और समस्या से समाधान तक पहुँचने की कोशिश करने की कोई महता नहीं है।

यहाँ सिर्फ एक ही सत्ता है… वामपंथी तानाशाही सत्ता! जिस पर खतरा आते ही हिंसा का बर्बर रूप सामने आ जाता है। यह सब देख कर, सोच कर मुझे ऐसा लगने लगा जैसे हमारी ही गलती थी। ऐसा लगा जैसे एबीवीपी को गुंडा कहने वाले लोगों की बातें मान लेना ही अब एक चारा है। ऐसा लगा कि वामपंथ की ज़हरीली हवा को साफ करने की हमारी कोशिश ही गलत है।

जब कैम्पस में ये बात फैलाई गई कि एबीवीपी की प्लानिंग थी, ‘तुम लोग इसी लायक हो’, ‘और मिलेगा अभी प्रसाद’, जैसी बातें जब फैलाई जा रही थीं; और जब लोग अपनी जान बचाने के लिए अपने कमरों की बालकनियों से छलाँग लगा रहे थे, आधे नँगे दौड़ रहे थे, खून से लथपथ थे, लेकिन फिर भी इस बात का सुकून था कि जान बच गई। तब ये सब देख कर मेरे दिमाग में सिर्फ एक ही बात चल रही थी कि जेएनयू समुदाय मानसिक रूप से इतना बेबस नहीं हो सकता कि वामपंथ की इस साजिश को अपनी आँखों के सामने देख कर भी न देख सके। लेकिन ऐसा हुआ, और ऐसा होने के बाद जो वातावरण जेएनयू में बना, उसने मुझे भीतर से सहम जाने को मजबूर कर दिया।

यहाँ जेएनयू में जो कुछ भी हो रहा था, उसे पूरा देश मीडिया के माध्यम से देख रहा था। हमारे घरवालों ने भी देखा। माँ-बाप बोले, “बेटा छोड़ दो एबीवीपी, ज़िंदगी रही तो आगे बहुत कुछ कर पाओगे”, लेकिन उन्हें कहाँ पता है कि ये वामपंथी लोग खुद बस्तियाँ जला कर खुद मातम भी मना लेने वाले लोग हैं। इन्हें उस कॉमन स्टूडेंट को भी मारने में एक सेकंड की हिचक नहीं होती, जो इनके हर षड्यंत्र का साथी हो जाया करता है। इस बात का अंदाज़ा लगाना बेहद कठिन है कि 5 जनवरी की घटना ने कितने लोगो की ज़िंदगियों को बदल कर रख दिया है।

मैं खुद अपने आपको बहुत से मामलों में तब से अलग पाता हूँ। मैं कभी उन लोगों को इसके लिए माफ नहीं कर पाऊँगा, जो मेरी या मेरे जैसे कितने ही और विद्यार्थियों की ज़िंदगियों को बदलने के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन साथ ही मैं कैम्पस के वामपंथी धड़े को यह भी याद दिलाना चाहता हूँ कि हम सब उस दिन बिखरे जरूर थे, लेकिन टूटे नहीं थे।

मैं अपने साथियों का आभार प्रकट करना चाहता हूँ, जिन्होंने मुझे आशा की एक किरण दी, कि हार नहीं मानना है, हिम्मत नहीं टूटने देना है, हम लोग वापस उठेंगे और फिर से मेहनत करेंगे। मैं अपने साथियों के इस जज़्बे को सलाम करता हूँ। मैं खुद पर इस नाते से गर्व करता हूँ कि एक ऐसे संगठन का हिस्सा हूँ, जिसने व्यक्ति से ऊपर उठ कर संगठन का भाव सिखाया है।

दंगे-फसाद के बाद हमें अस्पताल ले जाया गया। वहाँ से जब मैं वापस अपने हॉस्टल लौटा तो मुझे बहुत अजीब महसूस हो रहा था। लोग मुझे देख कर मुँह मोड़ ले रहे थे। अजीब सा व्यवहार मुझे पहले तो समझ नहीं आया। तभी मुझे ध्यान आया कि ओह, मैं तो एबीवीपी से हूँ! मैं साफ-साफ सुन पा रहा था, लोग कह रहे थे – ‘ठीक से प्रसाद मिला नहीं लगता है!’

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या प्रतिक्रिया दूँ? मेरे मन में कई भाव उत्पन्न हो रहे थे जैसे गुस्सा, निराशा, हताशा, और मैं पूरी तरह हतोत्साहित हो गया था। बस मुझे ऐसा लगा जैसे मैं पूरी तरह से टूट चुका हूँ। ये 2020 की शुरुआत भर थी, हममे से कितनों ने आँसू बहा कर खुद को समझाया। आज मैं फिर से बुलंदी के साथ कहना चाहता हूँ कि ‘मैं एबीवीपी से हूँ, और मैं गुंडा नहीं हूँ’।

मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे एक दिन इस कैंपस से भागना पड़ेगा, जिसे मैंने खुशी-खुशी अपना माना था। हमारी फोटो लगा कर पर्चे बाँट कर हमें मारने का खुला न्यौता दिया। मैं यहाँ जो असहिष्णुता फैली हुई थीं, उसको देख रहा था और महसूस कर रहा था। लोग हमारे साथ चलने से डरते थे, हमारे कार्यकर्ता मेस में पर्चा बाँटने के लिए घुसने से डरते थे, भय के माहौल की पराकाष्ठा थी। मैं स्तब्ध रह गया, जब मेरे रूममेट ने कहा – “सॉरी यार रूम के बाहर का स्वास्तिक मिटाना पड़ा, शुभ दीपावली का पट्टा निकालना पड़ा… वरना ये लोग इस रूम में भी तोड़ कर घुस जाते।”

मुझे इस पर विश्वास नहीं हो रहा था, लेकिन ये सच्चाई थी। अब मैंने ठान लिया था कि तब तक दीवाली नहीं मनाऊँगा, जब तक दीवाली वाली रौनक वापस ना आ जाए। मैं एक ऐसी जगह रहता हूँ, जहाँ मैंने कभी सोचा नहीं था कि स्वास्तिक का चिन्ह और शुभ दीपावली की झालर देख कर लोग हमला कर सकते हैं।

मैं मेरे ईश्वर से माफी चाहता हूँ कि मैं कुछ नहीं कर सका, खुद को सुरक्षित रखने के लिए मुझे मेरे आराध्य का अनादर करना पड़ा। मैं एक ऐसी जगह पर था, जहाँ एक बड़ी संख्या में लोगों ने हमें सामाजिक रूप से बॉयकॉट कर दिया। लेकिन मुझे इस बॉयकॉट से कोई फर्क नही पड़ता, क्यूँकि अब मुझे पता चल गया कि ये लोग कभी मेरे साथ थे ही नहीं। और जो लोग मेरे साथ थे, आज भी मेरे साथ हैं।

मैं लोगों को आशाएँ खोते हुए देख रहा था, बोल रहे थे छोड़ ना, रहने दे ना भाई, बेकार में इन सब में पड़ रहा है, चुपचाप एक साल और निकाल ले और पढ़ कर निकल जा, अकेले कुछ नहीं कर पाएँगे इनका, ये लोग नहीं छोड़ेंगे नहीं तो। लेकिन मैं चैन की साँस ले सकता था क्यूँकि मैं जानता हूँ, जेएनयू के बाहर भी एक दुनिया है, मेरा पूरा जीवन बर्बाद नहीं हुआ है और कोई भी जेएनयू के बाहर मुझे गुंडे के रूप में नहीं देखेगा। कुछ समय बाद जब मैं यहाँ से चला जाऊँगा और मैं सुना जाऊँगा, मैं समझा जाऊँगा, और लोग मेरा सम्मान करेंगे।

जेएनयू के बाहर एक दुनिया है, जहाँ सच का सम्मान होता है, जहाँ लोग तथ्यों को समझने के बाद निर्णय लेते हैं, जहाँ कॉमन लोग सिर्फ कॉमन लोग होते हैं, जहाँ मुझे घुटन नहीं होगी, जहाँ मैं गर्व के साथ कह सकता हूँ कि मैं जेएनयू में एबीवीपी के कार्यकर्ता के रूप में रहा और लोग तालियों से मेरी सराहना करेंगे। मैं चेन से साँस ले सकता हूँ क्यूँकि ये समय चला जाएगा और अच्छा समय लौट कर आएगा।

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Manish Jangid
Manish Jangidhttp://www.jnu.ac.in/ses-student-representatives
Doctoral Candidate, School of Environmental Sciences, Jawaharlal Nehru University, Delhi | Columnist | Debater | Environmentalist | B.E. MBM JNVU |Akhil Bharatiya Vidyarthi Parishad JNU, Presidential Candidate JNUSU2019 |स्वयंसेवक | ABVP Activist | Nationalist JNUite, Fighting against Red Terror/Anti nationalist forces communists |

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