प्रकाश मानव सभ्यता की पहली सभ्य खोज और आशा की अंतिम किरण है। मोदी जी ने पाँच अप्रैल को शाम नौ बजे इसी प्रकाश से सामाजिक समरसता को ज्योतित करने का आह्वान किया है। इसे सुनकर बहुत-से लोग बहुत खुश हुए और बहुतों को ये रास नहीं आया। शायद उन्हें ये कम वैज्ञानिक लगा।
दरअसल बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक सोच के दावेदार जब छोटे-छोटे निजी आग्रहों से ग्रस्त हो जाते हैं तो सबसे पहले वो अपनी सामान्य समझ (Common Sense) को खो देते हैं। समस्या की प्रकृति को समझना और उसका विवेकपूर्ण विश्लेषण करना सभी वैज्ञानिक अनुसंधानों के प्रारम्भिक चरणों में से एक है, किन्तु शायद हमें इन्हें प्रयोगशाला में ही बंद कर ताला लगा देना होता है, उनका वहाँ से बाहर आना और बाक़ी जगहों पर लागू होना शायद मना है।
बड़ा वैज्ञानिक दकियानूसीपन है? प्रधानमंत्री ने कहा कि जब सभी एक साथ घरों की बालकनियों से दीपक जलाएँगे तो उनको लगेगा कि वो अकेले नहीं हैं, सबका हौसला बढ़ेगा, निराशा कुछ कम हो जाएगी। निश्चित रूप से किसी भी सकारात्मक सामूहिक गतिविधि का ऐसा परिणाम होता ही है, सभी पर्वों-त्यौहारों का यही मकसद है। लेकिन कुछ अति वैज्ञानिक विचारकों को उम्मीद थी कि दीपक में से अलग-अलग स्कीमें निकलेंगी या योजनाओं की फुलझड़ियाँ फूटेंगी। यानी जब LEO Satellite प्रक्षेपित की जाती है तो आप उससे GEO के परिणामों की उम्मीद करते हैं।
ये वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है। शशि थरूर जैसे अति-शिक्षित व्यक्ति ट्वीट कर आरोप लगाते हैं कि प्रधानमंत्री ने Covid-19 की लड़ाई को राम भरोसे छोड़ दिया है। आदरणीय शशि थरूर जी! मोदी जी ने घर में खाली बैठे लोगों को मोमबत्तियाँ जलाकर एकता प्रकट करने के लिए प्रेरित किया है, डॉक्टर्स या सुरक्षाकर्मियों को नहीं। वो अपना काम करते रहेंगे। रही राम भरोसे की बात, तो जब हम कठिन लड़ाइयाँ लड़ते हैं, विशेषरूप से ऐसी लड़ाइयाँ जिनके परिणाम के बारे में हम सुनिश्चित नहीं हैं, तब हम अपना प्रयास नहीं छोड़ देते बल्कि छोड़ते हैं सिर्फ फल की कामना को। अब चाहे इसे राम भरोसे छोड़ना कहें या नैतिकतापूर्ण समझदारी।
नैतिकतापूर्ण इसलिए क्योंकि कम उम्मीद होने पर भी व्यक्ति उसे अपना कर्त्तव्य मानकर करता रहता है। भारतीय दर्शन की सबसे प्रसिद्ध सूक्ति है- ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ सभी वैज्ञानिक परीक्षण इसी जुझारूपन का परिणाम हैं। जब एक वैज्ञानिक किसी फल की अथवा सफलता-असफलता की परवाह न करता हुआ अपने प्रयोगों में लगा रहता है तब वो गीता के इसी आदर्श का पालन कर रहा होता है।
कुछ लोग इस फैसले पर ऐसे हैरान हैं मानो सरकार ताली और थाली के अलावा कुछ कर ही नहीं रही हो। बहुत-से ऐसे कदम हैं, जो सरकार इस स्थिति से निपटने के लिए उठा रही है। यहाँ उनका जिक्र करने का तुक नहीं है, आप स्वयं उनकी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। निजामुद्दीन मरकज की दुर्घटना को छोड़ दें तो भारत इस दिशा में सही प्रगति कर रहा था।
जाहिर है कि हमारे देश में कोरोना के इलाज़ को ताबीज पहनने जैसे टोने-टोटकों के भरोसे नहीं छोड़ा गया है, अपितु व्यावहारिक स्तर पर ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। भारत के चिकित्सक रोगियों का इलाज़ और चिकित्सा विज्ञानी औषधियों का अनुसंधान अद्यतनीन वैज्ञानिक विधियों से ही कर रहे हैं। लेकिन वो भी इंसान हैं और दिन-रात की परवाह किए बिना अपने काम पर लगे हैं। उनके इंसानी सामर्थ्य की सीमाओं को और भी विस्तृत करने के लिए यानी उनका उत्साहवर्द्धन करने के लिए इस तरह के कदम उठाए जाते हैं।
जो लोग घरों में अकेलापन और भय महसूस कर रहे हैं, उनके सूनेपन को दूर करने के लिए ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं। मोदी एक राजनेता हैं। लोकतंत्र में राजनेता जननेता होता है, तो स्पष्ट है कि जनता के मनोबल को ऊँचा रखना उनका मुख्य काम है, चाहे वो ताली से हो, थाली से हो या मोमबत्ती से। काश विज्ञान की दुहाई देने वालों में ज़रा भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण होता।
जनभावनाओं की अवहेलना करके बड़े-बड़े राजनेता अपनी राजनैतिक जमीन खो चुके हैं क्या इसे जारी रखकर अब वो अपनी व्यक्तिगत स्वीकार्यता को भी दाँव पर लगाना चाहते हैं? वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी जन-मन का भरपूर ख़याल रखते हैं और उनके मन की बात करने की कोशिश करते हैं। क्या आप जानते हैं किसी के मन की बात पहचानने को क्या कहते हैं? मन:पाखण्ड? नहीं, ऐसा कोई शब्द नहीं होता। इसे मनोविज्ञान कहते हैं। मतलब ये भी एक विज्ञान है।
जहाँ तक दिया-बाती, प्रार्थनाओं और दुआओं का प्रश्न है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण तो यही कहता है कि सब काम पुरुषार्थ से ही होते हैं। प्रार्थना तो पुरुषार्थ को बल और प्रेरणा देती है। ये पुरुषार्थी व्यक्ति के मनोबल को ऊँचा रखने में सहायता प्रदान करती है और हम जानते हैं कि सहायता मुख्य क्रिया नहीं होती, चाहे कितनी भी आवश्यक क्यों ना हो, वो तो सहायक क्रिया ही है।
इसलिए प्रार्थना पुरुषार्थ का स्थगन नहीं है और यही वजह है कि प्रार्थना में कुछ भी अवैज्ञानिक नहीं है। Covid-19 को रोकने के सभी प्रयास हमारी शुभकामनाओं से बल पाएँगे और हमें निर्धारित निर्देशों का पालन करने की प्रेरणा देंगे। दवा हमारे शरीर की और दुआ हमारे मन की इम्यूनिटी को बढ़ाती है।
इस प्रसंग में ऋग्वेद की एक ऋचा बहुत ही अनुकूल है- ‘इच्छन्ति देवा: सुन्वंतं न स्वप्नाय स्पृहयन्ति’, जिसे हम आम भाषा में कहते हैं- ‘ईश्वर भी उसी की सहायता करता है, जो स्वयं अपनी सहायता करते हैं। इसलिए लॉकडाउन और अन्य सभी निर्देशों का पालन करना हमारा कर्त्तव्य है, जिसे पूरी तरह से निभाना है। प्रार्थना की भूमिका इतनी है कि ये आपको कठिन समय में निराश होने से बचाती है, सामान्य स्थितियों में अकर्मण्य होने से रोकती है, खुशी-खुशी अपने कर्त्तव्य के पालन के लिए उत्साह देती है।
सबसे बड़ी बात ये है कि सच्चे मन से की गई प्रार्थना अपनी इस भूमिका को सौ प्रतिशत निभाती है, आजमा कर देखिए आपको आश्चर्य तो होगा लेकिन इस आश्चर्य में प्रबल प्रेरणा छुपी होगी, जो आपके काम आएगी।
प्रधानमंत्री ने सभी धर्मगुरुओं से अपने अनुयायियों को समझाने और उन्हें परामर्श देने की अपील की है। साम्प्रदायिक उन्माद में जिस तरह तबलीगी जमात ने कोरोना का आतंक फैलाया है, ऐसे में ये अपील बहुत मायने रखती है। आशा है सभी धर्मगुरु अपना कर्त्तव्य सक्रियता से निभाएँगे लेकिन मैं आपके साथ कुछ ऐसी प्रार्थनाएँ साझा करना चाहती हूँ, जो पूर्णत: पंथनिरपेक्ष हैं, जिनमें किसी मत-पंथ के लोगों के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए हितकामना की गई है।
ये प्रार्थनाएँ विश्व साहित्य के आदिग्रंथ वेदों में उद्धृत हैं। वेद अथाह ज्ञान की राशि हैं किन्तु आइए हम आज की परिस्थिति में जरूरी कुछ प्रार्थनाओं पर गौर करें। निरंतर उत्साह और जिजीविषापूर्वक परिश्रम करने की कामना से युक्त ऋग्वेद का यह मंत्र देखें- ‘मा भेम मा श्रमिष्म’ अर्थात् हम किसी भी परिस्थिति में डरें नहीं, थकें नहीं।
सभी के स्वस्थ एवं निरोगी होने की शुभकामना लिए यजुर्वेद की प्रार्थना का एक स्वर सुनिए- ‘विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम्’ अर्थात् इस गाँव में सब पुष्ट और निरोग रहें। हम वेद के इन शब्दों से प्रेरणा लेकर अपने-अपने परिवेश के स्वस्थ वातावरण के लिए कामना करते हुए उसके लिए प्रयास कर सकते हैं।
इन्द्रियों के सम्पूर्ण स्वास्थ्य के साथ कम से कम सौ वर्ष और उससे भी अधिक आयु की प्रार्थना से ओतप्रोत एक वेदमंत्र- ‘पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं शृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शातात्।’
एक और बहुत ही समावेशी प्रार्थना, मानो इंसान की सभी यथासंभव खुराफातों का शिकार होने वाली वस्तुओं का परिगणन कराती हुई सर्वत्र शान्ति की कामना करती है – ‘द्यौ: शान्तिरंतरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वं शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।’
इसका भावानुवाद कुछ इस तरह से है-
“शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में , जल में स्थल में और गगन में
अंतरिक्ष में अग्नि पवन में, औषधि वनस्पति वन-उपवन में
और जगत के हो कण-कण में, शान्ति कीजिए प्रभु त्रिभुवन में।
अंत में ऋग्वेद की सबसे अंतिम वो ऋचाएँ, जो पाँच अप्रैल के इस आयोजन की प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा की गई व्याख्या को संबल देती हैं। यानी एकत्व, सामंजस्य और संगठन की प्रार्थना- ‘संगच्छद्ध्वं सम्वदद्ध्वं सं वो मनांसि जानताम्।’
हे प्रभो! व्यापक संकट की इस घड़ी में हमें मिलकर चलने, मिलकर बोलने और मिलकर सोचने की शक्ति प्रदान कीजिए।
क्योंकि एक छोटे से अवयव-संस्थान शरीर में भी अगर सामंजस्य समाप्त हो जाए तो व्यक्ति रोगी हो जाता है, राष्ट्र और मानवता तो एक बड़ी इकाई है। इसमें यदि समरसता ख़त्म हो गई तो आशा की किरण जाती रहेगी। वैश्विक आपदा के इस अंधकारमय वातावरण में आशाओं, विश्वासों और समभावों के दीपक ही विजय के प्रकाशस्तंभ बन सकते हैं।