Sunday, November 17, 2024
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जनसंख्या नीति की जरूरत क्यों? मुस्लिम बहुल जिलों से समझिए समस्या को, खतरे में है लड़कियों का जीवन

मुर्शिदाबाद - पश्चिम बंगाल का सबसे अधिक मुस्लिम बहुल जिला। असम के धुबरी में मुस्लिम 79.67% - दोनों का उदाहरण मुस्लिम आबादी के लिए नहीं बल्कि 15-19 वर्ष की लड़कियाँ के माँ-गर्भवती होने को लेकर है। इन बच्चियों के स्वास्थ्य के लिए जनसंख्या नीति वक्त की जरूरत है।

भारत में जनसंख्या नीति के लिए एक व्यवस्थित कानून का माँग कोई नई नहीं है बल्कि यह दशकों से लगातार चर्चा का विषय बनी हुई है। साल 1992 में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री एमएल फोतेदार ने संविधान का 79वाँ संशोधन विधेयक पेश किया। इसके अंतर्गत संसद एवं सभी राज्यों की विधानसभाओं में जिन निर्वाचित प्रतिनिधियों के दो से अधिक बच्चे थे, उनके चुनाव को अयोग्य ठहराने का प्रस्ताव पेश किया था।

हालाँकि, इस विधेयक पर हंगामा होना तय था, अतः इस पर चर्चा ही नहीं हुई और यह आज तक पारित होने की राह देख रहा है। उस दौरान संसद एवं विधानसभाओं में कितने सांसदों एवं विधायकों के दो से अधिक बच्चे थे, इसका कोई सटीक तथ्य उपलब्ध नहीं है। वास्तव में इस विधेयक को ससंद में पारित करवाना इतना भी आसान नहीं था। मगर केंद्र की तत्कालीन कॉन्ग्रेस सरकार की जनसंख्या नियमन की एक अनूठी पहल का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इस प्रस्तावित संशोधन के बाद कई राज्यों ने अपने यहाँ की पंचायतों में इसे लागू कर दिया।

इसके बाद देश की जनसंख्या पर एक नीति बनाने के लिए चर्चाओं का सिलसिला शुरू हो गया और साल 1992 से वर्तमान तक लगभग 22 निजी विधयेक पेश किए जा चुके हैं। गौर करने वाली बात यह है कि सबसे पहले अप्रैल 1992 में राष्ट्रीय जनसंख्या नीति विधेयक को प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने पेश किया था। यह सर्व-विदित है कि प्रतिभा देवी सिंह पाटिल आगे चलकर देश की 12वीं राष्ट्रपति बनी।

राष्ट्रीय जनसंख्या नीति विधेयक पर निजी विधेयक पेश करने वालों में भाजपा, कॉन्ग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, तेलगू देशम पार्टी, बीजू जनता दल, और राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी जैसे दलों के सांसद शामिल रहे हैं। यानि जनसंख्या पर नीति की माँग सिर्फ एक दल की नहीं बल्कि देश के राष्ट्रीय और स्थानीय दोनों प्रकार के दलों की तरफ से समय-समय पर होती रही है।

साल 2010 में भी जनसंख्या को लेकर लोकसभा में एक बहस हो चुकी है। उस दौरान कॉन्ग्रेस के गुलाम नबी आजाद देश के परिवार एवं स्वास्थ्य कल्याण मंत्री थे और उन्होंने जनसंख्या के नियमन को लेकर अपनी स्वीकार्यता दी थी। इस विषय पर लगभग सभी दलों के 45 सदस्यों ने अपने मत रखे। बहस के दौरान मात्र चार सदस्यों ने जनसंख्या के नियमन को लेकर अपनी अस्वीकार्यता दिखाई थी। यह एक अभूतपूर्व कदम था जिसमें सदन के सभी दल जनसंख्या के नियमन को लेकर एकदम स्पष्ट थे लेकिन उस दिन लोकसभा में बस एकमात्र मतभेद देखने को मिला, जोकि नियमन के प्रकारों पर था। यानी नियमन किस तरह से किया जाए, इस पर सदस्यों के भिन्न-भिन्न मत थे।

विधायिका के इतर जनसंख्या असंतुलन के कारकों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। भारत की 1950 में कुल प्रजनन दर 5.9 प्रतिशत थी और 1960 की तक इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया, लेकिन 1970 में मामूली गिरावट के साथ यह 5.72 हो गई। इसके बाद प्रजनन दर में 1990 के बाद से लेकर 2010 के बीच तेजी से कमी आनी शुरू हुई और 2020 में यह अपने न्यूनतम स्तर 2.24 पर है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कुल प्रजनन दर के मामले में देश ने एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है। लेकिन अभी जनसंख्या को लेकर ऐसे कई महत्वपूर्ण विषय हैं, जिन पर अब विचार करना होगा।

जैसे पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। यह जिला पश्चिम बंगाल का सबसे अधिक मुस्लिम बहुल है। यहाँ प्रश्न सिर्फ मुस्लिम आबादी का नहीं है बल्कि लड़कियों के विवाह को लेकर है। साल 2019-20 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार मुर्शिदाबाद में 18 वर्ष की उम्र से पहले लड़कियों के विवाह का प्रतिशत 55.4 है, जोकि देश में सबसे अधिकतम है। यही नहीं, जिले में सर्वेक्षण के दौरान 15-19 वर्ष की लड़कियाँ जो पहले से ही माँ अथवा गर्भवती थीं, उनका प्रतिशत 20.6 है।

लगभग यही कहानी असम के धुबरी जिले की है, जहाँ मुस्लिम आबादी 79.67 है। साल 2019-20 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार धुबरी में 18 वर्ष की उम्र से पहले लड़कियों के विवाह का प्रतिशत 50.8 है। साथ ही जिले में सर्वेक्षण के दौरान 15-19 वर्ष की लड़कियाँ जो पहले से ही माँ अथवा गर्भवती थीं, उनका प्रतिशत 22.4 है।

यह देश के सिर्फ दो जिलों की दुर्दशा नहीं है, जहाँ न सिर्फ समय से पहले लड़कियों के विवाह बड़े पैमाने पर हो रहे हैं, साथ ही साथ बेहद कम उम्र में वे माँ बन चुकी हैं अथवा गर्भवती हैं। इस दिशा में रोकथाम के लिए सरकारों ने कई प्रयास किए हैं लेकिन वह ज्यादा प्रभावी नहीं रहे हैं। इसलिए देश के कई हिस्सों में जरूरत से ज्यादा असंतुलन पैदा हो रहा है अथवा हो चुका है। विवाह की न्यूनतम आयु से संबंधित कानून के प्रचार-प्रसार एवं प्रवर्तन के प्रयास को लेकर देश में सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान ही एक सम्बंधित प्रस्ताव शामिल किया गया था। इसके बाद अथवा इससे पहले कोई ठोस व्यवस्था इस सन्दर्भ में नहीं की गई है।

दरअसल, कम उम्र में विवाह होना और माँ बनने से जनसँख्या में वृद्धि होने के साथ-साथ असंतुलन भी पैदा हो जाता है। यही नहीं, इससे लड़कियों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर भी बुरा असर पड़ता है। अतः अब इस और भी ध्यान देने की जरूरत है। भारत में जनसंख्या पर अंकुश लगाने के साल 1951 से प्रयास जारी हैं। इस दौरान केंद्र सरकारों और राज्य सरकारों ने अपने-अपने स्तर पर कई योजनाएँ, कार्यक्रम, जागरूक अभियान और कानून बनाए हैं। इससे भारत की एक बड़ी आबादी पर तो इसका सकारात्मक असर दिखाई देता है लेकिन मुर्शिदाबाद और धुबरी जिलों के जैसे अन्य कई जिलों में कुल प्रजनन दर अधिक बनी हुई है।

अतः अब जनसंख्या को लेकर एक ऐसी समग्र नीति की आवश्यकता है जोकि सम्पूर्ण देश के को लाभान्वित कर सके। यह तो तय है कि जनसंख्या नीति को लेकर सभी दलों की एक राय है। कुछ गतिरोध है जिन्हें संसद में सर्वदलीय समिति का गठन अथवा आपसी समझ के माध्यम से दूर किया जा सकता है।

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Devesh Khandelwal
Devesh Khandelwal
Devesh Khandelwal is an alumnus of Indian Institute of Mass Communication. He has worked with various think-tanks such as Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, Research & Development Foundation for Integral Humanism and Jammu-Kashmir Study Centre.

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