त्रिपुरा राज्य के पश्चिमी छोर पर उदयपुर शहर में हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार 51 शक्ति पीठों में से एक त्रिपुरेश्वरी मंदिर विराजमान है जिसे लोग त्रिपुर सुंदरी मंदिर के नाम से भी जानते हैं। यहाँ देवी की पूजा-अर्चना में देवी की स्तुति में बलि देने की प्रथा प्रचलित है। ठीक ऐसा ही एक मंदिर कमलेश्वरी देवी भी है, जो कि भारत-बांग्लादेश सीमा के किनारे बसे कस्बा गाँव में पड़ता है। बीते सितम्बर माह के आखिरी हफ्ते में राज्य के हाईकोर्ट ने बलि प्रथा पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगाने का फैसला सुनाया।
इस फैसले के खिलाफ त्रिपुरा की राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पेटीशन (एसएलपी) के तहत अपील करने का फैसला किया है। प्रदेश कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष प्रद्योत किशोर देब बर्मन ने भी उच्च न्यायालय के फैसले को धार्मिक गतिविधियों में दखल बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की बात कही है।
यह फैसला देने वालों की सोच में हिन्दू रीति-रिवाजों को न समझ पाने की असमर्थता साफ़ झलकती है। किसी भी सूरत में यह कहना गलत नहीं होगा कि उच्च न्यायालय का यह निर्णय पूरी तरह से निरर्थक और हास्यास्पद है। इसमें सिर्फ हिन्दू सभ्यता और उसकी मान्यताओं के प्रति भीषण असंवेदनशीलता दिखती है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह फैसला देने वाले उन लोगों से कतई अलग नहीं हैं जिन्हें हिन्दुओं की भावनाओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं को अपने पूर्वाग्रह के चश्मे से देखने में ख़ुशी मिलती है।
पूर्वाग्रह से ग्रसित अपने इस जजमेंट में कोर्ट ने पूछा- कौन सा धर्म या संप्रदाय जानवर पर बेवजह दर्द और पीड़ा डालने की बात करता है? किस धर्म में कहा गया है कि वध से पहले जानवर को मानसिक या शारीरिक कष्ट मुक्त नहीं करना चाहिए? कौन सा ऐसा धर्म है जो अपने अनुयायियों को जानवरों पर इंसानियत के नाते दया दृष्टि न रखने के लिए कहता होगा?
दरअसल, इन सभी प्रश्नों पर चिंतन किया जाना बेहद ज़रूरी है। सबसे पहले प्रश्न में तो ‘बेवजह’ शब्द का उपयोग ही पूरी तरह से अनुचित है। ऐसा कई बार देखा गया है कि सामाजिक सुधार को लेकर कई मामलों में अदालतों का रुख सिर्फ एक ही धर्म को निशाना बनाता है, जबकि अदालत को यह भी समझना होगा कि धर्म और आस्था के क्षेत्र में तार्किकता का कोई स्थान नहीं है। यह लोगों की भावनाओं से जुदा मामला है जिसमे कोर्ट को उनकी आस्था और उनकी भावनाओं पर चोट नहीं बल्कि कद्र करनी चाहिए। हालाँकि, देखा यह भी गया है कि कैसे इस प्रकार के मामलों में सिर्फ हिन्दुओं को ही निशाना बनाया जाता है, जबकि अन्य मजहबों की उद्दंडता पर कोई नकेल नहीं कसी जाती इसलिए यह अपने आप में ही एक विवादित प्रश्न है।
किसी भी अदालत का काम धार्मिक मान्यताओं, रीति-रिवाजों और उसमे लोगों की आस्था से छेड़छाड़ करना नहीं है। पशुओं पर अत्याचार की बात करने वाले पहले देखें कि मांस उद्योग के लिए जानवरों पर होने वाला क्रूरतापूर्ण व्यवहार कितना जायज़ है? यदि वास्तव में किसी को पशुओं पर होने वाले अत्याचार को रोकना है तो उसे पहले मांस उद्योग रुकवाने पर ध्यान देना चाहिए, जहाँ व्यवस्थित ढंग से जानवरों की नृशंस हत्या की जाती है। व्यवस्थित क़त्लखाने की बजाय जानवरों को अत्याचार से बचाने के नाम पर पशुबलि पर रोक लगाना ठीक वैसे ही है जैसे चारों ओर और आग लगी हो और कोई मूर्ख पर्यावरण बचाने की दुहाई देकर घर मोमबत्ती जलाए।
फैसले के सम्बन्ध में देखें तो दूसरे और तीसरे सवाल पर यह याद रखना चाहिए कि ‘हलाल’ एक ऐसी इस्लामिक प्रथा है जिसमें जानवर को तड़पा-तड़पा कर मौत के घाट उतार दिया जाता है मगर इसपर किसी भी अदालत का मुँह तक नहीं खुलता। सबको पता है कि इसके पीछे के कारण क्या हैं?
कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में यह भी कहा कि ऐसा कौन सा धर्म है जो इतनी शर्मिंदगी के बावजूद हठ करके रूढी परंपराओं को लिए बैठा रहेगा ताकि संवैधानिक मूल्यों का ह्रास हो और समाज में होने वाले सुधारों में देरी हो?
संवैधानिक नैतिकता जजों का बनाया हुआ एक तमाशा है जिसे अक्सर वे अपनी सीमाएँ लाँघने के लिए इस्तेमाल करते हैं। हालाँकि, संविधान देश और उसके नागरिकों के बीच एक कानूनी अनुबंध से ज्यादा और कुछ नहीं है। मगर यदि संवैधानिक नैतिकता का सिद्धांत एक तमाशा नहीं भी होता तो यह कहना गलत नहीं होगा कि त्रिपुरा उच्च न्यायालय ने संवैधानिक ध्येय को इस मामले में घुसेड़ कर पूरे मसले को एक मज़ाक बनाकर रख दिया है।
देश के एक अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका ने कैसे “संवैधानिक नैतिकता” शब्द का अविष्कार किया और इसके क्या मायने हैं, इसके बारे में एक बार केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अपने एक बयान में कहा था कि “हम संवैधानिक नैतिकताओं के बारे में सुनते हैं, इसमें हुए बदलावों की सराहना जायज़ हो सकती है, बशर्ते इसकी बारीकियाँ व्यक्ति-दर-व्यक्ति बदलनी नहीं चाहिए साथ ही इसमें सभी को एकमत होना चाहिए।”
कोर्ट के पहले प्रश्न के विषय में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि “क्या यह भी अदालत तय करेंगी कि किस व्यक्ति की लाश को जलाया जाएगा और किस व्यक्ति की लाश को दफनाया जाएगा? क्या अदालत बताएगी कि जीसस कहाँ जन्मे थे?” भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी ने सबरीमाला पर बात करते हुए यही बयान दिया था। इसी विषय पर विस्तार से बात करते हुए उन्होंने कहा था कि यह विषय कोर्ट के तय करने का नहीं है।
धर्म और रीति-रिवाज प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आस्था का विषय है। अगर इन सबको सिर्फ इस तर्क पर देखें कि क्या सही है और क्या गलत तो सारे ही धर्म गैर-ज़रूरी रह जाएँगे, इसीलिए इन्हें आवश्यकता के तौर पर नहीं देखा जा सकता। अगर ऐसा होता तो सभी धर्मों को भ्रम या अंधविश्वास करार दे दिया जाएगा। समाज को सुधारने का जो बीड़ा न्यायपालिका ने उठाया है उसे हिन्दू धर्म को तोड़ने-मरोड़ने और पटकने के रवैये से उसकी आतुरता को साफ़ समझा जा सकता है। फैसले में कहा गया है कि “एक प्रगतिशील समाज की स्तिथि तब तक हासिल नहीं की जा सकती जब तक कि समाज का व्यक्ति धार्मिक क्रिया-कलापों में उलझा है, भ्रम और भ्रामकता से भरे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।” इसके आगे बात और भी विचित्र हो जाती है।
यह सब काफी नहीं था तो अदालत ने यहाँ तक सिद्धन्तवादी बनने का निश्चय कर लिया और दलील में कहा कि बच्चों को बलि देखने नहीं देना चाहिए, जबकि इसके पीछे कोई ठोस आधार पेश करती रिपोर्ट भी नहीं रखी गई। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि इस प्रकार के वीभत्स दृश्य देखने से छोटे बच्चों में दया, प्रेम और संवेदना जैसे नैतिक मूल्य ख़त्म हो जाते हैं अथवा उनकी नींव ही नहीं पड़ पाती। साथ ही यह भी कहा यह भी गया कि मंदिर में चढ़ाई जाने वाली बलि धर्म के नाम पर एक ऐसा अन्धविश्वास है जो न सिर्फ देखने में अप्रिय है, बल्कि बच्चों के मनोवैज्ञानिक संरचना पर बुरा प्रभाव डालता है।
निश्चित रूप से यह उन जजों की अपनी निजी राय हो सकती है जो हो सकता है कि देखने और सुनने में अच्छा लगे मगर यह मुद्दा पर्सनल नहीं है और इसीलिए इस पर कोई भी एक पक्षीय राय थोपना भी किसी प्रकार से उचित नहीं। यह पूर्णतया चकित कर देने वाली बात है कि ऐसा जजमेंट दिया कैसे गया?
पशुबलि एक शताब्दियों पुरानी प्रथा है जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी मनाया जाता रहा है। इसमें लोगों की बड़ी दिलचस्पी इसलिए भी है क्योंकि बंगाली समुदाय में यह बड़े स्तर पर मनाई जाती है और साथ ही इसे प्रगतिशील होने का भी सूचक माना जाता है। निश्चित तौर पर पशुबलि की प्रथा ने बंगाली बच्चों को कभी भी बड़े होकर प्रगतिशील बनने से नहीं रोका, इसलिए यह दावा भी कमज़ोर हो जाता है जिसमें कोर्ट ने कहा है कि बच्चों के ऊपर इसका विपरीत असर पड़ता है।
जजमेंट में कोर्ट की ओर से उन अभिभावकों पर भी टिप्पणी की गई है जो कि पशुबलि के क्रिया-कलापों में संलिप्त होते हैं। इसके जरिए इशारा था कि अभिभावकों से ज्यादा कोर्ट जजों को उनके बच्चों की फ़िक्र है। इसके मुताबिक बच्चों के माँ-बाप अपने बच्चों की ठीक से परवरिश करने में असमर्थ हैं और उनके मुकाबले वे (जज) बच्चों के लालन-पालन को लेकर उनसे ज्यादा चिंतित हैं।
जजमेंट में महानुभावों ने अपने लिखे को जायज़ ठहराने के लिए इन्सान और जानवर के बीच अंतर की खाई को भी पाट दिया, जजों ने अपनी टिप्पणी में यहाँ तक कह दिया कि पुरातन काल में इन्सान की भी बलि दी जाती थी जिसे कई शताब्दियों पहले बंद कर दिया लिहाज़ा पशुओं की भी बलि नहीं होनी चाहिए।
यहाँ बता दें कि पहला तथ्य यह है कि इंसान और जानवर दोनों में दूर-दूर तक किसी तरह की कोई सी भी समानता नहीं है, क्योंकि Cannibalism यानी नर-भक्षण (मनुष्य का मांस खाना) और जानवर का मांस खाने में बहुत फर्क है। किसी इन्सान को मारना गुनाह है मगर किसी जानवर जैसे मवेशी को मारने पर ऐसा कुछ भी नहीं। यह किसी तरह का कोई गुनाह नहीं है, बल्कि दुनियाभर में अपना पेट पालने के लिए लोग इस पर आश्रित हैं।
कोर्ट की अतिविस्तृत टिप्पणी में हिन्दुओं की बलि प्रथा से खीझ खाकर माननीयों ने यहाँ तक कह दिया कि अधिकतर शक्ति पीठों में पशुबलि की प्रथा को नहीं मनाया जाता, मगर इसकी पड़ताल में एक ही तथ्य देख कर कोर्ट का यह दावा भी फेल साबित होता है वह यह कि तारापीठ और कामख्या देवी मंदिर दो ऐसी शक्ति पीठ हैं जहाँ आज भी बलि चढ़ाई जाती है। साथ ही देश भर में ऐसी कई शक्ति पीठ मौजूद हैं जिनमें बलि प्रथा को मनाया जाता है। गौरतलब है कि अपने इस पूरे स्टेटमेंट को डिफेंड करने के लिए तथ्यात्मक तौर पर कई भ्रामक बातों को भी बढ़ावा दिया गया है जिसमें कई बातें गलत कही गई हैं।
इसके आगे न्यायालय की ओर से कहा गया है कि “यदि इस बलि प्रथा का अनुष्ठान कर लिया जाता है तो पूजा समारोह को किसी भी तरीके से बाधित नहीं कहा जा सकता और न ही इसका अभ्यास करने अधिकार कहा जा सकता है।” यहाँ पुनः यह स्पष्ट करना बेहद ज़रूरी है कि किसी भी तरीके से धार्मिक रीति-रिवाजों में अथवा आस्था के विषयों में दखल देना न्यायालय का काम नहीं है, न ही उसे इसके लिए सरकारी तंत्र में रखा गया।
कोर्ट की भाषा को देखकर एक बात तो पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि इन्हें हिन्दुओं की भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं है, इनके लिए हिन्दुओं की भावनाओं को कुचलना ही समाज सुधार का पर्याय है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए कोर्ट की टिप्पणी को पढ़कर यह और भी ज्यादा साफ़ हो जाता है। बता दें कि हिन्दू धर्म एकमात्र ऐसी संस्कृति का पोषक है जिसमें विविधता और सहिष्णुता का संगम देखने को मिलता है। विभिन्न सम्प्रदाय और जातियों को अपने अन्दर समेटे यह धर्म कतई संकुचित नही हो सकता, यह सिर्फ कुछ पाखंडी लिबरल हिन्दू हैं जो अपनी ही सभ्यता की जडें खोदने में लगे हुए हैं।
हाईकोर्ट यह भी कहता है कि पशुबलि न मानने वालों के अधिकार उनसे ऊपर हैं जो इसे मानते हैं। यानी कुल मिलाकर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि भारत को न्यायिक सुधार की बहुत जरूरत है। यही समय है कि देश की न्याय व्यवस्था में नई जान फूँकी जानी चाहिए, साथ ही उसे खुद भी इसपर विचार भी करना चाहिए कि लोकतंत्र के चार खम्भों में से एक न्यायपालिका कितनी मजबूती से खड़ा है? खड़ा भी है या खोखलेपन का शिकार हो गया है। इससे पहले कि देश का ढाँचा तथाकथित बुद्धिजीवियों और वामी लिबराल्स के चंगुल से बर्बाद हो, हमें संभल जाना चाहिए।
कोई एक कारण ऐसा नहीं दिखता जो वास्तव में समाज-सुधार की परिभाषा में फिट बैठता हो, क्योंकि समाज में सभी धर्म बसते हैं। लेकिन अगर इसके लिए सिर्फ एक ही धर्म पर चोट करने से बदलाव लाने का सपना देखा जा रहा है तो भविष्य में आने वाली नस्लों को वह सिर्फ भयावह अन्धकारमय दलदल की ओर धकेलने जैसा है। इससे भारत की अतिप्राचीन विश्वप्रसिद्ध सभ्यता का ह्रास ही होगा। निश्चित रूप से संवैधानिक नैतिकता की आड़ में लोगों के धर्म और आस्था के प्रति कलुषित रवैया देश को शून्य की धकेल रहा है। किसी भी अराजक अव्यवस्थित राष्ट्र का रास्ता संवैधानिक नैतिकता से होकर ही जाता है।