भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजीत डोभाल (Ajit Doval) शनिवार (30 जुलाई 2022) को एक ऐसे मंच पर दिखे, जिस पर मजहबी नुमाइंदे मौजूद थे। मौका था अंतर धार्मिक सम्मेलन का। आयोजन अखिल भारतीय सूफी सज्जादनशीन परिषद ने किया था।
इस सम्मेलन के दौरान ‘सिर तन से जुदा’ का नारा गैर इस्लामी घोषित किया गया। कट्टरपंथी इस्लामी संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) पर प्रतिबंध लगाने की माँग हुई। वैसे जो नारा काफिरों में दहशत पैदा करने के लिए, हिंदुओं के खिलाफ हिंसा के लिए इस्तेमाल होना सामान्य है, उसको लेकर यह बात न तो डोभाल ने कही और न ही किसी हिंदू ने। जिस कट्टरपंथी संगठन के जरिए मुस्लिम युवाओं को हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा, 2047 तक काफिरों को घुटने पर लाकर भारत को इस्लामी मुल्क बनाने के मंसूबें हैं, उस पर प्रतिबंध की बात भी न तो डोभाल ने कही और न किसी हिंदू ने। यह बात सैयद नसीरुद्दीन चिश्ती ने कही जो इस सम्मेलन का आयोजन करने वाली परिषद के अध्यक्ष हैं। उन्होंने कहा, “सर तन से जुदा हमारा नारा नहीं है। यह इस्लाम विरोधी नारा है।” उन्होंने यह भी कहा कि यदि पीएफआई के खिलाफ सबूत हैं तो उस पर प्रतिबंध लगाया जाए।
#WATCH An Interfaith conference was conducted…Slogans like ‘Sar Tan Se Juda’ is anti-Islamic. There’s a Taliban thought, it should be countered on the ground instead of in closed rooms…Be it PFI or other org, GoI should ban them: Hazrat Syed Naseruddin Chishty pic.twitter.com/MKyNfDiJdg
— ANI (@ANI) July 30, 2022
इस दौरान डोभाल ने भी कहा कि कुछ ऐसे तत्व है जो माहौल खराब कर भारत की तरक्की को बाधित कर रहे हैं। वे धर्म और विचारधारा के नाम पर नफरत पैदा कर हिंसा चाहते हैं। देश के साथ विदेश में भी इसका असर दिख रहा है।
वैसे डोभाल चाहते तो इस मौके का इस्तेमाल यह बताने के लिए भी कर सकते थे कि कन्हैया लाल का गला काटने वाले कौन थे? किशन से लेकर प्रवीण नेट्टारू तक की हत्या करने वाले कौन हैं? फुलवारी शरीफ से भारत को इस्लामी मुल्क बनाने की साजिश रचने वालों से लेकर मुस्लिम पट्टी बनाने तक के मंसूबे बाँधने वाले कौन हैं? नूपुर शर्मा के बयान को गलत तरीके से प्रस्तुत कर इस्लामी मुल्कों तक ले जाने वाला कौन है? पर शायद एनएसए होना खुलकर उनके बोलने के आड़े आ गया होगा। वैसे डोभाल का एक अपना अलग ही प्रभाव है। उनके बिना बोले भी काफी कुछ हो जाता है। जब उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे भड़के तो यह डोभाल ही थे जिनके सड़क पर दिखने के बाद राजधानी का यह इलाका शांत हो गया था। उससे पहले इस इलाके में हिंदुओं को लक्षित कर हिंसा हुई और पुलिस असहाय दिख रही थी। इसी तरह वैश्विक कोरोना संक्रमण के दौरान जब मरकज का संकट खड़ा हुआ था तो ये डोभाल ही थे, जिनके मौलाना साद के साथ दिखने के बाद मरकज खाली हो गया था। इसलिए, आप यह मान सकते हैं कि उनकी मौजूदगी ने यह असर डाला होगा कि मजहबी नुमाइंदे सिर तन से जुदा से पल्ला झाड़ने लगे, पीएफआई को बैन करने की बात करने लगे।
डोभाल का उपस्थित होना मजहबी नुमाइंदों के सरेंडर की एक वजह हो सकती है। एकमात्र वजह कतई नहीं। दरअसल, यह हिंदुओं की उस बेरुखी का असर है जिससे मुस्लिमों के लिए भविष्य का संकट खड़ा होता दिख रहा है। मुस्लिमों के आर्थिक बहिष्कार की अरसे से बात हो रही है। यह पूरी तरह आज भी मुमकिन नहीं हो पाया है। लेकिन थोड़े से ही पैमाने पर अब इसका असर दिखने लगा है।
हाल ही में यह खबर आई थी कि अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर सन्नाटा पसरा हुआ है, क्योंकि यहाँ आने वाले हिंदुओं की संख्या में भारी कमी आई है। यह तथ्य इस दरगाह के खादिमों की करतूतें सामने आने के बाद सामने आया था। वीडियो सामने आए थे जिसमें दरगाह के बाहर भड़काऊ नारे लगे थे। नूपुर शर्मा की हत्या के लिए उकसाया गया था। पीएफआई से खादिमों का संपर्क सामने आया था। यह बात भी सामने आई थी कि उदयपुर में कन्हैया लाल का गला काटने के बाद मोहम्मद रियाज और गौस मोहम्मद पनाह लेने के लिए अजमेर दरगाह के ही एक खादिम के पास आ रहे थे, लेकिन रास्ते में पकड़े गए।
ऐसा नहीं है कि यह असर केवल अजमेर तक ही सीमित है। ऑपइंडिया ने अपनी पड़ताल में पाया था कि दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर आने वाले हिंदू भी करीब 60 फीसदी तक कम हो चुके हैं। दरगाह के दीवान अली मूसा निजामी ने हमें बताया था, “पहले यहाँ खूब हिंदू आते थे। हर रोज। दोपहर के 2 बजे से रात के 11 बजे तक दरगाह पर आने वालों में खूब हिंदू होते थे। लेकिन अब इक्का.दुक्का हिंदू ही आते रहते हैं। उन्होंने बताया कि पहले यहाँ हिंदू भंडारे भी करते थे। करीब.करीब रोज। अन्न.पैसा बाँटते थे। लेकिन अब वैसी स्थिति नहीं रही।”
इसी तरह के असर की रिपोर्टें देश के अन्य हिस्सों के दरगाहों और मजारों से भी आई है। इन जगहों की रौनक ही हिंदुओं से थी। हिंदुओं के पैसों से ही इनके घरों का चुल्हा जलता है। हिंदुओं के पैसों से ही वे काफिरों का सर तन से जुदा करने का संदेश फैलाते हैं। हिंदुओं के पैसों से ही वे हिंदुओं को घुटने पर लाकर भारत को इस्लामिक मुल्क बनाने की साजिश पर काम करते हैं। उनके इस आर्थिक स्रोत पर मार केवल दरगाह की घटती कमाई से ही नहीं पड़ी है। कर्नाटक में जिस प्रवीण नेट्टारू को कुल्हाड़ी से काट डाला गया, उन्होंने हिंदुओं के लिए चिकन शॉप खोली थी। यह काफी लोकप्रिय हुआ जो कट्टरपंथियों को सुहा नहीं रहा था। ऐसे छोटे प्रयास भी इस्लामी कट्टरपंथ के आर्थिक स्रोत पर वार कर रहे हैं।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि पूर्ण रूप से हिंदुओं ने इनका आर्थिक बहिष्कार कर दिया है। वह संभव भी नहीं है, क्योंकि इस देश में हिंदुओं की एक जमात ऐसी भी है जिसे सेकुलर कीड़े ने काट रखा है। हम इस लिबरल जमात से उम्मीद कर भी नहीं सकते। हम अजीत डोभाल से ही उम्मीद लगाकर नहीं बैठ सकते। हम इसी भरोसे नहीं बैठ सकते कि सरकार पीएफआई पर प्रतिबंध लगा देगी। वैसे भी प्रतिबंध यदि इनका इलाज होता तो सिमी के बाद पीएफआई नहीं आता। दुनिया भर के आतंकी संगठन खत्म हो गए होते। प्रतिबंध इनका इलाज है ही नही। आप प्रतिबंध लगाएँगे कल ये किसी और नाम से खड़े हो जाएँगे। फिर से हिंदुओं को काटेंगे। भारत को इस्लामी मुल्क बनाने के अपने मिशन को आगे बढ़ाएँगे। इसलिए जरूरी है कि दरगाहों से हमारी यह बेरुखी बनी रहे। जरूरी है कि प्रवीण नेट्टारू की दुकान जैसे प्रयास हर गली-मोहल्ले में हो। छिटपुट प्रयासों ने उन्हें आज पीएफआई की कुर्बानी देने को मजबूर किया है। यह दबाव बना रहेगा तो वे कट्टरपंथ के हर उस अध्याय की कुर्बानी देने को मजबूर हो जाएँगे, जिसका प्रसार ये आसमानी किताब की रोशनी में करते हैं।