Sunday, December 22, 2024
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स्वरा भास्कर का फ़र्ज़ी फेमिनिज़्म और आँकड़े: राहतें और भी हैं ऑर्गेज्म की राहत के सिवा

इक्वालिटी जैसे मसलों पर फूहड़ कैम्पेन्स की मदद से डिबेट को बर्बाद करने की कोशिश से समाज को बचाना ज़रूरी है। एलीट लोगों का फ़ेमिनिज़म अलग है। उनका पेट भरा हुआ है, कपड़े चुनने में वो परेशान हो जाते हैं, कॉलेज जाने की च्वाइस है, सफ़ेद पैंट में बैडमिंटन खेलना उनके लिए आसान है। इसलिए, उनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वो सेक्स करते हुए ऑर्गेज्म महसूस नहीं कर पा रहीं।

इस देश में नारीवाद के आंदोलन को अगर किसी एक धड़े ने सबसे ज़्यादा नुकसान पहुँचाया है तो वो हैं सेलिब्रिटी फेमिनिस्ट्स जिन्हें फ़ेमिनिस्ट का एफ नहीं मालूम और वो इस एफ को हमेशा दूसरे एफ तक खींच कर ले आते हैं, जहाँ एफ करना ही सारी समस्याओं का ख़ात्मा कर देगा। जब मैं एफ लिखता हूँ तो उसका अर्थ है सेक्स या संभोग से, जिसका अंग्रेज़ी पर्याय एफ से शुरू होता है।

सेलिब्रिटी फेमिनिस्ट्स या लिपिस्टिक नारीवादियों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वो भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति को बिलकुल भी नहीं समझतीं। उनका नारीवाद पश्चिम के मेल शॉविनिस्ट पिग से शुरू हो कर सेक्सुअल फ़्रीडम पर ख़त्म हो जाता है। भारतीय नारीवाद की दुःखद समस्या है यहाँ के वो नारीवादी जिन्हें मनचाहे व्यक्ति से सेक्स कर लेना और शादी जैसी संस्था पर झाड़ू मारते हुए, एक ब्रश से पूरी संस्था को रंगते हुए उसे ख़ारिज कर, अपना देह त्याग मर्द बन जाना ही नारीवाद लगता है।

नारीवाद का अर्थ स्त्री का पुरुष हो जाना नहीं है। नारीवाद का मतलब है कि स्त्री का स्त्रीत्व बना रहे और उसे हर वो अवसर मिले जो पुरुषों को हासिल है। लैंगिक समानता का तात्पर्य यह नहीं कि आपने पुरुषों की तरह बाल रख लिए या शर्ट पहन लिए, (वैसा करना महज़ एक व्यक्तिगत चुनाव है, लक्ष्य नहीं) बल्कि उसका अर्थ होता है लड़कियों को भी वो सारे अवसर उपलब्ध हों जो लड़कों को होते हैं। जन्म हो जाने देने से लेकर, उसकी पढ़ाई, उसका आहार, उसका पहनावा, उसकी पसंद, उसके व्यक्तिगत चुनाव, उसकी नौकरी, उसकी परिवार में हिस्सेदारी, उसकी आर्थिक स्वतंत्रता, उसकी मानसिक स्वतंत्रता आदि वो अवसर हैं जो समाज उन्हें बिना भेदभाव के दे सकता है।

पश्चिम के समाज में स्त्री के स्वास्थ्य का मसला उतना व्यापक नहीं, वहाँ लैंगिक विषमता भारतीय समाज जैसी खराब नहीं, वहाँ स्कूल भेजने में माँ-बाप भेदभाव नहीं करते, वहाँ यह दिक्कत नहीं है कि लड़कियों को सैनिटरी पैड्स नहीं मिल रहे और वो घास, राख, गंदे कपड़े का प्रयोग कर बीमार रहती हैं। वहाँ इन समस्याओं से निजात पा लिया गया है इसलिए वहाँ अब समानता के डिबेट में फ़्री सेक्स और मल्टीपल पार्टनर की च्वाइस का डिबेट है। चूँकि वहाँ उन मुद्दों का अभाव है जो भारत के हिसाब से जीने के लिए अत्यावश्यक हैं, इसलिए वहाँ बात सेक्स पर होती है।

भारत के लिपस्टिक नारीवादियों ने नीचे के प्रोसेस को भुलाते हुए भारतीय नारीवाद को सीधे सेक्स और कई लोगों के साथ सेक्स करने पर ही ला दिया है। ये समानता भारत के ही उन समाजों के लिए मसला हो सकती है जिन्होंने बाकी अड़चनें पार कर ली हैं। उनकी समस्या सर्वाइवल की नहीं है, उनकी समस्या यह नहीं है कि उनके घर में भाई को बेहतर स्कूलिंग मिल रही है, और उसे यह कहा जा रहा है कि वो पढ़ कर क्या करेगी।

ये समस्या उस लड़की को नहीं होगी जो भारत के उन सवा करोड़ बच्चियों में नहीं है जिसे जन्म से पहले ही गर्भ में मार दिया गया। ये समस्या उस लड़की को नहीं होगी जिसे एक अस्पताल में जन्म देने वाली माँ भारत की उन 83% ग्रामीण महिलाओं में से नहीं हैं जिन्हें एंटी नेटल केयर नहीं मिला। ये समस्या उस लड़की को नहीं होगी जो भारत की उन 82% महिलाओं में नहीं है जिनकी पहुँच सैनिटरी पैड्स तक नहीं है। भारत में एक तिहाई औरतें घरेलू हिंसा की शिकार हैं, एक तिहाई बच्चियों की शादी हो जाती है उम्र से पहले।

इसलिए, स्वरा भास्कर के लिए ऑर्गेज्म यानी संभोग के दौरान चरमसुख पाना लैंगिक समानता का मसला हो सकता है, उन तमाम औरतों के लिए नहीं जिनके लिए ज़िंदा रहना ही सबसे बड़ा संघर्ष है। स्वरा भास्कर ने ड्यूरेक्स कंपनी के लिए एक कैम्पेन में भाग लेते हुए ‘ऑर्गेज्म इनिक्वालिटी’ या ‘चरमसुख असमानता’ पर बोलते हुए कहा कि महिलाओं को ऑर्गेज्म नहीं मिल रहा जो कि उनका हक़ है।

यहाँ तक कोई समस्या नहीं है, लेकिन जब अब ‘इक्वालिटी’ यानी समानता के डिबेट को ऑर्गेज्म तक ले आती हैं, तो फिर उस शब्द के और मायने निकलने लगते हैं। ऑर्गेज्म पाना एक दैहिक ज़रूरत है, लेकिन सबसे बड़ी दैहिक ज़रूरत उन करोड़ों महिलाओं की यह है कि वो शाम का खाना कैसे खाएँगी, क्या खाएँगी, या भूखी रह कर बच्चों को खिलाएगी। वैसी महिलाओं की संख्या, जिन्हें हम अत्यंत गरीब कह सकते हैं, लगभग 18 करोड़ है।

इसके साथ ही, हमें भारतीय समाज को नहीं भूलना चाहिए जहाँ लगभग 90% लोगों के पास एक अच्छा जीवन स्तर नहीं है जहाँ उन्हें आधारभूत सुविधाओं से लेकर, हॉस्पिटल, स्कूल, नौकरी आदि आसानी से उपलब्ध हों। ये लोग भी गरीब ही हैं, बस ये तेंदुलकर कमिटी या रंगराजन कमिटी के ₹32 प्रतिदिन वाली गरीबी रेखा के नीचे नहीं आते। भारत में ग़रीबों को गरीबी रेखा से नीचे रखने का मतलब है कि उन्हें भोजन मिल रहा है। जिन्हें बिलकुल ही जीने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है वो गरीब कहे जाते हैं।

जिस देश में महिलाओं के लिए ज़िंदा रहना सबसे बड़ा स्ट्रगल है, उस देश की सेलिब्रिटी फेमिनिस्टों को वास्तविकता के आँकड़े देख कर बात करनी चाहिए कि बालासोर के गाँव में एक साड़ी को बीच से फाड़ कर, बिना ब्लाउज़ के अपनी छाती ढकती महिला के लिए उस स्वरा भाष्कर की ऑर्गेज्म इनिक्वालिटी हैशटैग का हिस्सा बनना चाहिए जो सिर्फ चुनावी कैम्पेन में आकर्षक दिखने के लिए बीस साड़ियाँ और ब्लाउज़ सिलवाती हैं?

स्वरा जैसे लोग एलीट हैं। एलीट क्लास की समस्या यह है कि उन्हें कार से बाहर धूल दिखती है, और धूप से काली पड़ चुकी चमड़ी वाली, खेत में खुरपी चलाने वाली महिला की सेचुरेटेड रंगों वाली तस्वीर में ‘हाउ कलरफुल’ दिखता है। वो हर चीज में रंग के साथ क्षणिक निराशा निकाल लेते हैं, लेकिन अपनी चर्चा का हिस्सा उनकी गंभीर समस्याओं को नहीं बनाते। ग़रीबों की बात वो एकेडमिक फ़ोरम पर करते हैं जहाँ उन्हें उनकी समझदारी के लिए नहीं, उनके पेशे या ग्लैमर की दुनिया से होने की वजह से बुलाया जाता है।

इसलिए, इनके लिए मुद्दा थाली पर भात नहीं, थाली की डिजाइन और उस पर शेफ़ ने कैसे सैलेड डिश को सजाकर रखा है, हो जाता है। क्योंकि थाली पर भात और उसी के माँड़ में नमक डाल कर खाने वाले इन्सटाग्राम पर नहीं हैं। जो ऐसा करते हैं, उनसे समस्या नहीं है। जो दिखाते हैं, समस्या उनसे भी नहीं। समस्या तब होती है जब आप एक स्वस्थ विषय पर अपनी ग्लैमर का संक्रमण कर, उसे पैरासाइट की तरह भीतर से खा कर बर्बाद करने लगते हैं।

स्वरा भास्कर और उनके जैसे लिप्सटिक नारीवादियों के लिए बताना चाहूँगा कि भारत में सिर्फ एक तिहाई महिलाओं को नौकरी हासिल है। नौकरी की बात भी नारीवाद के डिबेट का हिस्सा है, लेकिन ये लोग उसे सिर्फ बराबरी तक में ही समेट देते हैं कि जितनी पुरुषों को है, उतनी लड़कियों को भी होनी चाहिए। या फिर, यहीं तक कि एक नौकरी को लिए दोनों को समान वेतन मिलनी चाहिए।

जबकि एक स्त्री के लिए नौकरी के मायने इतने अलग हैं, कि ये आर्थिक स्वतंत्रता पूरे भारतीय समाज की कई समस्याओं का समूल नाश कर सकती है। इस पर आगे बात करने से पहले हमें कुछ और आँकड़े देखने चाहिए। नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के अनुसार दो तिहाई महिलाओं को ही घरेलू मामलों से लेकर अपने स्वास्थ्य समस्याओं पर बात करने की आज़ादी है। अर्चना दत्ता ने ‘द हिन्दू’ में एक लेखा लिखा है जिसमें वो बताती हैं कि 15 साल की उम्र के बाद कम से कम एक तिहाई महिलाओं ने शारीरिक हिंसा को झेला है।

शादीशुदा महिलाओं में एक तिहाई शारीरिक हिंसा, 14% यौन हिंसा, और सात प्रतिशत अपने पतियों द्वारा ही किए गए यौन हिंसा का शिकार हुईं। एक चौथाई शादीशुदा औरतें घायल हुईं लेकिन उनमें से 14% ने ही किसी भी तरह की मदद माँगने की कोशिश की। बाकी लोग इसे सहते रहे, छुपाते रहे।

आखिर वो सहती क्यों हैं? क्योंकि हमारे समाज में औरतों के पास अपने पैसे नहीं होते कि वो घर छोड़ कर कहीं चली जाए। उसके लिए अपने पिता का घर तो है, लेकिन वो इस बात से भी डरती है कि समाज में उसके पिता का नाम खराब हो जाएगा। या, हो सकता है कि उसके नैहर के लोग उसे रहने ही न दें। फिर वो कहाँ जाएगी, क्या करेगी? उसके सामने स्वरा भाष्कर या ड्यूरेक्स का ऑर्गेज्म पाने की बात नहीं होती, उसके सामने समस्या है कि वो ज़िंदा कैसे रहेगी?

इसलिए, अगर उसे आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाया जाए, उसे नौकरी की आज़ादी हो, उसे घरेलू काम करने के बदले एक तय सैलरी अपने ही पति से, या घर से मिले, तो वह बचत कर सकती है। वो भी उतनी ही स्वच्छंद होकर फ़ैसले कर सकती है जितना उसका पति। जब उसका पति पहली बार हाथ उठाएगा तो वो उस हाथ को वहीं रोक सकती है, और अपने पैसों के साथ वो कहीं भी जा कर, किसी भी तरह के काम मिलने तक, ज़िंदा रह सकती है। उसका आत्मसम्मान भी उसके साथ रहेगा, और उसका शरीर भी।

चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि पूरा समाज हाउसवाइफ़ को एक नौकरी की तरह देखे और उसे एक तय रक़म दी जाए। ऐसी योजनाएँ बने कि घरेलू महिलाओं को, उनकी सहूलियत के हिसाब से कुछ काम उपलब्ध कराया जाए। घर चलाना, बच्चे पालना, और पूरे परिवार को संभालना मामूली काम नहीं है। इसमें न तो छुट्टी है, न ही बीमार होने का स्कोप। इसलिए, इस समस्या को दूसरे दृष्टिकोण से देखना ज़रूरी है। लड़की को प्रॉपर्टी की तरह देखने की बजाय, उसे एक व्यक्ति के तौर पर देखा जाए। उसे ऐसे देखा जाए कि वो भी परिवार और समाज में उतनी ही हिस्सेदारी रखती है, जितना उसका पति या भाई।

इसलिए, इक्वालिटी जैसे मसलों पर फूहड़ कैम्पेन्स की मदद से डिबेट को बर्बाद करने की कोशिश से समाज को बचाना ज़रूरी है। एलीट लोगों का फ़ेमिनिज़म अलग है। उनका पेट भरा हुआ है, कपड़े चुनने में वो परेशान हो जाते हैं, कॉलेज जाने की च्वाइस है, सफ़ेद पैंट में बैडमिंटन खेलना उनके लिए आसान है। इसलिए, उनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वो सेक्स करते हुए ऑर्गेज्म महसूस नहीं कर पा रहीं। अगर यह समस्या है तो इसका निदान आवश्यक है जो कि ड्यूरेक्स जैसी कम्पनियाँ कर देंगी, लेकिन इसको कृपया इक्वालिटी जैसे डिबेट का हिस्सा मत बनाएँ क्योंकि ऐसी इक्वालिटी का अंत औरतों द्वारा ‘मैं पुरुषों के ट्वॉयलेट में ही जाऊँगी’ पर होता है। इसका अंत बहुत सुखद नहीं होता, आपको पैंट बदलना पड़ सकता है।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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