जैश-ए-मोहम्मद का साथ पाकर आदिल अहमद दार नामक आतंकवादी ने महज़ 22 साल की उम्र में पुलवामा जैसे भयानक हमले को अंजाम दिया। इस हमले के बाद भारतीय सेना के 42 जवान बिन किसी गलती के जान गवा बैठे। साथ ही, आदिल के भी परखच्चे उड़ गए, निशान के नाम पर सिर्फ़ उसका हाथ बचा।
इस मामले पर जब समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने आतंकी आदिल के पिता गुलाम हसन दर से बात की तो उन्होंने अपने बेटे के गुनाहों पर पर्दा डालते हुए कुतर्क दिया। उनका कहना था कि साल 2016 में स्कूल से लौटते समय सुरक्षाबल ने आदिल के साथ और उसके दोस्त के साथ कथित तौर पर बद्तमीजी की थी, जिसके बाद से उसने आतंकी संगठन से जुड़ने का मन बना लिया था।
गौरतलब है कि आदिल पर और उसके साथी पर आरोप था कि वे सुरक्षाबल पर हुई पत्थरबाजी में शामिल थे। ऐसे में आदिल के पिता का सार्वजनिक रूप से ऐसा घटिया तर्क देना क्या आतंकवाद को स्थानीय युवकों में और बढ़ावा देना नहीं है?
एक आतंकी के पिता का इस तरह का बयान क्या उस संवेदनशील इलाक़े के नौजवानों को उकसाने के लिए काफ़ी नहीं है, कि वो सुरक्षाबल की सख्ती को आतंकवाद की ओर जाने का आधार मान लें? इस बयान को आधार मानकर अगर कल कोई नवयुवक यही घटना दोहराता है, तो उसकी ज़िम्मेदारी किसकी होगी?
सुरक्षाबल का कर्म ही देश की रक्षा करना है, अब इस रास्ते पर उन्हें कई बार सख्त भी होना पड़ता है। ऐसें में मान लें कि हर स्थानीय नागरिक को अपने पूछताछ से नाराज़ होकर मसूद अज़हर जैसे लोगों के संगठन से जुड़ जाना चाहिए?
जाहिर है राष्ट्र के प्रति इमानदार व्यक्ति ऐसा बिलकुल नहीं करेगा, क्योंकि उसे मालूम है सुरक्षाबल द्वारा की जाने वाली पूछताछ सिर्फ़ देश में सुरक्षा व्यवस्था बनाने के लिहाज़ से की जाती है। अब इस पूछताछ को हम देशहित समझे या देशद्रोह यह हमपर निर्भर करता है।
आदिल के पिता ने अपनी बात में न केवल अपने बेटे के बचाव में तर्क दिया बल्क़ि यह भी कहा कि जो दर्द आज जवानों के घर वाले महसूस कर रहे हैं, उसे कभी हमने भी महसूस किया था।
क्या अकारण वीरगति को प्राप्त हुए सेना के जवान और आतंकी मनसूबों के साथ मरने वाले आतंकवादियों में कोई फर्क ही नहीं रह गया है? अपने दुख को इन जवानों के घर वालों के दुख के समान बताकर किस तरह का माहौल बनाया जा रहा है, कि एक बार फ़िर से अफ़जल गुरु वाला रोना शुरू हो?
सुरक्षाबल के रोके जाने की वजह से आदिल ने आतंकी संगठन को ज्वॉइन कर लिया। यह उसकी नाराज़गी नहीं थी, ये बीमारी थी जो उसे अपने आस-पास पनप रहे वातावरण से मिली थी। ऐसे लोग कल को माँ-बाप से नाराज़ होकर ही अगर आतंकवादी बनने लग जाएँ, तो
शायद ही हैरानी की बात होगी।
अपने बेटे की इस मानसिकता को उसके आतंकी होने का आधार बताना क्या माँ-बाप की परवरिश पर सवाल नहीं उठाता है? क्या उनका फर्ज़ नहीं होता कि बच्चे को गलत दिशा में जाने से रोका जाए। आतंकी आदिल के पिता को यह मालूम है कि वो नाराज़ था और संगठन से जुड़ने की सोच रहा था, लेकिन फिर भी न वो लोग उसे समझा पाए और न रोक पाए। या तो ऐसे माँ-बाप पब्लिक में यही स्वीकार लें कि वो भी भारतीय राष्ट्र के ख़िलाफ़ छेड़े जा रहे आंतरिक युद्ध का हिस्सा हैं, या फिर ऐसी दलीलें तो न दें जिसे आधार बनाकर उनके पड़ोसी का बच्चा भी शरीर पर बम बाँधकर सेना के जवानों की हत्या कर दे।
ऐसे बयान देकर आदिल के पिता सार्वजनिक स्तर पर सुरक्षाबल को वजह बताकर न केवल सेना को टारगेट कर रहे हैं बल्कि हर उस बच्चे को ‘आतंकवाद-एक विकल्प’ बता रहें हैं जो सीमा पर पल-बढ़ रहा है और हालातों के चलते सुरक्षाबल से नाराज़ है।
खुद से सवाल करिए, क्या हम एक आतंकी के माता-पिता द्वारा पेश किए गए कुतर्कों पर ध्यान भी देकर एक हिंसक विचारधारा के समर्थन में तो खड़े नहीं हो रहे? क्योंकि जिस समय उसे कॉलेज में जाकर शिक्षा लेकर, अपने उसी माँ-बाप के जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए थी, वो बम-बन्दूक चलाना सीख रहा था। क्या कोई समझदार माँ-बाप अपने बच्चों को ऐसा करने देता है जहाँ वो खुद को ऐसे खतरे में डाल रहा हो? शायद नहीं।