त्रिपुरा (वेस्ट) के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट शैलेश कुमार यादव ने उसी विवाह समारोह को बंद करवाने के लिए रेड मारा जिसकी अनुमति उन्होंने खुद दी थी। पुलिसकर्मियों के साथ वैवाहिक स्थल पर जाकर धूम मचाने का उनका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। वीडियो में जो सबसे आपत्तिजनक बात नजर आई, वह है उनका व्यवहार। विवाह समारोह के लिए जिम्मेदार घरवालों के साथ जो करते हुए उन्हें देखा गया वह एक सरकारी अधिकारी के लिए उचित नहीं जान पड़ता।
कानून लागू करवाना सरकारी अधिकारी की जिम्मेदारी है। पर उसे कैसे लागू करवाना है, इस बात पर उन्हीं अधिकारियों के विवेक और धैर्य की परीक्षा होती है। वैवाहिक समारोहों में केवल दो घरों के लोग ही नहीं, उनके मेहमान भी होते हैं। ऐसे में इतने लोगों के बीच सबके साथ इस तरह का व्यवहार इन लोगों के मन में सरकारी अधिकारियों के प्रति एक धारणा छोड़ जाता है जो शायद जीवन भर के लिए उनके मन मस्तिष्क में रहे और खुद के साथ अपराधी की तरह किए गए व्यवहार को शायद ही कोई नागरिक भुला सके।
उसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात आए दिन सामने आती है जिसमें एक आम नागरिक यह प्रश्न उठाता है कि ये अधिकारी ऐसा ही व्यवहार ‘समुदाय विशेष’ के लोगों के साथ कर सकता था? यह प्रश्न गलत है या सही, उससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह प्रश्न पूछा जा रहा है। हम चाहे ऐसे प्रश्न के आगे अपनी आँखें बंद कर लें पर प्रश्न तो हमारी बंद आँखों के सामने खड़ा रहेगा। इसका उत्तर देने की क्षमता केवल उन सरकारी अफसरों के पास है जो सार्वजनिक स्थलों पर नागरिकों के साथ अलग-अलग व्यवहार करते हैं। सोचने की आवश्यकता है कि यह प्रश्न क्या बिलकुल ही बेमानी है जिसके लिए हमेशा के लिए आँख और कान बंद कर लिए जाएँ ताकि ये प्रश्न न तो सुनने को मिलें और न ही पढ़ने को दिखें।
डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के व्यवहार की चर्चा और आलोचना, दोनों हो रही है। किसी को इस बात से ऐतराज नहीं कि क़ानून का पालन होना चाहिए पर यदि ऐसे समारोह में ऐसा कुछ हो गया जिससे क़ानून को ठेस पहुँची तो क्या सरकारी अधिकारी क़ानून को ठेस पहुँचाने वालों के साथ वही सब कुछ करेंगे जैसा वे जुआघर या अवैध शराबखाने पर छापे के दौरान करते हैं? जिनके घर वैवाहिक समारोह है वे जुआघर चलाने वाले तो नहीं हैं कि उन्हें थप्पड़ मारे जाएँ या गाली दी जाए। वे ऐसे अपराधी तो नहीं हैं कि उन्हें सबके सामने धमकी दी जाए।
यह बहस अनवरत चल सकती है कि गलती किसकी है। दोनों पक्ष के लोग अपनी-अपनी बातें तर्क, वितर्क या फिर कुतर्क के रूप में रख सकते हैं पर सच यही है कि जिस समारोह के लिए अनुमति पर खुद डीएम साहब ने दस्तख़त किए हों, उसी समारोह में जाकर इस तरह के व्यवहार को उचित ठहराना उनके लिए आसान न होगा। त्रिपुरा उत्तर-पूर्व के राज्यों में से एक है और अफ़सरों के लिए वहाँ रहकर सुचारु रूप से शासन-व्यवस्था चलाना एक चुनौती होती है। अधिकारियों के लिए अपने मन से व्यवस्था चलाने के लिए जगह रहती है। ऐसी सुविधा नहीं होती कि वे स्थानीय लोगों के साथ ऐसा व्यवहार करते हुए दिखें जैसा डीएम साहब ने किया, क्योंकि ऐसा व्यवहार उनके बारे में ही नहीं बल्कि सरकारी तंत्र के बारे में गलत धारणाएँ बनाने में मदद करता है।
हो सकता है सरकारी अधिकारियों के लिए कोई मॉडल कोड ऑफ कांडक्ट हो या न भी हो पर उनके पास विवेक तो होना ही चाहिए। माना कि बहुत सारे अधिकारियों को शौक होता है कि वे अमिताभ बच्चन के जवानी के दिनों वाले पुलिसिया किरदार को रीयल लाइफ में सार्वजनिक तौर पर करते हुए नजर आएँ, पर सार्वजनिक व्यवहार का अलिखित कोड भी बताता है कि ऐसे शौक अपराधियों के लिए रिज़र्व रखें जाएँ और उचित समय पर ही पूरे किए जाएँ। ऐसे शौक पढ़े-लिखे निरीह शहरी पर आजमाने से आम लोगों के लिए अधिकारी वर्ग के प्रति गलत धारणा बनाने में सुभीता रहेगा और वे अधिकारियों के साथ अपनी बनाई उसी धारणा के अनुरूप व्यवहार करेंगे।
डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट माननीय शैलेश कुमार यादव ने मेजबानों में से किसी से कहा कि मेरे साथ जाहिल गाँव वाले की तरह बात मत करो, मैं तुम्हारा डीएम हूँ। गाँव वालों के लिए ऐसी सोच क्यों रखनी? भारतवर्ष का सरकारी तंत्र बात-बात पर जिन महात्मा गाँधी की कसम खाता है, उन्होंने ही कहा था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। यदि महात्मा की बात सच है और देश की आत्मा गाँवों में ही बसती है तो गँवई व्यक्ति को जाहिल बुलाकर ऐसी दृष्टि से देखने की सलाह क्या महात्मा देते? डीएम साहब को एक बार खुद से अवश्य पूछना चाहिए कि उनकी इस बात पर महात्मा गाँधी जी होते तो क्या कहते?
‘मेरे साथ जाहिल गाँव वाले की तरह बात मत करो’: गाँधी होते तो त्रिपुरा के DM साहब से क्या कहते?
भारतवर्ष का सरकारी तंत्र बात-बात पर जिन महात्मा गाँधी की कसम खाता है, उन्होंने ही कहा था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। यदि महात्मा की बात सच है और देश की आत्मा गाँवों में ही बसती है तो गँवई व्यक्ति को जाहिल बुलाकर ऐसी दृष्टि से देखने की सलाह क्या महात्मा देते?
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