हाल ही में आई एक खबर से पता चला कि मुस्लिमों में शिक्षा को लेकर बहुत ज़्यादा पिछड़ापन है और उनकी हालत अनुसूचित जातियों से भी ख़राब है। उसी प्रकार उनकी सामाजिक स्थिति भी बिगड़ी हुई है। आखिर यह किस तरह से सम्भव हो कि मुस्लिम अपनी वर्तमान स्थिति से ऊपर उठकर समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बन सके। सवाल यह है कि अन्य लोगों में और मुस्लिमों के रहन-सहन, सामाजिक स्तर, जीवन शैली में आज भी यह अंतराल आखिर क्यों बरक़रार है? आज भी एक पढ़े-लिखे मुस्लिम के लिए भी जिहाद और शरीयत से बाहर आना इतना कठिन क्यों है?
हालात ये हैं कि मनुवाद और पितृसत्ता पर सवाल उठाने वाले लोग ये भूल जाते हैं कि हिन्दू धर्म अपने अंदर मौजूद गैर जरूरी चीजों को आत्मचिंतन के द्वारा स्वीकार करता रहा और समय की जरूरत के हिसाब से उन्हें त्यागता भी रहा, जबकि दूसरी ओर इस्लाम आज भी अपनी चरमपंथी विचारधारा और कट्टरता पर चल रहा है।
भारत का गौरवशाली इतिहास और इस्लाम
अपने देश के इतिहास पर नजर डालते समय हमें एक निश्चित कर्म में हो रही घटनाएँ नजर आती हैं। जैसे- मौर्य वंश, गुप्त वंश, चोल वंश आदि का महान और गौरवशाली साम्राज्य देखने को मिलता है। ये गौरवशाली सिर्फ अपनी सांस्कृतिक विरासत के कारण ही नहीं बल्कि अपनी धार्मिक उपलब्धियों के कारण भी थे।
इस समय भारत में धार्मिक ग्रंथों से लेकर शैव, वैष्णव और बौद्ध धर्मों का अनुसरण इतिहास की प्रत्येक घटना में स्पष्ट देखने को मिलता है। लेकिन इस उन्नत संस्कृति के बाद सातवीं सदी में उदय हुआ कट्टरता के एक नए युग का। एक तरह से इस एकेश्वरवादी कट्टरता का उदय तत्कालीन अन्य धर्मों के अनुसरण में होने वाली खामियों का नतीजा था।
सन 711 ईसवी में मुहम्मद बिन कासिम और सिंध क्षेत्र के हिन्दू राजा दाहिर के युद्ध के बाद ही भारत देश में इस्लाम का आगमन हुआ था। इस्लाम के उदय से ही देखा गया कि यह धर्म राजनीतिक और सांस्कृतिक तालमेल से बनाया गया एक ऐसा तंत्र था, जो विश्व पर किसी भी सूरत में राज करने का मकसद बनाकर स्थापित किया गया था। इसके इतिहास से लेकर वर्तमान तक में हिंसा, नरसंहार, और रक्तपात प्रवृतियाँ समाहित थीं और हैं। और इन सभी आधारों पर यह आगे बढ़ते गए।
ये जिस दिशा में भी बढ़ते गए वहीं जबरन धर्म परिवर्तन किया गया, व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया गया। भारत जैसे देश में महिलाओं के व्यापार से लेकर बलात्कार जैसी क्रूर मानसिकताओं का भी बीजारोपण हुआ। इसका उदाहरण चचनामा में देखने को मिलता है – चचनामा में जिक्र मिलता है कि जब मोहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर को हराया तो उसके बाद उनकी दोनों बेटियों को यौनदासियों के रूप में खलीफा को तोहफा के तौर पर भेज दिया। हालाँकि, यही मोहम्मद बिन कासिम की मौत की वजह भी बना।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, हुआ ये कि मोहम्मद बिन क़ासिम द्वारा जब राजा दाहिर सेन की बेटियों को तोहफे के तौर पर खलीफ़ा के पास भेजा गया और वो खलीफ़ा के सामने पेश की गईं, तो उन्होंने बिन क़ासिम से बदला लेने के लिए एक झूठ कहा। उन्होंने खलीफ़ा से कहा कि क़ासिम पहले ही उनके साथ ‘हमबिस्तरी’ कर चुका है। ये सुनकर खलीफ़ा ने अपमानित महसूस किया और उसने बिन क़ासिम को बैल की चमड़ी में लपेटकर वापस दमिश्क़ मँगवाया। बताया जाता है कि उसी चमड़ी में दम घुटकर क़ासिम की मौत हो गई। भले ही बाद में राजा दाहिर सेन की बेटियों का झूठ सामने आने पर उन्हें दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया।
इसके बाद भारतभूमि कई वर्षों तक मुस्लिमों द्वारा धर्म परिवर्तन किए जाने से लेकर हर तरह की बर्बरता और जुल्म की गवाह बनी। मुस्लिमों ने भारत पर हर तरह से शासन किया और साथ ही अपनी तादाद को बढ़ाने और इस्लाम धर्म की बुनियाद मजबूत करने के लिए हर तरह की क्रूरता की। धर्म परिवर्तन ना करने वाले ‘काफ़िर’ और ‘बुतपरस्तों’ को जिन्दा जलाना, सर कलम करना, उनकी बाजारों में बोलियाँ लगाना और अन्य देशों में दास बनाकर बेच देना, ये सब मुस्लिम आक्रांताओं के शासन के दौरान हिन्दुओं के साथ किया जाता रहा।
भारत में पुनर्जागरण: सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन
19वीं सदी में भारतीय समाज ईस्ट इंडिया कम्पनी के आचरण और शासन नीति के विरुद्ध चिंतनशील हो उठा। यह वो समय था जब भारतवासी पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के सम्पर्क में आए और उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति के साथ अपने गौरवशाली इतिहास की तुलना की। यह देखकर देश का सुधारवादी और प्रबुद्ध वर्ग सक्रिय हो गया और उसने भारतीय समाज को पुनर्जीवन प्रदान करने का संकल्प लिया।
लेकिन समाज सुधार की इस पहल में सबसे आगे सिर्फ हिन्दू ही थे और मुस्लिम तब भी अपने धर्म के अंदर निहित कुरीतियों को स्वीकार नहीं कर पाए थे। उदाहरण के तौर पर यदि देखें तो ब्रह्म समाज हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंने 20 अगस्त, 1828 ई. में इसकी स्थापना की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को समाप्त करना था।
आत्मचिंतन की गैरमौजूदगी का दूसरा नाम है इस्लाम
तुलना करते हुए यदि देखें तो मुस्लिमों ने अपने धर्म से सम्बंधित किसी भी सुधारवादी कदम उठाने, स्वीकार करने और उसके उन्मूलन की दिशा में कोई कदम उठाने में करीब और पचास साल लगा दिए। यही वजह है कि एक ओर आज के समय में देश में अन्य धर्म और सम्प्रदाय आधुनिक शिक्षा प्रणाली और विज्ञान की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं समुदाय विशेष अभी भी शिक्षा की मदरसा नीति पर ही कायम हैं। आज भी मुस्लिमों का बहुत ही सीमित वर्ग है जो शिक्षा के आधुनिक स्वरुप से जुड़ा हुआ है और वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित शिक्षा के महत्त्व को समझता है।
मुस्लिम धर्म सुधार आन्दोलन में अहमदिया आन्दोलन की शुरुआत वर्ष 1889 में की गई थी। इस बीच यदि किसी मुस्लिम ने इस्लाम में निहित बुराइयों पर बात भी की तो उसका बहिष्कार किया गया और उसे गैर-इस्लामी समझ लिया गया।
अलीगढ़ आन्दोलन के नायक सर सैयद अहमद खान एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने सबसे पहले मुस्लिमों को सुधार की ओर बढ़ने की राय दी थी। इसके बदले में सर सैयद अहमद खान को मुस्लिम समुदाय द्वारा हर तरह कि धार्मिक कट्टरता का सामना करना पड़ा था, उनके खिलाफ फतवे भी जारी किए गए और आखिर में सैयद अहमद खान के अंदर का सच्चा मुस्लिम भी अपनी पूरी कट्टरता के साथ सामने आता गया।
लेकिन एक शिक्षित मुस्लिम होने के कारण सैयद अहमद खान के पास अपना उल्लू सीधा करने के कई विकल्प मौजूद थे, जैसे 1857 की क्रांति के दौरान उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की नजरों में मुस्लिमों की छवि निखारने के लिए अंग्रेजों को शरण दी, क्रांति को हिन्दुओं के द्वारा की गई ‘हरामजदगी‘ बताया।
यह भी पढ़ें: हिन्दुओं के खिलाफ सशस्त्र जिहाद की घोषणा करने वाले सर सैयद अहमद खान थे असली ‘वीर’
इसके बदले सर सैयद अहमद खान को ब्रिटिश सरकार द्वारा जीवन पर्यन्त कई प्रकार के सम्मान और पद दिए गए। फिर भी देश का ‘लिबरल गिरोह’ वीर सावरकर के अंग्रेजों को लिखे गए पत्रों का तो जिक्र करता है, लेकिन ‘सर’ सैयद अहमद खान के वीरता के ‘कारनामों’ पर प्रकाश डालने से बचता रहता है। सवाल यह भी रहा कि उस समय मुस्लिमों के बीच कुछ ही गिने चुने चेहरे सम्मानित और शिक्षित माने जाते थे लेकिन वो भी अपनी धार्मिक कट्टरता से दूर नहीं रह पाए, तो फिर उस समय के अन्य लोगों से यह आशा आखिर किस प्रकार की जा सकती है?
यही प्रश्न आज भी इसी तरह से दिमाग में गूंजता है, जब सलमान खुर्शीद जैसे कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता और AIMIM के नेता ओवैशी जैसे शिक्षित लोग महिला सशक्तिकरण के लिए तीन तलाक जैसे संवेदनशील मुद्दे को मज़हबी मामला बताते नजर आते हैं।
पूरा विश्व आज प्रगति के पथ पर अग्रसर है, वहीं मुस्लिम राष्ट्र अभी भी अपनी शरीयत के बंधनों में बंधे नजर आते हैं। मुस्लिम आज भी मदरसे की शिक्षा और दीनी तालीम से बाहर जाना कुफ्र समझते हैं। मुस्लिमों का शिक्षित और राजनीतिक वर्ग खुद हर प्रकार के ऐशो-आराम से घिरा है लेकिन अपने अनुयाइयों को वो आज भी जिहाद की शिक्षा को ही सबसे ऊपर बताते हैं।
इसका सबसे सटीक उदाहरण जम्मू कश्मीर में पत्थरबाजों को समर्थन देने वाले नेताओं के घर हैं, जिनके अपने बच्चे तो विदेशी विश्वविद्यालयों से अच्छी शिक्षा ले रहे हैं लेकिन वो कश्मीर की आवाम को हमेशा जिहाद की प्रेरणा ही देते रहे हैं।
देश की दूसरी बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी का एक हिस्सा आज भी कबायली प्रवृतियों का अनुसरण करते नजर आता है। ‘अल्पसंख्यक’ इलाकों में अशिक्षा, भुखमरी, दरिद्रता और तमाम प्रकार की गरीबी आज भी उसी तरह से नजर आती है, जिस हाल में बहादुर शाह जफ़र छोड़कर गए थे। इस सबके पीछे एक हद तक हिन्दू और मुस्लिम समाज सुधार के वक़्त के करीब पचास वर्ष का अंतराल भी जिम्मेदार है। लेकिन उससे भी ज्यादा जिम्मेदार है मज़हबी कट्टरता!
अगर यह मजहब अब भी अपनी ‘किताब’ और शरीयत से बाहर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है तो अभी अगले 500 वर्ष भी वो जिहाद और मदरसा शिक्षा को सर्वोपरि मानते रहेंगे।