सही गलत की परिभाषा… जिस तरह समाज में नैतिकता के आधार पर, परिवार में विश्वास के आधार पर तय होती हैं, वैसे ही कोर्ट में ये परिभाषा सबूत के आधार पर निर्मित होती हैं। ये प्रक्रिया आज-कल में नहीं बनी। सालों से कोर्ट इसी बुनियाद पर अपने फैसले देता आया है। सबूत माँगने के पीछे वजह ये नहीं होती कि देश की न्याय व्यवस्था पीड़ित की शिकायत पर संदेह कर रही है। इसका मकसद सिर्फ इतना होता है कि किसी निर्दोष के साथ गलती से भी अन्याय न हो जाए।
मैरिटल रेप को लेकर इस समय जो देश में बहस चल रही है उसका कारण यही है- सबूत।
पहले एक पक्ष आता है जो माँग उठाता है कि शादीशुदा औरतों के साथ यदि उनका पति जबरन संबंध बनाए तो उसे रेपिस्ट करार देकर वही सजा मिले जो एक बलात्कारी की होती है। इस माँग के लिए ये पक्ष लंबे समय तक आवाज उठाता है, अपनी याचिकाएँ डालता है और अंत में दिल्ली हाई कोर्ट इस मामले पर विधिवत सुनवाई करती है।
इस बीच एक दूसरा पक्ष भी आता है जो ये सवाल करता है कि अगर आप जबरन संबंध बनाने के आरोप में पति के लिए बलात्कारी सरीखी सजा चाहती हैं तो फिर इसमें सबूतों का आधार क्या होगा। क्या शादीशुदा औरत द्वारा लगाया गया इल्जाम काफी होगा या फिर कोर्ट के सामने कोई सबूत भी पेश किए जाएँगे कि पति ने सच में रेप किया? किस तरह से औरत के अधिकार धारा 375 के अपवाद 2 मात्र के हट जाने से संरक्षित होंगे और कैसे कोई निर्दोष पुरुष इस कानून का शिकार नहीं होगा?
अब आप कितनी ही दलील देकर इन बातों को साबित करें कि ये सवाल पितृसत्ता की उपज हैं और महिलाओं के साथ भेदभाव को बढ़ावा देने का प्रयास… लेकिन उन तमाम उदाहरणों को दबाना असम्भव है जो ये बताते हैं कि इस समाज में पुरुष भी मानसिक, सामाजिक, और भावनात्मक तौर पर गलत इल्जाम लगने से पीड़ित होते हैं और उनके पास कोई सबूत तक नहीं होता जो वो अदालत में पेश करके अपनी बेगुनाही को साबित कर सकें। नतीजन उन्हें तब तक सजा भोगनी पड़ती है जब तक कोई मसीहा उन्हें निर्दोष न करार दिलवा दे।
माँग पर संदेह क्यों? क्यों नहीं आ पाया दिल्ली हाईकोर्ट से फैसला?
आज हम एक कानून के लिए बहस कर रहे हैं जो विवाहित महिलाओं को अधिकार देगा कि वो पति को अपने विवेक के आधार पर समाज में बलात्कारी कह सकें… लेकिन इसी दौरान, हम ये सोचने से क्यों कतरा रहे हैं कि जब हर अपराध की सजा सबूत पर तय होती है तो फिर इस अपराध के लिए सबूत माँगने वाले गलत या नारीविरोधी कैसे हैं।
ये मत भूलिए कि हम अब भी उसी समाज का हिस्सा हैं जहाँ आधुनिक होते-होते भले ही तमाम तरह की हिचक को अधिकार के नाम पर खत्म कर दिया गया, लेकिन ‘सेक्स’ अब भी वो चीज है जो पति-पत्नी के बीच बंद कमरे में ही होता है। ऐसे परिवेश में फर्ज कीजिए कि कोई महिला शादी के कुछ सालों बाद दुनिया के सामने पति पर इल्जाम लगाए कि उसका बलात्कार हुआ है और वो चाहती है कि उसके पति को सजा देकर उसे न्याय मिले।
बताइए, ऐसी स्थिति में क्या है ऐसी कोई तकनीक, व्यवस्था या तंत्र… जो जाँच के दौरान महिला के बयान के अतिरिक्त ये पता लगा पाए कि शादी के बाद पति ने पत्नी के साथ कितनी बार मर्जी से सेक्स किया और कितनी बार जबरन…। ये सब केवल और केवल बयान पर निर्धारित होने वाला है, वो भी बिना दूसरे पक्ष की बात सुने, बिना ये सोचे कि ये इल्जाम दुर्भावना के चलते भी लगाए जा सकते है।
ध्यान रहे, बलात्कार कोई छोटा-मोटा इल्जाम नहीं है। हमारे समाज की मानसिक बनावट ऐसी है कि लोग बलात्कार का आरोप लग जाने मात्र से इंसान को घृणित नजरों से ही देखते हैं और समाज में जो थू-थू होती है वो अलग। कोई नहीं चाहता कि शादी के बाद भी उसे ये डर हो कि अपने साथी के साथ सेक्स करने पर उसे बलात्कारी बनाए जाने की संभावनाएँ हैं।
हो सकता है ये बातें थोड़ी अजीब हों। मगर दिल्ली हाईकोर्ट से भी अगर इस मुद्दे पर एकमत फैसला नहीं आ पाया तो उसका कारण यही है कि लोग समझ नहीं पा रहे कि जो माँग नारीवादी समूहों द्वारा की जा रही है, उसे यदि मान लिया जाए तो दूसरे पक्ष को सुनने के क्या विकल्प होने वाले हैं। क्या ऐसा कोई अधिकार पुरुष को मिलेगा कि अगर उसपे लगे इल्ज़ाम फर्जी निकलें तो पूरा समाज इकट्ठा होकर उसकी छवि को दोबारा बनाने के प्रयास करेगा जो एक आरोप मात्र से तार-तार हो गई या क्या ऐसे किसी कानून पर विचार हो रहा है कि पुरुष भी सामने आकर बता सके कि कितनी बार बिन इच्छा के उसके साथ बंद कमरे में संबंध बनाए गए या कितनी बार संतुष्ट न कर पाने के कारण उन्हें बिस्तर पर शर्मिंदा किया गया।
शायद नहीं… हम लोग इन पहलुओं पर बात ही नहीं कर रहे हैं। हम एकतरफा नारीवाद की नाव में चढ़ कर वो दुनिया चाहते हैं, जहाँ महिला सशक्तिकरण का अर्थ ऑर्गेस्म पर चिंतन तक सीमित रह जाए और बराबरी की माँग के नाम पर अपने हित में सारे कानून बनते जाएँ।
सोचिए कि हम कब इस बात पर चर्चा करेंगे कि जिस तरह से महिलाओं के अधिकारों के लिए महिला आयोग है वैसे पुरुष आयोग पर बात तक क्यों नहीं है जबकि पीड़ित वह भी बराबर हैं। हम कब इस बात को स्वीकार करेंगे कि जैसे हमबिस्तर होते समय पुरुष की इच्छाएँ होती है वैसे ही स्त्री की भी कुछ इच्छा होती है जिसके पूरा न होने पर खीझ इतनी होती है कि बात तलाक तक आ जाती है।
साल 2016 में एक खबर सामने आई थी कि पति अपनी पत्नी को सेक्स के दौरान संतुष्ट करने में नाकाम हुआ तो पत्नी ने उसे तलाक दे दिया। घटना मुर्शिदाबाद की थी। जिसमें लड़की के घरवालों ने ही लड़की को कहा था कि अगर उसकी यौन जरूरतें नहीं पूरी हो पा रहीं तो वो तलाक ले ले। अब इस खबर को पढ़िए और दो बार पढ़िए। फिर खबर के कैरेक्टर को उलटा करके सोचिए क्या कोई पुरुष अपने सेक्सुअल डिजायर न पूरी होने पर इस कदम को उठा पाए कानून इतनी आजादी उसे देता है या समाज उसे इतना हक देती है… नहीं। अरे हम तो इस बात पर भी नहीं सोचते हैं कि जैसे महिला रेप की शिकार है पुरुष भी तो हो सकता है।
हाल में इस संबंध में वास्तव फाउंडेशन ने सोचा और एक ऑनलाइन सर्वे करवाया गया। इस सर्वे की प्रमाणिकता क्या है ये नहीं कही जा सकती। लेकिन इसमें शामिल 87 फीसद मर्दों ने माना था कि वो भी जबरन सेक्स, मैरिटल रेप, यौन हिंसा या इच्छा के बिना पत्नी के साथ संबंध बनाने को फेस कर चुके हैं।
87% #MarriedMan #Husband faced #ForcedSex #MaritalRape #SexualAssault for sexual pleasure by #WIFE as per the Social media Survey by @vaastavngo on #MaritalRapeLaw
— Vaastav Foundation (@vaastavngo) May 10, 2022
It should be a #GenderNeutralLaw now
No more male hater, family breaking legal system. pic.twitter.com/tv58AGQyQK
आज कोई भी निर्णय लेने से पहले हमें सोचना होगा कि पति को अचानक से बलात्कारी बताने का नॉर्म भारत में इतनी जल्दी कूल नहीं होने वाला। ये कोई संज्ञा या विशेषण भर नहीं है। इसके जुड़ते ही दुनिया भर की घृणा उस व्यक्ति के हिस्से आने लगेगी जिसकी अपेक्षा शायद उसने आजीवन नहीं की होती। कई बार शर्मसार होकर उसे जान तक देनी पड़ती है।
पुरुषों पर लगाए गलत इल्जामों के चंद उदाहरण
इतने के बावजूद आपको दूसरे पक्ष पर यकीन नहीं करना मत करिए। उन्हें पितृसत्ता का वाहक बताना है बताइए। लेकिन सवाल करिए खुद से कि क्या आप राहुल अग्रवाल के बारे में जानते हैं? उस राहुल के बारे में जिसके ऊपर उसकी पत्नी ने 498-ए धारा लगवाई हुई थी।
Rahul Aggarwal needs justice #JusticeForRahul pic.twitter.com/duW3xVVnVR
— Burgers Life Matter (@burgerstrike) May 7, 2022
राहुल को लगातार अपनी पत्नी और ससुराल वालों से प्रताड़ना मिल रही थी और बच्चों से भी बात करने का उसके पास कोई रास्ता नहीं था। उसने छत से कूद कर सुसाइड इसलिए नहीं की क्योंकि वो एक इल्जाम लगने से आहत हो गया। उसने आत्महत्या इसलिए की क्योंकि उसके पास सबूत नहीं था अपनी बेगुनाही का। अपने सुसाइड नोट में राहुल लिखकर गए हैं कि साल 2020 में ही उनसे एक साइन करवाया गया था जिसमें लिखा था कि ससुराल वाले लोग राहुल की सुसाइड के जिम्मेदार नहीं होंगे। अब सोचिए प्रताड़ना किस हद्द तक दी जानी थी जो पहले ही अनुमान थे कि व्यक्ति आत्महत्या भी कर सकता है।
अगला मामला अरविंद भारती का है। अरविंद ने अपनी जीवन को खत्म किया क्योंकि उसे उसकी पूर्व पत्नी ऋचा दहेज के केस में पहले फँसा चुकी थी और उस मामले में राहत मिलने के बाद भारती को रेप केस का मामला डाल दिया था। भारती की गलती इतनी थी कि ऋचा से तलाक के बाद दोबारा शादी चाहते थे लेकिन ऋचा ये कहने पर अड़ी थी कि वो अगर तू मेरा नहीं हुआ तो किसी का नहीं होगा। ऋचा की एक शिकायत ने अरविंद को 15 दिन जेल में डाले रखा, बिना इस जाँच के कि जो आरोप लगाए गए हैं वो सही हैं भी या नहीं। आए दिन समाज में जलील होना अरविंद नहीं सह पाए और आखिर में कानून को महिला के आगे बौना बताकर मौत को गले लगा लिया।
एक और केस देखिए। मुंबई का है। 2017 में 24 साल के एक लड़के पर 16 साल की लड़की से रेप करने के इल्जाम लगे। लड़के ने बार-बार खुद को बेगुनाह बताया। मगर केस चलता रहा क्योंकि लड़की प्रेगनेंट थी और घरवालों के बार-बार पूछने पर उसने 24 साल के लड़के का नाम लेकर कहा था कि वो उसके साथ संबंध में थी। लड़के को उसी साल पुलिस ने गिरफ्तार भी कर लिया। बाद में डीएनए जाँच ने ये साबित किया कि जिस लड़के को आरोपित बताया गया था उसका कभी नाबालिग के साथ कोई शारीरिक संबंध था ही नहीं। लड़की ने सिर्फ खुद को बचाने के लिए उस लड़के पर झूठा इल्जाम लगाया था।
3 RAPE cases on 3 different MEN in 1 YEAR
— Deepika Narayan Bhardwaj (@DeepikaBhardwaj) May 9, 2022
5 RAPE cases filed in total
A Married woman in JABALPUR has been misusing rape laws with elan saying no police or court or judge can do anything
Today I start a campaign to bring her to Justice. Filed complaint with @SPJabalpur @DGP_MP pic.twitter.com/liRWUWDZ1m
हरियाणा के हिसार में बलबीर नामक एक व्यक्ति ने ट्रेन के आगे कूदकर जान दी थी। कारण था उसके बेटे के ससुराल वाले उसे रेप के झूठे केस में फँसाने की धमकी देते थे। परेशान होकर बलबीर ने आत्महत्या कर ली। इससे पहले बलबीर की पत्नी भी अपनी बहू के रोज-रोज झगड़ों से तंग आकर एक साल पहले आत्महत्या कर चुकी थी।
इसी तरह हाल में पुरुष अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली दीपिका नारायण भारद्वाज ने जबलपुर की एक महिला के विरुद्ध केस दर्ज किया था। ये महिला 1 साल में तीन लोगों के ऊपर 3 रेप केस दर्ज करवा चुकी है और 2016 से लेकर अब तक उसने कुल मिलाकर पुरुषों पर 5 रेप केस दर्ज करवाए हैं। सबसे दिलचस्प बात ये है कि ये महिला रेप की धारा में केस दर्ज करवाने के बाद आरोपित पुरुष के साथ चैटिंग करती है और उसे ‘वन मोर शॉट’ कहकर उकसाती भी है। ये स्क्रीनशॉट भी दीपिका ने अपने ट्विटर पर शेयर किया है।
अब आप सोचिए आप तैयार हैं क्या ये दावा करने के लिए कि धारा 375 से अपवाद हटने के बाद इसका दुरुपयोग नहीं होगा… कोई भी फैसला सुनाने से पहले एक बार भारतीय परिप्रेक्ष्य में चीजों को समझें, फिर अपना फैसला लें। नारीवादी समूह इस बात को मान रहा है कि शादीशुदा महिला के साथ जबरन संबंध बनाना अपराध घोषित हो यही समस्या का समाधान है। लेकिन वो ये जवाब नहीं दे रहा कि पुरुष ने जबरन संबंध बनाए या नहीं ये बात कैसे साबित होने वाली है।
क्या भारतीय समाज तैयार है पति को बलात्कारी बनाने के लिए?
हमें कोई भी कानून को लाने से पहले ये बात समझनी होगी कि हम और आप उस समाज का किस्सा हैं जहाँ शादी के बाद सेक्स को न केवल कानूनन और सामाजिक तौर पर लीगल माना जाता है बल्कि मानसिक तौर पर इसे एक अधिकार समझ लेने का काम सदियों से व्यवहार में है। एक ऐसा मानसिक अधिकार जिसे लेकर व्यक्ति मानता है कि समाज का कोई व्यक्ति, परिवार का कोई सदस्य, उसे करने से नहीं रोकेगा… आप ऐसी व्यवस्था को एकदम से उखाड़ नहीं सकते… ये एक कड़वी सच्चाई है और इस कानून को लाने से जटिलताएँ होने वाली हैं इस बात में भी कोई संदेह नहीं है। अगर इस दिशा में कदम उठाना ही है तो सबसे पहले मानसिक शुद्धिकरण अनिवार्य है।
मानसिक शुद्धिकरण पहला उपाय
हाल में एनएफएचएस का एक डेटा आया है। 66 % पुरुषों ने इस बात को कहा है कि उन्हें इससे कोई समस्या नहीं है अगर उनकी पार्टनर थकान के कारण या किसी और वजह से सेक्स के लिए राजी न हो। इसके अलावा 80% से ज्यादा महिलाएँ भी मानती हैं कि अगर वो सेक्स के लिए मना करती हैं तो ये उनके पार्टनर के लिए ठीक है। इसमें समस्या नहीं है। केवल 8 फीसद महिलाएँ और 10 फीसद पुरुष ऐसे देखने मिलते हैं जिनके लिए सेक्स से इनकार करना एक बड़ा मुद्दा वरना बाकी इस बिंदु को सामान्य मानते हैं।
अब ये एनएफएचएस के आँकड़ों का जिक्र यहाँ इसलिए जरूरी है ताकि ये बात पता चले कि स्त्री-पुरुष उस राह पर आगे बढ़ रही है जहाँ बिस्तर पर अपने पार्टनर की सहमति उनके लिए जरूरी है। ये आँकड़ें समय के साथ बढ़ें और महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों यही समस्या के समाधान की ओर आगे बढ़ने में एक कदम होगा। क्योंकि फिलहाल, विकासशील भारत इतना परिपक्व नहीं है कि वो मैरिटल रेप का अर्थ भी समझ पाएँ या महिला ये जान पाए कि इसका प्रयोग कैसे और कहाँ होना है।
घरेलू हिंसा मामले तक में अभी तक औरतों ने सही से आवाज उठानी शुरू नहीं की है। उनकी जागरूकता का स्तर इतना है कि 45% को लगता है कि उनके साथ होने वाली मारपीट सही है। ऐसे में वो मैरिटल रेप जैसे मामलों में कैसे निर्णय लेंगी? जाहिर है कि किसी न किसी से प्रभावित होकर। अब सवाल है कि क्या जो व्यक्ति मैरिटल रेप का केस दर्ज कराने के लिए महिला को प्रेरित करेगा वो उस परिवार को समझेगा या फिर महिला को एक क्लाइंट और उसके बयान को सब्जेक्ट के तौर पर लेगा।
आप अपने ईर्द-गिर्द के समाज को देखेंगे तो पाएँगे कि देश में आज भी बड़ी संख्या में शादियाँ होती हैं जहाँ लड़का-लड़की रिश्ता तय होने से पहले एक दूसरे को जानते तक नहीं है। लेकिन मन में जो बात स्पष्ट होती है वो ये कि उस अंजान के साथ सेक्स उनके लिए समाज में शादी के बाद वैध होगा…। सोचिए ऐसी मानसिकता वाले लोग एकदम से कहाँ से बुद्धिजीवियों वाला दिमाग पाएँगे। उन्हें तो सुधारने के लिए सही-गलत उनकी चेतना में ही डालना जरूरी होगा। वरना आधा समाज पीड़ित और आधा बलात्कारियों में वर्गीकृत हो जाएगा।
सालों से एक दिशा में पोषित मानसिकता को चुनौती मानकर यदि आप समाज में सुधार की अपेक्षा करते हैं तो शायद इससे फर्क व्यापक स्तर पर आपको दिखेगा। लेकिन अचानक से! शायद ही ऐसा संभव हो। जिस फैसले की माँग कोर्ट से की जा रही है वो सिर्फ तथाकथित नारीवादी सिद्धांत पर कदमताल करने के लिए उचित है । इसमें पति को बलात्कारी बना देने के अधिकार की माँग के अलावा कोई और पहलू नहीं देखा जा रहा जबकि जस्टिस शकधर जिन्होंने इस माँग को लागू करने का के लिए समर्थन दिया है उन्होंने भी अपने बयान में ये बात जोड़ी है कि रेप कानून जेंडर न्यूट्रल होने चाहिए। उन्होंने कहा है कि इसके लिए विधायिका और कार्यपालिका को सोचना चाहिए। उन्होंने एक तरफ झुक कर बिलकुल नहीं कहा है कि जो माँग नारीवादी उठा रहे हैं वो उचित हैं।
अगर वाकई हम समस्या पर गंभीरता से अग्रसर होना चाहते हैं तो पहले युद्ध स्तर पर जागरूकता अभियान छेड़ना होगा। न केवल पुरुषों को महिलाओं की असहमति का सम्मान करना सिखाना होगा या महिलाओं को उनके स्वास्थ्य व अधिकारों के प्रति सचेत करना होगा बल्कि समाज के जहन में भी ये बात डालनी होगी कि मैरिटल रेप जैसी चीजें मानवाधिकार के विरुद्ध हैं। वरना यही समाज महिला से प्रश्न कर-करके, उसकी व्यथा को समझे बिना उनकी अस्मत पर सवाल खड़ा करके हँसता रहेगा।
ये सारी पृष्ठभूमि समझनी और समझाने के बाद भी ये सुनिश्चित करना होगा कि इस नए अधिकार का प्रयोग महिलाएँ सही दिशा में करेंगी और झूठे इल्जाम लगाने वालों को कोई माफी नहीं मिलेगी। अगर ऐसा किए बिना एकाएक पुरुष विरोधी कानून को अस्तित्व में लाया जाता है तो केवल और केवल ये एक कुत्सित प्रयास माना जाएगा उन नारीवादियों द्वारा जो शादी को संस्था मानती हैं और पति-पत्नी को उस संस्था का सदस्य जिसकी सदस्यता वो मनमुताबिक छोड़ सकता है। उनका ये जाहिर करना कि उन्हें महिलाओं की चिंता है और दूसरा पक्ष इस पर विचार तक नहीं कर रहा…एक तरह से भ्रमित करने वाली बातें है। भारतीय कानून में ऐसी धाराएँ हैं जो छोटी बच्ची से लेकर युवा लड़की और शादीशुदा महिलाओं के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए बनाई गई हैं। इनके अलावा वो धाराएँ भी हैं जो विवाहित महिला के साथ होने वाली घरेलू हिंसा और यौन हिंसा को डील करती हैं… इसलिए ये कहना गलत है कि महिला के विरुद्ध हो रहे अपराधों पर संज्ञान नहीं लिया जा रहा।
धाराएँ: प्रयोग और दुरुपयोग
महिलाओं के विरुद्ध घरों में होने वाली हिंसा एक ऐसी क्रूर सच्चाई है जिससे कोई मुँह नहीं मोड़ सकता। संविधान ने ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए ही तमाम धाराएँ बनाई हैं। अगर महिला हिंसा का शिकार होती है तो उसे न्याय कैसे मिलेगा इसके लिए प्रोटेक्शन ऑफ वूमेन एंड डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट, 2005 जैसे कानून हैं और आईपीसी की 354, 377, 376-बी, 498-ए जैसी धाराएँ हैं।
धारा 354 छेड़खानी, लज्जा भंग करने वाले के विरुद्ध आपको आवाज उठाने का अधिकार देती है। 377 धारा कहती है कि यदि कोई पति अपनी पत्नी के साथ अप्राकृतिक सेक्स करता है और उसे इससे आपत्ति है तो वो इसके विरुद्ध भी शिकायत दे सकती है। इसी तरह धारा 376 बी अधिकार देती है कि अगर कोई पति-पत्नी अलग रहने का मन बना चुके हैं या रह रहे हैं तो फिर पति का अपनी पत्नी से संबंध बनाना बलात्कार की श्रेणी में आएगा। जिसके लिए पति को 2 से 7 साल की सजा हो सकती है।
इसके अलावा एक धारा और भी है- 498-ए। ये धारा महिलाओं को उनके उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाई गई थी। इसके तहत शादीशुदा महिला को अधिकार दिया गया था कि अगर महिलाओं को उनके ससुराल में उनके पति या ससुराल वालों से किसी भी क्रूरता का सामना करना पड़ता है तो वो उनके विरुद्ध शिकायत दर्ज कर सकती हैं। हालाँकि समय के साथ इसका गलत प्रयोग हुआ। कई मामले सामने आए जब पति पक्ष को इस धारा के कारण कानूनी और सामाजिक प्रताड़नाएँ झेलनी पड़ीं। ऊपर जिस राहुल अग्रवाल का जिक्र किया है। वो इसी धारा के कारण प्रताड़ित किए गए और उन्होंने अंत में मौत को गले लगा लिया।
साल 2014 में अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य जजमेंट में कोर्ट ने माना भी था कि महिला इस धारा का दुरुपयोग कर रही है। अदालत ने चिंता जाहिर की थी इन धाराओं का गलत इस्तेमाल करके झूठे-झूठे केस दर्ज होते हैं। फिर परिवार की गिरफ्तारी तुरंत हो जाती है। इस धारा के दुरुपयोग को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि धारा के तहत दर्ज केस में तब तक कोई गिरफ्तारी नहीं हो जब तक कि जाँच पूरी नहीं होती।
मैरिटल रेप का दुरुपयोग तो नहीं करेगा समाज?
आज तमाम पुरुष हैं जो जेंडर न्यूट्रल कानून न होने के चलते पीड़ित हैं। तमाम मामले हमारे सामने उदाहरण के तौर पर मौजूद हैं कि पति-पत्नी के विवाद में पति को और उसके घरवालों को सबक सिखाने के लिए आईपीसी की धाराओं का गलत प्रयोग किया गया और बिन किसी जाँच परख के पुरुष पक्ष पीड़ित होता रहा। अब आगे जब वैवाहिक रिश्ते में बलात्कार के कानून को जोड़ने की बात हो रही है तो ये ध्यान देना जरूरी है कि कहीं अगर एक अपवाद मात्र के हटने से एक इंसान को आपसी द्वेष के चलते बलात्कारी बना दिया गया और उसे सजा देकर जेल में डाल दिया गया तो उसके जीवन की भरपाई कौन करेगा। मौजूद धाराओं का गलत इस्तेमाल पहले ही उन पुरुषों को मानसिक तौर पर प्रताड़ित करने में खूब भूमिका निभा रहा है। क्या इस तरह अचानक से मैरिटल रेप का कॉन्सेप्ट स्थिति सुधारने की बजाय स्थिति को भयावह बनाना नहीं होगा।
ऑपइंडिया ने इस संबंध में पीड़ित पुरुषों की आवाज उठाने वाली कार्यकर्ता व पत्रकार दीपिका नारायण भारद्वाज से बात की। उन्होंने बताया कि वर्तमान में पत्नी के साथ जबरन संबंध बनाने वाले पति को बलात्कारी करार दिए जाने के लिए धारा 375 के अपवाद को खत्म करने की जो माँग उठाई जा रही है वो ग्राउंड रिएलिटी को देखकर नहीं लगती। ऐसा नहीं है कि यौन हिंसा का शिकार शादीशुदा महिलाओं के लिए कानून नहीं हैं। कानून हैं। लेकिन फिर भी अगर ये लोग चाहते हैं कि अपवाद खत्म करके जबरन संबंध बनाने वाले पतियों पर कार्रवाई हो तो हर पहलू को देखते हुए सोच-समझकर एक नया कानून बने तभी ठीक होगा। जो अपवाद धारा 375 का है उसे कुछ सोच समझ कर अपवाद बनाया गया था। इसे हटाना ठीक नहीं है। पहले ही कई कानूनों का दुरुपयोग हम समाज में देख रहे हैं।
इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अजय दत्ता की इस मुद्दे पर कहते हैं, “मैरिटल रेप बहुत संवेदनशील विषय है। विधि विशेषज्ञों को इस पर और ज्यादा सोचने की जरूरत है। एक स्त्री की इच्छा के विरुद्ध सेक्स रेप होता हैय़ पति-पत्नी के रिश्ते की बुनियाद में शारीरिक संबंध भी होते हैंय़ यह सच है कि सेक्स के लिए पत्नी की सहमति अनिवार्य होनी चाहिए, जबरन शारीरिक संबंध नहीं बनाए जाने चाहिए। पर इसे जुर्म की कैटेगरी में रखना अभी जल्दबाजी होगी जब तक की देश इतना प्रगतिशील न हो जाए कि उसे सहमति का अर्थ समझ में आए।”
क्या मैरिटल रेप को नकारना महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को नकारना है?
इस पूरे मुद्दे पर इतनी बातचीत के बाद ये स्पष्ट हो जानी चाहिए कि यौन हिंसा-शारीरिक हिंसा पर बोलना और मैरिटल रेप पर बोलना दो अलग बातें हैं। जब सेक्सुअल वायलेंस या फिजिकल वायलेंस पर कोई अपनी राय रखता है तो उसे ये बात स्पष्ट होती है कि पति हो या पत्नी, शादी के बाद भी किसी को ये अधिकार नहीं दिया जाता है कि वो अपने साथी पर हाथ उठाए। अगर इसके बावजूद ऐसा होता है और उसपर संज्ञान लेकर आरोपित के विरुद्ध कार्रवाई होती है। इसके गवाह सिर्फ घरवाले, बाहरवाले नहीं होते बल्कि शरीर पर छूटे घाव के निशान भी होते हैं जो साबित करते हैं कि हिंसा को अंजाम दिया गया है। इसके उलट मैरिटल रेप में कोई स्थिति स्पष्ट नहीं है। शादी के बाद सेक्स होता है इसे पूरी दुनिया जानती है लेकिन बंद कमरे में वो सहमति से हुआ या असहमति से इसके गवाब सिर्फ दो लोग होते हैं। जिसमें एक पक्ष दूसरे को दोषी बताता है और दोषी खुद को निर्दोष। ऐसी जटिल परिस्थिति में बिन सबूत के निर्णय कैसे लिया जाना ये सवाल उठना लाजिमी है।