नोट्रे डेम डी पेरिस का अंग्रेजी में शाब्दिक अर्थ “आवर लेडी ऑफ़ पेरिस” होता है, जो हिन्दी में सबसे करीबी तौर पर “पेरिस की हमारी देवी” कहा जा सकता है। इस कैथेड्रल के जलने पर पूरे विश्व भर में अफ़सोस होता रहा। मरम्मत के दौरान इसमें आग लग गयी थी। नोट्रे डेम के नाम से ख्यात इस गिरजाघर (कैथेड्रल) की खासी मान्यता है। इसे फ्रेंच-गोथिक किस्म के निर्माण के सबसे अच्छे उदाहरणों में से एक माना जाता है। इसके अलावा भी इसके पीछे एक लम्बा इतिहास रहा है।
ऐसा माना जाता है कि यहाँ पहले ज्यूपिटर (बृहस्पति) को समर्पित पैगन मंदिर हुआ करता था। यहाँ पाए गए “पिलर ऑफ़ बोटमेन” को उसका प्रमाण माना जाता है। एक पुराने चर्च पर 1163 में किंग जॉर्ज (सप्तम) और पोप एलेग्जेंडर (तृतीय) की मौजूदगी में इसका निर्माण शुरू करवाया गया था। इस भवन में पहले भी आग लग चुकी है। कई साल पहले जब 1790 के दौर में ये फ़्रांसिसी क्रांति के दौरान तोड़ फोड़ डाला गया था। जर्जर हालत में पड़े इस भवन पर लोगों का ध्यान विक्टर ह्यूगो ने दिलाया जब 1831 में उनकी किताब “नोट्रे-डेम ऑफ़ पेरिस” आई। अंग्रेजी में ये किताब “हंचबैक ऑफ़ पेरिस” नाम से आती है।
इस किताब के आने के बाद 1844-64 के दौरान अभियंता जीन बैप्टिस्ट एंटोनी लॉसस और इम्मानुएल विओल्लेट ली डुक ने इसमें वो चीज़ें जोड़ी जो आज इसे फ्रेंच गोथिक निर्माण के रूप में पहचान दिलाती हैं। इसकी प्रसिद्धि की एक वजह फ़्रांस की जॉन ऑफ़ आर्क की वजह से भी है। फ्रांस की ओर से ब्रिटिश सेना से लड़ने के लिए जाने जानी वाली इस नायिका को चर्च के आदेश पर जिन्दा जला दिया गया था। सदियों बाद अपने कुकृत्यों की माफी के रूप में जॉन ऑफ़ आर्क को “संत” घोषित किया गया। जॉन ऑफ़ आर्क का बिटीफिकेशन (संत घोषित करने की प्रक्रिया) इसी चर्च में पोप पायस (दशम) ने की थी।
धार्मिक भावनाएँ इसके जलने से आहत तो हुई होंगी, मगर इसके जलने पर जैसा मीडिया कवरेज दिखता है, वैसा दूसरे धर्मों के मामलों में नहीं होता। बरसों पहले भारत के एक जाने माने मंदिर में भी आग लगी थी। इस कैथेड्रल की तरह ये आग अपने आप या मानवीय भूल, किसी गलती से नहीं लगी थी। सबरीमाला के मंदिर को जानबूझ कर जलाया गया था। मई 1950 में इस मंदिर को जला कर खत्म कर देने की साजिश रची गयी थी। चोरी जैसा इरादा नहीं था, ये पुलिस को आसानी से समझ में आ गया था, क्योंकि कोई कीमती सामान चुराया नहीं गया था। दरवाजे पर कोल्लम के डीएसपी को, करीब महीने भर बाद जाने पर, काटने की कोशिश के 15 निशान मिले थे।
करीब सत्तर साल पहले के उस दौर में सबरीमाला के आस पास लगभग 20 किलोमीटर की दूरी में कोई आबादी नहीं थी। इस घटना में अपराधियों के पकड़े न जाने के कई कारण बताए जा सकते हैं। एक वजह ये थी कि जब ये घृणित साजिश रची गयी उस वक्त मंदिर बंद था। 17 जुलाई को जब इस घटना की रिपोर्ट दर्ज हुई, तब तक बारिश में ज्यादातर सुराग जैसे पैरों के निशान या उँगलियों के निशान धुलकर मिट चुके होंगे। पुजारी और उनके साथ के लोग इस वीभत्स घटना को देखकर घबरा गए थे, जिसकी वजह से वो सही-सही कुछ बता ही नहीं पाए। केशव मेनन जिन्हें तीन माह बाद सितम्बर में ये मामला सौंपा गया, उनके आने तक शुरूआती जाँच से अपराधी चौकन्ने हो चुके होंगे।
जो भी वजहें रही हों, मंदिरों पर जारी हमलों की बात कम ही होती है। इस बार के चुनावों में जनता के सबरीमाला मुद्दे पर अड़े रहने की वजह से शायद हमारा ध्यान भी मंदिरों की ओर जाने लगा है। सवाल यह है कि जब भारत को विविधताओं का देश कहा जाता है, तो एक मंदिर की अलग पद्दतियों को अलग रहने देने पर विविधताओं के शत्रुओं को इतनी दिक्कत क्यों है? आखिर वो नफरती चिंटू इतनी नफरत कहाँ से लाते हैं कि हिन्दुओं को उनके अपने पूजा-पाठ के तरीके जो संविधान ने दिए हैं, वो भी उन्हें नहीं देना चाहते?
बाकी सवाल यह भी है कि क्या हम खुद अपने मंदिरों पर जारी हमलों को उसी तरह देखने और बयान करने की हिम्मत जुटाएँगे जैसा वो सचमुच हैं? सेकुलरिज्म का टिन का चश्मा हम अपनी आँख से उतारेंगे क्या?