Saturday, November 23, 2024
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डॉक्टर अंबेडकर और ‘भारत का विचार’: जानिए संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष’ शब्द शामिल करने के विरोध में क्यों थे बाबासाहेब?

संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को शामिल करने के बारे में अंबेडकर के विचार और अनिच्छा लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है। उनका मानना ​​था कि अगर इन आदर्शों को संविधान के ज़रिए लागू किया गया तो यह लोगों की स्वतंत्रता के लिए प्रतिकूल होगा।

राष्ट्र की पहचान और भविष्य की दिशा के बारे में गहन चर्चा और बहस भारत के संविधान के निर्माण की आधारशिला थी। भारत की स्वतंत्रता के बाद कई वर्षों तक चले इस वृहत् कार्य में कुछ सबसे उल्लेखनीय प्रमुख बहसें शामिल थीं। ऐसी ही एक बहस प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को शामिल करने को लेकर थी।

प्रोफेसर केटी शाह ने 15 नवंबर 1948 को भारतीय संविधान के मसौदे में एक संशोधन का एक प्रस्ताव रखा, जिसमें भारत को ‘धर्मनिरपेक्ष, संघीय, समाजवादी राज्यों का संघ’ के रूप में लेबल करने की माँग की गई। हालाँकि, मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने इस प्रस्ताव को दृढ़ता से खारिज कर दिया।

केटी शाह द्वारा रखे गए उस स समय रखे गए प्रस्ताव पर डॉक्टर अंबेडकर को दो आपत्तियाँ थीं, जो भारत के बारे में उनकी दृष्टि की समझ का आधार बनीं। उनकी दृष्टि लोकतंत्र और देश के लोगों की इच्छा को निश्चित वैचारिक पदों से ऊपर रखती थी।

पहली आपत्ति: संविधान को कोई विचारधारा नहीं थोपनी चाहिए

डॉक्टर अंबेडकर का मुख्य तर्क लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में निहित था। उनका दृढ़ विश्वास था कि संविधान राज्य के कामकाज को विनियमित करने का एक तंत्र है। अंबेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा कि संविधान को ऐसे दस्तावेज़ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जो देश की भावी पीढ़ियों पर एक विशेष सामाजिक या आर्थिक विचारधारा थोपता हो।

केटी शाह के प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया देते हुए अंबेडकर ने कहा था, “राज्य की नीति क्या होनी चाहिए, समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष में कैसे संगठित किया जाना चाहिए, ये ऐसे मामले हैं जिनका निर्णय लोगों को समय और परिस्थितियों के अनुसार स्वयं करना चाहिए।”

अंबेडकर के अनुसार, भारत के संविधान में समाजवाद जैसी विचारधारा को संहिताबद्ध करने में एक बुनियादी विरोधाभास था। उन्होंने तर्क दिया कि अगर समाजवाद को प्रस्तावना में जोड़ दिया गया तो यह भविष्य की पीढ़ियों को अपना रास्ता चुनने की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करेगा। उन्होंने कहा, “इसे संविधान में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि यह लोकतंत्र को पूरी तरह से नष्ट कर देगा।”

उन्होंने पहले ही इस बात को समझ लिया था कि अलग-अलग कालखंड नई चुनौतियाँ आ सकती हैं। वे देश की भावी पीढ़ियों को किसी निर्दिष्ट प्रणाली से बांधने के लिए तैयार नहीं थे। इतिहास में एक समय समाजवाद लोकप्रिय था। जिस समय संविधान तैयार किया गया था, तब यह विकसित हो रहा था। इसे संविधान में जोड़ने से इनकार करना प्रासंगिक हो गया।

दूसरी आपत्ति: संविधान में पहले से ही समाजवादी सिद्धांत मौजूद

प्रस्ताव को खारिज करते हुए अंबेडकर ने दूसरा तर्क दिया कि संविधान के मसौदे में पहले से ही ऐसे प्रावधान हैं, जिन्हें राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के माध्यम से समाजवादी सिद्धांतों के रूप में देखा जा सकता है। उन्होंने मसौदे के अनुच्छेद 31 की ओर इशारा किया और कहा कि इसमें धन के संकेन्द्रण को रोकने और समान काम के लिए समान वेतन जैसे उपायों की रूपरेखा दी गई है, जो एक समाजवादी प्रावधान है।

उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा, “यदि ये निर्देशक सिद्धांत… अपनी दिशा और विषय-वस्तु में समाजवादी नहीं हैं तो मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि समाजवाद और क्या हो सकता है।” उन्होंने आगे तर्क दिया कि समाजवादी आदर्श पहले से ही निर्देशक सिद्धांतों में अंतर्निहित हैं, जिससे संवैधानिक रूप से भारत को अधिक समतापूर्ण समाज की ओर ले जाना संभव हो गया।

अंबेडकर के अनुसार, प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ना निरर्थक होगा, क्योंकि सामाजिक और आर्थिक न्याय के सिद्धांत पहले से ही मसौदा पाठ का हिस्सा हैं। इसके अलावा, उनका मानना ​​था कि नीति निर्देशक तत्वों में शामिल समाजवादी शब्द सरकार को देश को अधिक लचीलेपन के साथ चलाने की अनुमति देंगे।

उनका मानना था कि यह सरकार को समय के साथ बदलती आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल होने में सक्षम बनाएगा। इस विचार के विपरीत, यदि प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ा गया तो यह देश की भावी पीढ़ियों को अधिक कठोर वैचारिक ढाँचे में बाँध देगा, जिससे कई तरह की बाधाएँ पैदा होंगी।

धर्मनिरपेक्षता पर बहस: एक सूक्ष्म दृष्टिकोण

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर धर्म को राजनीति से दूर रखने के प्रबल समर्थक थे। सिर्फ़ वे ही नहीं, बल्कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी यही मानते थे। उन दोनों ने तर्क दिया कि प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का स्पष्ट रूप से उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। अंबेडकर ने तर्क दिया कि संविधान ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि भारत एक ऐसा देश होगा, जो किसी भी धर्म को मान्यता नहीं देगा।

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का कहना था कि धर्मनिरपेक्षता के विचारों को विभिन्न अनुच्छेदों में लागू किया गया है, जो धार्मिक स्वतंत्रता और राज्य के किसी विशेष धर्म के साथ गैर-संरेखण (Non-alignment) से संबंधित थे, जैसे अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 16। ये अनुच्छेद धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव को प्रतिबंधित करते हैं।

दूसरी ओर, नेहरू का मानना ​​था कि भारत में धर्मनिरपेक्षता अपने पश्चिमी समकक्षों से अलग है। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता मुख्य रूप से चर्च और यूरोप के देशों के बीच ऐतिहासिक संघर्ष को संबोधित करती है। नेहरू का मानना था कि इसके विपरीत भारत का धार्मिक परिदृश्य राजनीति से अधिक जुड़ा हुआ है। इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता को अधिक लचीली और कार्यात्मक अवधारणा के रूप में समझा जाना चाहिए।

इंदिरा गाँधी का 42वाँ संविधान संशोधन और ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों का समावेश

आपातकाल के दौरान 1976 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने संविधान में 42वें संशोधन के माध्यम से भारत की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ दिए। प्रस्तावना में इतना बड़ा बदलाव करने के लिए इंदिरा गाँधी की बार-बार आलोचना की गई। इसे गाँधी की शक्ति को मजबूत करने के उद्देश्य से एक राजनीतिक रूप में देखा गया।

किए गए बदलावों को अगर हम भीमराव अंबेडकर के दृष्टिकोण से देखें तो वे लोकतंत्र और स्वतंत्रता की उस भावना के विपरीत हैं, जिसकी वे रक्षा करना चाहते थे। अंबेडकर का मानना ​​था कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के बारे में फैसले लोगों की इच्छा को दर्शाने वाले होने चाहिए। ये किसी सत्तारूढ़ सरकार की वैचारिक प्राथमिकताएँ नहीं होनी चाहिए।

हाल में इसे भारतीय मूल्यों के प्रतिबिंब करने वाले के बजाय एक असुरक्षित सरकार का प्रतिबिंब माना गया। सितंबर 2024 में तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता एक यूरोपीय अवधारणा है, न कि भारतीय। उन्होंने कहा कि यह चर्च और यूरोप के राजा के बीच संघर्ष को समाप्त करने के लिए अस्तित्व में आया था।

भारत में ‘धर्मनिरपेक्षता’ को गैर-जरूरी बताते हुए उन्होंने बताया कि संविधान के मूल निर्माताओं ने इसे दस्तावेज़ में शामिल नहीं किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का जिक्र करते हुए आरएन रवि ने उन्हें ‘एक सुरक्षित प्रधानमंत्री’ कहा था, जिन्होंने संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा था।

अंबेडकर का दीर्घकालिक दृष्टिकोण: विचारधारा से ऊपर लोकतंत्र

संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को शामिल करने के बारे में अंबेडकर के विचार और अनिच्छा लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है। उनका मानना ​​था कि अगर इन आदर्शों को संविधान के ज़रिए लागू किया गया तो यह लोगों की स्वतंत्रता के लिए प्रतिकूल होगा। उन्होंने तर्क दिया कि संविधान एक लचीला दस्तावेज़ होना चाहिए, जो समाज की बदलती ज़रूरतों के हिसाब से ढलने में सक्षम हो।

उनके अनुसार, एक लोकतांत्रिक देश को अपने नागरिकों को देश की परिस्थितियों के आधार पर अपनी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था चुनने की स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए। धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद कठोर आदर्श हैं, जो लोगों की स्वतंत्रता को सीमित करते हैं। लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राज्य की अनुकूलनशीलता के प्रति अंबेडकर की प्रतिबद्धता ने उन्हें इन शब्दों को शामिल करने का विरोध करने के लिए प्रेरित किया।

(इस लेख को मूल रूप से अंग्रेजी में अनुराग ने लिखा है। आप इस लिंक पर क्लिक करके इसे पढ़ सकते हैं।)

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Anurag
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B.Sc. Multimedia, a journalist by profession.

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