Thursday, November 14, 2024
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‘फासीवादी, उनके हाथ खून से सने’ – अरुण जेटली के निधन पर लिबरपंथियों ने ऐसे मनाया जश्न!

'घृणित' मानसिकता के स्व-घोषित 'उदारवादी' आज जश्न मना रहे हैं। वे खुश हैं कि अरुण जेटली का निधन हो गया। यह इनकी पुरानी आदत रही है। पूर्व केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की मौत पर भी ये लोग इसी तरह के 'जश्न' में डूबे थे।

भारत के पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर अंतिम साँस ली। किसी के चले जाने से जो एक आकस्मिक शोक का भाव उभरता है, यह संस्कृति शायद कुछ लोगों में नदारद है। ऐसा नहीं होता तो एक तरफ जब राष्ट्रीय स्तर के नेता के निधन पर शोक मनाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ स्व-घोषित उदारवादियों के लिए आज ‘जश्न’ का दिन है।

ये वो लोग हैं, जिनके पास उल्लास के नाम पर इन दिनों कुछ भी बचा नहीं है। इसलिए, हिंदुत्ववादी नेताओं के निधन के नाम पर ही सही, ये जश्न मनाने के आतुर रहते हैं। आज यह जश्न अरुण जेटली के नाम पर मना रहे हैं, कुछ दिन पहले पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की मौत पर भी इसी तरह का व्यवहार कर रहे थे।

द क्विंट और द हिंदू का एक स्तंभकार है। यह ट्विटर पर क्वेंटिन टैरेंटुलिनो (Quentin Tarantulino) के नाम से जाना जाता है। यह लिखता है – जब कोई फासीवादी मरता है, तो अच्छा लगता है। हालाँकि इसने अपने ट्वीट को डिलीट कर दिया, लेकिन स्क्रीनशॉट के जमाने में अपनी करतूतों को छिपाने से बच नहीं पाया।

एक बाबा ग्लोकल है। वो अरुण जेटली को ‘पीस ऑफ शिट’ कहता है। वो लिखता है कि उसे हिंदू वर्चस्ववादी नए-नाजी (तानाशाह) के साथ कोई सहानुभूति नहीं है।

ग्लोकल ने एक दूसरे ट्वीट में लिखा, “अरुण जेटली उन कुछ लोगों में से एक थे, जो ‘अंग्रेजी में नाज़ीवाद’ का बचाव कर सकते थे।’

अशोक स्वैन ने अलग लेवल पर जाते हुए ट्वीट किया, थोड़ा गूढ़ लिखते हुए। वैसे वो हमेशा जहर ही लिखते हैं। लेकिन इस इंसान का ट्वीट पढ़िए, भावनाएँ स्पष्ट हो जाएँगी।

मिनी नायर ने लिखा, “अरुण जेटली को माफ नहीं किया जा सकता, उनके हाथ खून से सने हैं।”

आर्य सुरेश ने कहा कि ‘अरुण जेटली कितने अच्छे व्यक्ति थे’ जैसे लाखों लेख के बावजूद यह भूला नहीं जा सकता कि उन्होंने एक ‘फासीवादी’ का समर्थन किया था।

नंदतारा नाम के यूजर ने लिखा, उन्होंने अपनी सारी अच्छाइयों को किनारे रख दिया और मोदी-शाह के ‘क्लोन’ बन गए।

स्व-घोषित ‘उदारवादियों’ और लिबरपंथियों का यह रेगुलर पैटर्न बन गया है। ये किसी भी भाजपा नेता की मृत्यु के बाद जश्न मनाते हैं। संवेदना, संस्कृति, जीवन-मरण जैसे शब्द इनकी डिक्शनरी में मानो है ही नहीं। अगर होता तो शायद ये वो नहीं होते, जो आज ये बन चुके हैं!

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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