निर्वाचन आयोग इन दिनों ‘प्रतिबंध आयोग’ की भूमिका निभा रहा है। देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का दायित्व जिस संस्थान के ऊपर है वह कभी सिनेमा पर प्रतिबंध लगा रहा है तो कभी भाषण देने पर। इसी क्रम में आयोग ने दो पुस्तकों के लोकार्पण पर प्रतिबंध लगा दिया। इनमें से एक है मानोशी सिन्हा रावल की ‘Saffron Swords’ और दूसरी आभास मालदाहियार की ‘#Modi Again’ नामक पुस्तक।
जिन रिटर्निंग ऑफिसर महोदया ने जेएनयू में होने वाले इन दोनों पुस्तकों के लॉन्च पर नोटिस जारी किया उनका कहना है कि भले ही यह पुस्तकें पहले से वितरण में हों, पर इस कार्यक्रम को देखकर इसके राजनीतिक होने का आभास होता है; ऐसा लगता है कि एक नेता विशेष का प्रचार हो रहा है इसलिए यह नोटिस जारी किया गया। आयोग की ओर से नियुक्त अधिकारी महोदया का यह कथन अपने आप में ही बड़ा विचित्र है।
पहली बात तो यह कि इन दोनों पुस्तकों के पिछले कई महीनों से बाज़ार में उपलब्ध होने का अर्थ यह है कि इनके पाठकों की संख्या उनसे कई गुना अधिक है जो निमंत्रण पाकर या गाहे बगाहे बुक लॉन्च में पहुँचते। आज के समय में बुक लॉन्च जैसे आयोजन लेखकों को अपनी वह बात कहने का मंच देते हैं जो वे पुस्तक में नहीं लिख पाते। पुस्तक की अपनी एक सीमा होती है। कथेतर (non-fiction) विधा के नए नवेले लेखक अपनी बात कहने के लिए पुस्तक की विषयवस्तु को ज्यादा से ज्यादा 200 पेज में ही समेटना चाहते हैं क्योंकि इससे पुस्तक की मार्केटिंग में सहायता मिलती है।
कोई भी पाठक किसी नए लेखक की भारी भरकम पुस्तक तब तक नहीं पढ़ना चाहता जब तक वह लेखक कोई विशेषज्ञ या प्रसिद्ध व्यक्ति न हो। बुक लॉन्च किसी भी लेखक के लिए पाठकों से संवाद करने का अवसर प्रदान करने वाला आयोजन होता है। मानोशी रावल और आभास मालदाहियार ने यही सोचकर जेएनयू जैसे संस्थान में अपना बुक लॉन्च रखा होगा कि उन्हें विद्यार्थियों से संवाद करने का अवसर मिलेगा। इस देश में लाखों पुस्तकें प्रतिदिन प्रकाशित होती हैं जिनमें से आधे से अधिक बाज़ार का मुँह तक नहीं देख पातीं। न जाने कितनी पुस्तकें गोदामों में रखी सड़ जाती हैं।
इस देश में छः दशकों तक सत्ता संस्थानों में एक पार्टी विशेष का सीधा दखल रहा है जिसके कारण प्रचार तंत्र पर उस पार्टी के पाले हुए बुद्धिजीवियों का कब्जा रहा है। वामपंथी विचारधारा से ग्रसित प्रकाशक, लेखक और कथित विद्वानों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपनी रखैल बनाकर रखा। आज देश उस मानसिकता से उबरने का प्रयास कर रहा है। इसीलिए गरुड़ जैसे प्रकाशक उभर रहे हैं जो लेखन के स्थापित मानदंडों को तोड़ कर भारत केंद्रित विचारों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। यह प्रोपगैंडा आधारित लेखन के अंकुशों से बाहर निकलने की जिजीविषा है।
इसी जिजीविषा को उद्घाटित करने वाली पुस्तक है #Modi Again जिसे आभास मालदाहियार ने लिखा है। आभास ने किसी पार्टी या संगठन विशेष के एजेंडे को प्रसारित करने वाली पुस्तक नहीं लिखी है। उन्होंने अपनी पुस्तक में यह लिखा है कि नरेंद्र मोदी के बारे में उनकी विचारधारा में कैसे परिवर्तन आया। पुस्तक के आरंभ में ही वे लिखते हैं कि बचपन में वे लाल झंडे और केसरिया झंडे दोनों को सलाम करते थे। यह ऐसे व्यक्ति के लिए संभव है जो दोनों ही विचारों के सिद्धांतों से अनभिज्ञ हो लेकिन उसके आसपास दोनों ही विचारधाराओं के प्रतीक दिखाई पड़ते हों।
आभास अपनी विचारधारा में परिवर्तन की कहानी केजरीवाल के एंटी करप्शन आंदोलन से प्रारंभ करते हैं और आर्यन इन्वेज़न थ्योरी, अंबेदकर, अयोध्या जैसे मुद्दों पर अपने अनुभव लिखते हुए नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों और विकास योजनाओं तक पहुँचते हैं। यह लेखक की स्वतंत्रता है कि उसका राजनैतिक झुकाव किस तरफ है। यदि आभास की विचारधारा में आए परिवर्तन का झुकाव नरेंद्र मोदी की तरफ है तो इसमें कोई बुराई नहीं। शशि थरूर ने भी संयुक्त राष्ट्र के वेतनभोगी अधिकारी रहते हुए भारत के नेहरू पर रिसर्च किया था और पुस्तकें लिखी थीं।
उन पर कभी किसी ने सवाल नहीं उठाए और न ही कभी उनकी पुस्तकों को प्रतिबंधित किया गया। राजनीति में आने के बाद शशि थरूर ने 2018 में विधानसभा चुनावों से ठीक एक महीना पहले The Paradoxical Prime Minister नामक पुस्तक लिखी थी। यदि किसी पार्टी के नेता की तारीफ करना आचार संहिता का उल्लंघन है तो निर्वाचन आयोग को इसपर भी सोचना चाहिए कि किसी नेता के विरोध में पुस्तक लिखना भी आचार संहिता का उल्लंघन माना जाना चाहिए क्योंकि इससे विरोधी पार्टियों को बल मिलता है।
जहाँ तक मानोशी रावल की पुस्तक Saffron Swords की बात है, वह तो किसी भी दृष्टिकोण से राजनैतिक विचारधारा पर आधारित नहीं है। बल्कि यह पुस्तक तो भारत के उन 50 से अधिक ऐतिहासिक शूरवीरों की कहानी है जिनके बारे में शायद बहुत से सैन्य इतिहासकारों को भी नहीं पता होगा। उदाहरण के लिए राणा सांगा, प्रताप, लक्ष्मीबाई और सियाचिन पर परमवीर चक्र पाने वाले बाना सिंह का नाम तो सबने सुना है लेकिन 300 सैनिकों के साथ आदिलशाह की 12000 की फ़ौज से टकराने वाले बाजीप्रभु देशपांडे का नाम बहुत कम लोगों ने सुना होगा। असम के सेनापति तोनखाम बोरपात्र गोहेन के बारे में कम लोग जानते होंगे जिसने अफ़ग़ान तुरबक खान को 1533 में पराजित किया था।
मानोशी की पुस्तक में ऐसी ही दुर्लभ कहानियों का संग्रह है। इस पर निर्वाचन आयोग को क्या आपत्ति हो सकती थी यह समझ से बाहर है। एक तो वैसे ही देश में इतिहास लेखन हद दर्ज़े तक एकपक्षीय और तुष्टिकरण वाला रहा है। उस पर यदि कोई शोध करके कुछ नया लिख रहा है तो यूनिवर्सिटी में चार विद्यार्थियों के सामने उसका बुक लॉन्च आचार संहिता का उल्लंघन मान लिया जाता है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि चुनावों का मौसम शुरू होने से ऐन पहले ऑल्ट न्यूज़ के संस्थापक प्रतीक सिन्हा ने भी एक पुस्तक लिखी है जिसमें वो सोशल मीडिया पर कथित तौर पर फैलाए जाने वाली फेक न्यूज़ का भंडाफोड़ करने की बात कहते हैं जबकि अधिकतर फेक न्यूज़ उनके द्वारा ही जनित होती है। क्या सिन्हा के विश्लेषण में राजनैतिक दुर्भावना का अंश होना पूरी तरह नकारा जा सकता है जबकि आज सोशल मीडिया को पार्टियों द्वारा फैलाए जा रहे दुष्प्रचार का एक हथकंडा बना दिया गया है। क्या निर्वाचन आयोग को इसका संज्ञान नहीं लेना चाहिए? क्या निष्पक्ष दिखने वाले वास्तव में निष्पक्ष हैं, यह भी चर्चा का विषय होना चाहिए।
बहरहाल, जेएनयू में भले ही दोनों पुस्तकों के लॉन्च पर प्रतिबंध लगा दिया गया हो लेकिन निर्वाचन आयोग के इस निर्णय से इन पुस्तकों की बिक्री अवश्य बढ़ गई है। मानोशी की पुस्तक अमेज़न पर नंबर 9 पर पहुँच गई है और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों ने आभास की पुस्तक पर अकादमिक विमर्श के लिए सहमति दी है।
#StandByGaruda
— Garuda (@GarudaPrakashan) April 16, 2019
BHU guys decided to have an academic discussion over the book #ModiAgain by @Aabhas24.
A very appreciable gesture. pic.twitter.com/dvHwTXQHb1
Congratulations to @authormanoshi and @GarudaPrakashan for having #SaffronSwords at no 9 on amazon.
— अंकुर पाठक | Ankur Pathak (@ankur2812) April 17, 2019
Irrespective of banning the launch of this book by EC in JNU, People of India will definitley do justice with this book. pic.twitter.com/ozvQooTBjw