एक पुराना जोक है। एक पुत्र अपने पिता से कहता है कि वह 100 मीटर की रेस में तीसरा आया है। प्रफुल्लित पिता पूछते हैं कि कुल कितने लोग दौड़ रहे थे? बेटे ने जवाब दिया- 3। लेकिन गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले केवल एक ही पार्टी दौड़ती दिख रही है। अन्य पार्टियों को देखकर ऐसा लगता है कि उन्होंने रेस से पहले ही सरेंडर कर दिया है या फिर रेस शुरू होने से पहले ही उनका दम उखड़ने लगा है।
हालिया घटनाक्रमों को देखें तो दूर से बैठकर ऐसा लगता है कि गुजरात विधानसभा से पहले आम आदमी पार्टी (AAP) फोकस में है। लेकिन जमीन पर देखें तो पता चलता है कि आप को जो फोकस मिला है, वह अत्यंत नकारात्मक वजहों और सामान्य गुजरातियों के गुस्से के कारण ही आया है। आप की कोशिश रही है कि वह यह संदेश दे सके कि मुकाबला उसके और बीजेपी के बीच होना है। लेकिन इस फेर में उसने खुद को ही फँसा लिया है।
वहीं कॉन्ग्रेस अभी तक रेस शुरू भी नहीं कर सकी है। गुजरात कॉन्ग्रेस चुनावी मूड में आने का प्रयास शुरू ही कर रही थी कि उसके प्रभारी अशोक गहलोत ने आलाकमान के विरुद्ध बिगुल फूँक दिया और उनका सारा ध्यान अपनी कुर्सी बचाने में लग गया। गुजरात में कॉन्ग्रेस कैसे जीते, उसकी रणनीति तैयार करना उनकी प्राथमिकता में कहीं नहीं है। वैसे गुजरात कॉन्ग्रेस के लिए यह कोई नई बात नहीं है। बीते तीन दशक से वह रेस में होने का सिर्फ़ दिखावा करती है और परिणाम आने के बाद ‘हम मनोमंथन करेंगे’ कहकर प्रदेश प्रमुख और अन्य के इस्तीफे लेकर पार्टी अगली पराजय की तैयारियों में लग जाती है।
गुजरात विधानसभा में कुल 182 सीटें है। चुनाव नवंबर के अंत या दिसंबर की शुरुआत में संभावित है। 2017 में पाटीदार आंदोलन के चलते भाजपा केवल 99 सीटों पर सफल हो सकी थी। यह बहुमत से केवल 7 सीट ज़्यादा थी। लेकिन चुनाव के बाद कई कॉन्ग्रेसी MLA भाजपा में शामिल हो गए। आज विधानसभा में बीजेपी बल 111 का है, जबकि कॉन्ग्रेस सिमटकर 62 पर रह गई है।
यदि इतिहास की बात करें तो गुजरात में कॉन्ग्रेस ने संपूर्ण सत्ता का स्वाद अंतिम बार 1985 में चखा था, जब KHAM थ्योरी के दम पर माधव सिंह सोलंकी मुख्यमंत्री बने थे। कॉन्ग्रेस ने तब 149 सीटों पर जीत हासिल की थी। मजे की बात यह है कि माधव सिंह सोलंकी के इस रिकॉर्ड को उनसे कई गुना लोकप्रिय होने के बावजूद नरेंद्र मोदी कभी भी नहीं तोड़ सके।
1995 में भाजपा गुजरात में पहली बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने में कामयाब हुई। लेकिन शंकर सिंह वाघेला के खजुराहो कांड के चलते करीब डेढ़ साल में ही सत्ता हाथ से चली गई। वाघेला ने पहले अपनी पार्टी बनाई और फिर कॉन्ग्रेस में विलीन हो गए। 1998 के मध्यावधि चुनावों में बीजेपी ने फिर से पूर्ण बहुमत हासिल किया। उसके बाद से गुजरात की सत्ता में बीजेपी मजबूती से बनी हुई है।
अब फिर से मौजूदा स्थिति पर लौटते हैं। भले आप खुद को बीजेपी से मुकाबिल दिखाने की भरसक कोशिश कर रही हो, लेकिन जमीन पर इस बार भी मुख्य मुकाबला बीजेपी और कॉन्ग्रेस के बीच ही होता दिख दिख रहा है। हाँ, बीजेपी विरोधी जो वोट अब तक एकमुश्त कॉन्ग्रेस को मिलते रहे हैं, उसका कुछ हिस्सा इस बार AAP भी ले जा सकती है। मुस्लिम बहुल सीटों पर ओवैसी की AIMIM भी है। फिलहाल जो स्थिति दिख रही उसमें आप और ओवैसी, दोनों कॉन्ग्रेस को नुकसान करते दिख रहे हैं। इसके कारण इस बार कॉन्ग्रेस के 40 के आसपास सिमटने का अनुमान लगाया जा रहा है।
2017 के चुनावों में स्थिति अलग थी। पाटीदार अनामत आंदोलन की मायावी आड़ लेकर कॉन्ग्रेस चुनाव लड़ी थी। इसके कारण वह बीजेपी को टक्कर देती दिख रही थी। 2017 में यदि पाटीदार आंदोलन का असर न होता तो बीजेपी की विधानसभा में कमोबेश उतनी ही सीटें होती, जितनी फिलवक्त विधानसभा में उसकी संख्या बल है। लेकिन इस बार बीजेपी की सरकार के विरुद्ध ऐसा कोई अंडर करंट नहीं दिख रहा है जो उसे दो तिहाई बहुमत मिलने से रोक सके।
वहीं आम आदमी पार्टी की बात करें तो ऐसा लगता है कि गोपाल इटालिया को गुजरात प्रदेश प्रमुख बना कर अरविंद केजरीवाल ने बहुत बड़ी गलती कर दी है। इटालिया भले एकाध साल से ही आप के गुजरात प्रदेश अध्यक्ष हैं, किन्तु सोशल मीडिया पर उनका इतिहास काफी लंबा और दागदार है। उनकी भाषा और हिंदू धर्म विरुद्ध उनकी टिप्पणियाँ AAP के लिए आत्मघाती साबित हो रही हैं। एक सामान्य गुजराती जो धार्मिक है, उसके मन में इटालिया के प्रति बहुत रोष दिखता है।
वैसे तो आधिकारिक तौर पर गुजरात के विधानसभा का चुनावी शंखनाद नहीं हुआ है। पर चौसर बिछने शुरू हो चुके हैं। अभी जो माहौल है और जिस तरह से गोटी फेंकी जा रही उससे लगता है कि बीजेपी यदि 120 से लेकर 140 सीटों तक नहीं ला पाती है तो यह एक तरह से उसके लिए असफलता ही होगी। 2017 के उलट इस बार माहौल बीजेपी के पक्ष में उसी तरह है, जैसे नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुआ करती थी।