आम आदमी पार्टी ने भले ही गुजरात विधानसभा चुनावों में उम्मीद के मुताबिक अच्छा प्रदर्शन न किया हो, लेकिन पार्टी माहौल बनाने में कामयाब रही। हालाँकि इस काम में मेन स्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया का भी एक बड़ा योगदान था। परंतु चुनाव के नतीजे यदि सकारात्मक न हो तो बनाया गया माहौल, प्रचार और विज्ञापन सब बेकार हो जाता है। आम आदमी पार्टी के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। पार्टी तो आई थी गुजरात चुनाव जीतने का सपने लेकर लेकिन जा रही है कॉन्ग्रेस के वोट काट कर।
आँकड़ों की बात करें तो गुजरात के विधानसभा चुनाव परिणाम में AAP को मात्र 5 सीटें आई हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष गोपाल इटालिया और मुख्यमंत्री का चेहरा इसुदान गढ़वी अपनी-अपनी सीटों पर हार गए हैं। पार्टी को 12.92% वोटों से ही संतोष करना पड़ा है, जबकि वो जीत के दावे कर रही थी। वहीं भाजपा ने 156 सीटें अपने नाम की हैं, जो गुजरात में किसी भी पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है।
गुजरात में विधानसभा चुनावों के ऐलान से काफी पहले ही आम आदमी पार्टी ने राज्य में चुनाव प्रचार शुरू कर दिया था। पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल से लेकर दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान और राघव चड्ढा जैसे पार्टी के बड़े नेता गुजरात में चुनाव प्रचार के लिए काफी पहले से पहुँचने लगे। हालाँकि, शराब घोटाले में नाम आने के बाद मनीष सिसोदिया ने गुजरात आना कम कर दिया था।
दिल्ली के सीएम और पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल ने भी गुजरात में धुआँधार बैठकें की, कई प्रेस कॉन्फ्रेंस किए, लोगों से मिले, तरह-तरह के वादे किए और खुद को तीसरे विकल्प के तौर पर पेश करने में कामयाब रहे। फिर चाहे मुफ्त बिजली-पानी हो, महिलाओं और युवाओं के लिए भत्तों की घोषणा हो, मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक आम आदमी पार्टी की उपस्थिति आखिर तक बनी रही।
केजरीवाल का हिंदुत्व कार्ड भी नाकाम
केजरीवाल यह समझ चुके थे कि गुजरात चुनावों में कामयाब होने के लिए हिंदुओं को नाराज नहीं कर सकते। इसलिए उन्होंने अपनी हिंदुवादी छवि बनाने की कोशिश की। एक समय में “मेरा राम किसी की मस्जिद तोड़कर बनाए मंदिर में नहीं रह सकता” कहने वाले केजरीवाल गुजरात के बुजुर्गों को राम लला के नि:शुल्क दर्शन कराने का वादा करने लगे। चुनाव प्रचार के दौरान अपनी तुलना भगवान कृष्ण से करते हुए कंस की औलादों का नाश करने की बात करने लगे। इतना सब कुछ कम था कि उन्होंने नोटों पर भगवान गणेश और माता लक्ष्मी के चित्र छापने की वकालत शुरू कर दी।
हालाँकि, अंततः केजरीवाल के सारे फॉर्मूले फेल हो गए और पार्टी बुरी तरह हार गई। कई सीटों पर पार्टी उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई। यहाँ तक कि जिन सीटों पर पार्टी को बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी, वहाँ भी निराशा हाथ लगी।
आम आदमी पार्टी पर गुजरातियों को भरोसा क्यों नहीं?
आम आदमी पार्टी ने खुद को तीसरे विकल्प के रूप में पेश करने की पूरी कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सके। इसका प्रमुख कारण यह है कि उसने लोगों से वादे तो किए लेकिन यह नहीं समझा सकी कि उन वादों को पूरा कैसे किया जाएगा। वहीं दूसरी तरफ दिल्ली से जहाँ आम आदमी पार्टी सत्ता में है, एक के बाद एक कई घोटाले सामने आने लगे। वोटिंग से पहले सामने आ रहे इन घोटालों ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया।
आम आदमी पार्टी के पास ऐसे कार्यकर्ता की कमी थी, जो गाँव-गाँव जाकर काम कर सकें और लोगों के पास जाकर वोट माँग सकें। सोशल मीडिया पर पार्टी के समर्थन में पोस्ट भर कर देने से चुनाव नहीं जीते जाते। चुनाव जीतने के लिए जमीन पर उतरना पड़ता है। ज्यादातर सीटों पर आम आदमी पार्टी नजर ही नहीं आई। इसका कारण यह है कि पार्टी में जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की कमी थी, जिससे पार्टी को नुकसान पहुँचा।
आम आदमी पार्टी ने इस चुनाव में मीडिया और सोशल मीडिया पर ज्यादा भरोसा किया। वो भूल गए कि वोटरों को रिझाने के लिए आपको जमीन पर भी उतरना होता है। आम आदमी पार्टी जमीन पर बहुत कम दिखाई दी। साथ ही जहाँ वे नजर आए, वहाँ भी वे लोगों को यह नहीं समझा सके कि भाजपा और कॉन्ग्रेस को छोड़कर आम आदमी पार्टी को ही क्यों चुनें।
इस विधानसभा चुनाव में ज्यादातर सीटें ऐसी थीं, जहाँ मुकाबला बीजेपी और कॉन्ग्रेस के बीच था। खासकर ग्रामीण इलाकों में हालात ऐसे ही थे। ऐसे में आम आदमी पार्टी विकल्प के तौर पर जगह नहीं बना पाई। कई सीटों पर तो ऐसा लगा कि भाजपा और कॉन्ग्रेस उम्मीदवारों के टक्कर के बीच आम आदमी पार्टी को झोंक दिया गया।
सामाजिक समीकरण भी चुनाव में अहम भूमिका निभाते हैं। इसका फायदा आम आदमी पार्टी को सूरत नगर निगम चुनाव में मिला और पार्टी ने 27 सीटों पर जीत हासिल की। विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने सूरत और सौराष्ट्र पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। पिछले विधानसभा चुनाव में सौराष्ट्र इलाके में पाटीदार आंदोलन का सबसे ज्यादा प्रभाव था। तब इलाके की ज्यादातर सीटों पर जीत हासिल कर कॉन्ग्रेस ने भाजपा को 100 से भी कम सीटों पर रोक लिया था।
आम आदमी पार्टी की कोशिश सौराष्ट्र के इन सीटों को कॉन्ग्रेस से छीनने की थी। इसके लिए पार्टी ने सामाजिक समीकरणों को साधने का भी प्रयास किया। पार्टी ने पाटीदार बहुल सीट वराछा से अल्पेश कथीरिया को मैदान में उतारा। अल्पेश पाटीदार आंदोलन का प्रमुख चेहरा रह चुके हैं। आम आदमी पार्टी ने कतारगाम से पाटीदार आंदोलन का चेहरा रहे गोपाल इटालिया और आलपाड सीट पर धार्मिक मालवीय को उम्मीदवार बनाया। पार्टी ने इन सीटों पर खूब प्रचार भी किया लेकिन यहाँ भी सफलता नहीं मिली।
दूसरी ओर, आम आदमी पार्टी, कॉन्ग्रेस के लिए ‘वोट कटवा’ साबित हुई। क्योंकि भाजपा के मिलने वाले वोट सुरक्षित रहे लेकिन कॉन्ग्रेस के वोट बैंक में सेंधमारी हो गई।
इसकी प्रमुख वजह यह है कि 2017 में पाटीदार समुदाय (और अन्य समुदायों) में पनपी भाजपा विरोधी भावना 2022 आते-आते पूरी तरह से समाप्त हो चुकी थी। इन समाजिक आंदोलनों के पोस्टर बॉय हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर जैसे नेता भाजपा में शामिल हो गए, वहीं दूसरी ओर चुनावों को लेकर कॉन्ग्रेस की आक्रमकता में कमी नजर आई। बीजेपी इन 5 सालों में और खासकर चुनाव से पहले विभिन्न समुदायों को लुभाने में सफल रही है और इसका असर इन सभी सीटों पर देखने को मिला।
वादे और विवादों से उबर नहीं पाई AAP
विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी को छोटी-बड़ी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इन चुनौतियों से पार पाना पार्टी के लिए मुश्किल साबित हुआ। कभी शिक्षा और स्वास्थ्य की बात करने वाली पार्टी जाति का कार्ड खेलने पर मजबूर हो गई।
गोपाल इटालिया के पुराने वीडियो ने पार्टी को बैकफुट पर ला दिया। वहीं केजरीवाल के एक मंत्री के धर्मांतरण कार्यक्रम में शामिल होने के विवाद का भी गुजरात में गहरा असर पड़ा। साथ ही दिल्ली के शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया का नाम आने से पार्टी की छवि को नुकसान पहुँचा।
इनके अलावा दिल्ली सरकार में केजरीवाल के एक अन्य मंत्री सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी और उसके बाद जेलों में वीआईपी सुविधाओं का एक के बाद एक वीडियो बाहर आना… यह सब कुछ ऐसे मुद्दे थे, जो पार्टी पर गुजरात में भारी पड़ गईं।
क्या है आम आदमी पार्टी का भविष्य?
लोगों का मानना है कि यह राज्य में आम आदमी पार्टी की शुरुआत है और पार्टी भविष्य में (यानी 2027 के विधानसभा चुनाव में) अच्छा प्रदर्शन कर सकती है। परंतु राजनीति में खासकर चुनाव के लिहाज से भी पाँच साल की अवधि को बड़ा और महत्वपूर्ण माना जाता है।
2017 के चुनावों में किसी तरह अपना गढ़ बचाने में कामयाब रही बीजेपी ने इस साल सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं करने वाली बीजेपी ने नरेंद्र मोदी की भारी लोकप्रियता के बल पर 2014 में ऐतिहासिक जीत हासिल की थी और तभी से पार्टी केंद्र में भी सत्ता में है।
आम आदमी पार्टी का गुजरात में मजबूत संगठन नहीं है। इस चुनाव में करारी हार का पार्टी कार्यकर्ताओं पर भारी प्रभाव पड़ेगा। कार्यकर्ताओं को जीत की नहीं बल्कि कुछ सीटों की उम्मीद थी, जो उन्हें नहीं मिली। उन्हें 5 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। कार्यकर्ता बाहर न निकलें तो परिणाम क्या होता है, यह कॉन्ग्रेस से बेहतर और कौन समझा सकता है!